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सामाजिक बदलाव

सामाजिक बदलाव

by डॉ. दौलत पालीवाल
in सामाजिक, सितम्बर २०१३
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महान दार्शनिक सुकरात ने कहा था, ‘‘अज्ञानता सारी बुराइयों की जड़ है। ज्ञान साधना है, तपस्या है और ईश्वर की सुन्दर देन है।’’ बिल्कुल सही है। ज्ञान मानव को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाली उदात्त शक्ति है। ज्ञान से ही धर्म का सृजन सम्भव हो पाया। इस बुनियाद पर ही मानव ने सामाजिक, नैतिक और धार्मिक शक्तियों को विकसित किया। विकास की नियमित प्रक्रिया में जो ज्ञान साधना में लगा रहा, वह नव निर्माण की कला को जान पाया और समाज में परिवर्तन लाने के प्रयास करता रहा। हजारों वर्षों के इस मानवीय विकास में धर्म का रूप गहन होता गया। युगांतर में इसमें भ्रांतियां आ गयीं।

जहां-जहां भी सामाजिक हित की रक्षा की बात आयी, वहां-वहां धर्म का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। सामान्य जनता उसे अपने आचरण में लाती रही। अपने बचपन का एक उदाहरण मैं देता हूं- खेत में गन्ना बोने के कम से कम दस माह बाद ही वह पकता है और उसमें मिठास आती है। इसके लिए कार्तिक एकादशी का मुहूर्त बताया गया। कहा गया कि एकादशी के पूर्व यदि कोई गन्ने के रस को चखेगा तो देवी मां उसे ‘पापी’ करार देगी। समाज में उसका बहिष्कार होगा और लोग उसे पापी कहने लगेंगे। इस कारण हम बच्चे भी इस दिन के पूर्व कभी गन्ना चूसते नहीं थे। वास्तव में इसका सीधा सा व्यावहारिक कारण था कि यदि गन्ना पका नहीं तो उसमें मिठास नहीं आएगी और ऐसे अधपके गन्ने को तोड़ना निरर्थक और हानिकारक है। यदि इसे धर्म का आवरण न चढ़ाया जाता तो शायद कोई उसे नहीं मानता। यह बाद दिगर है कि इससे एक गलत परम्परा का बीजारोपण हुआ। ऐसी ही बातों के कारण समाज में अंधविश्वास फैला, अंधश्रद्धाएं बढ़ीं। महिलाएं इसकी बड़ी मात्रा में शिकार हुईं।

आजादी के पहले कुपोषण और कुरीतियों के कारण बड़ी संख्या में महिलाओं की मौत होती थी। कई तो मां बनने के पहले ही मर जाती थीं। चाहे बाल विवाह हो, सती प्रथा हो, परदा प्रथा रही हो या दहेज प्रथा रही हो, महिलाओं पर अत्याचार होता रहा और उनका शोषण किया जाता रहा। ‘पति परमेश्वर’ कहे जाने से उसकी किसी बात का विरोध करना ईश्वर का विरोध करने जैसा हो गया। ऐसी कुरीतियों का एक किस्सा मेरे अपने परिवार में घटा है-

मैं उस समय कोई 4-5 साल का रहा होऊंगा। मेरे चाचा की शादी हो गयी। चाचा दसवीं तक पढ़े थे, चाची अनपढ़ थीं। चाची की उम्र तब करीब 13-14 वर्ष की रही होगी। गांव की बुजुर्ग औरतें आतीं और चाची को देखकर चली जातीं। दिनभर यह सिलसिला चलता रहा। घर में तो प्रसाधन गृह था नहीं। कुछ बोल भी नहीं सकती थीं। रात में भी वह शायद बिना कुछ खाये-पिये ही सो गयीं। सुबह उठीं तो उसने किसी से कहा, ‘एक कप चाय मिलेगी। सिर दर्द कर रहा है।’ बात सास तक पहुंची। सास पूछने लगी, ‘यह चाय क्या है? सुबह-सुबह चाय? बिना दातून चाय?’ बात गांव में फैल गयी। फिर गांव की बुजुर्ग औरतें आकर घूंघट उठाकर देखने लगीं। हम बच्चे भी यही करतेऔर चिल्लाकर कहते, ‘चाय वाली भाभी!’ लोग उसे प्रेतात्मा की शिकार मानने लगे। उससे कतराते। डर था कि कहीं ‘चाय’ की बीमारी उन्हें न लग जाये। अन्त में उसे तपेदिक हो गया और वह चल बसीं। कुरीति ने उसकी नाहक जान ले ली।

अब उत्तर प्रदेश बदल रहा है। राज्य में आयीं विभिन्न सरकारों ने स्त्री शिक्षा पर बल दिया है। राज्य में 90% से अधिक बालिकाएं प्राथमिक/माध्यमिक स्तर की शिक्षा पाती हैं। महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षा पाने वाली महिलाओं की संख्या में भी काफी वृद्धि हुई है। भूत-प्रेत, चुड़ैल मानने की संख्या घट गयी है। ब्याह के समय अब लड़कियों की इच्छा को भी तवज्जो दी जाती है। उत्तर भारत में रूढ़ियां, अंधविश्वास, भूत-प्रेत बाधा जैसी भ्रांतियां अब हाशिये पर हैं; लेकिन जातिगत/सम्प्रदायवाद का भस्मासुर बढ़ रहा है। आइन्स्टीन ने सापेक्षवाद सिद्धांत में कहा है कि कोई वस्तु समाप्त नहीं होती। उसका केवल रूपांतरण होता है। शायद पुरानी कुरीतियों के स्थान पर नयी कुरीतियां जन्म लें। अज्ञानता से पैदा हुई कुरीतियों के मुकाबले ज्ञान के कारण उत्पन्न कुरीतियां ज्यादा खतरनाक होंगी। हम सभी को इसके प्रति सतर्क रहने की आवश्यकता है।
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