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देवता

देवता

by शिवचरण मंत्री
in कहानी, नवंबर -२०१३
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भवानी की मृत्यु बड़ी ही असाधारण परिस्थितियों में हुई थी। चांदनी रात थी और छोटी सी नदी का किनारा था। बहुत रात बीतने पर उगम ने घर जाने को निकले भवानी को रुकने का बहुत आग्रह किया पर उसने एक नहीं सुनी। उस रात उसने कुछ ज्यादा ही पी ली थी। तदुपरांत भवानी उस क्षेत्र का बेताज बादशाह था, वह भला क्यों कर किसी की बात सुनता? दूसरी ओर उगम की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं थी। उसके पांव लड़खड़ा रहे थे और जबान मी हकला रही थी। अलबत्ता विदाई विधि लम्बी हो गई थी। चन्दा की धवल चांदनी में नहाते दोनों बहुत देर तक खुले आंगन में खड़े रहे, हंसते हुए, हाथ लम्बे करके एक दूजे के गालों को सहलाते रहे। अन्तत: भवानी पीठ दिखाते हुए चला भी गया तो भी उगम यथावत खड़ी ही रही। खेतों के रास्ते पर जहां तक दिखाई दिया वहां तक खड़ी-खड़ी देखती ही रही।
विदाई वेला में मनोरम दृश्य की कल्पना सम्भव नहीं।

उगम का आवास गांव से मात्र छ: सात खेतों की दूरी पर ही था; भवानी मात्र दस ही मिनट में घर पहुंच जाता, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। ढलान पार करते हुए यकायक ठोकर लगी और वह गिर पड़ा। बरसात का मौसम बीतने को था। अत: नदी के पानी का बहाव बहुत ही कम- घुटनों तक ही था पर जो होना था, उसके लिए पर्याप्त था भवानी का आधा सिर पानी में और आधा बाहर: इस स्थिति में सुबह उसका शव मिला।
लोगों ने कहा, कुत्ते की मौत मरा।

पर, दूसरी ओर गांव के कुछ लोगों की मान्यता अलग ही थी। ऐसे लोग बाजार की दुकानों की चबूरियों पर ही स्थायी रूप से बैठे रहते थे। ये लोग बहुत ही कम बोलते पर जो भी कहते वह लम्बी लम्बी सांसें लेकर कहते; यदाकदा उनके कहने से वेदना या विस्मय की अनुभूति होती। उनकी मान्यतानुसार भवानी की मृत्यु उच्च कोटि की थी और यक्षों और गंधर्वों को भी इससे ईर्ष्या होती थी। प्रियतमा से मिलकर निकला था। मदमस्त मनोदशा थी। चांदी सी धवल चांदनी और सोने सा बहुमूल्य नदी का जल था। आंख मूंदी उस समय स्वर्ग इससे दूर नहीं होगा।
सौभाग्यशाली को ही ऐसी मृत्यु मिलती है।

सुनने वालो में किसी श्रोता ने कहा कि उसने नींद में विमान की घुरघुराहट सुनी थी।
***
चाहे कोई कुछ भी कहे पर भवानी इस क्षेत्र का एक गणमान्य व्यक्ति तो था ही। यद्यपि रजवाड़े नहीं रहे; पर भवानी का वैभव किसी भी छोटे ठाकुर से कम नहीं था। अत: मृत्यु पश्चात जो भी होना चाहिए था वह सब उसकी प्रतिष्ठानुरूप ही हुआ। अभी पांच साल पहले ही उसने गहरा काला संगमरमर मंगाकर गांव में इतना विशाल भवन बनवाया कि पूरा का पूरा गांव उसमें समा जाए। मकान के विशाल चौक में मण्डल बनवाये। गांव-गांव में लोग लोकाचार हेतु आये। स्थानीय विधायक, तहसील और जिले के प्रमुख भी संवेदना प्रकट करने आए। भोजन में उच्च कोटि के मिष्ठान्न बनने लगे। बाहर से आने वालों के लिए भोजन की व्यवस्था की गई। सारा वातावरण करूणा और पवित्रता से ओतप्रोत हो गया।

बाहर इतना शोरशराबा होने पर भी अंदर कमरे के एक कोने में बैठी भवानी की विधवा का मन बहुत सूना था। आंसू सूखा कर वह दृढ़ निश्चय की मूर्ति ही हो गई थी। उसके रक्त में एक लहर उत्पन्न होकर चींख-चींख कर कुछ करने को कह रही थी।
कुछ तो करना ही होगा। यह मृत्यु व्यर्थ में नहीं जाने दूंगी।

उगम के मायके के लोग ही मातमपुरसी करने वाले थे। उसके बड़ा भाई नहीं था; पर इस कमी की आपूर्ति करने वाले दो सक्षम भतीजे थे। मातमपुरसी का समय पूरा हो जाने पर शोक की पगड़ी बांध कर वे अपनी फूफी के पास बैठे। फूफी और भतीजों ने परस्पर बातचीत की। फूफी ने बातचीत की शुरूआत करते हुए कहाः तुम्हारे दिवगंत फूफा श्री एक पुण्यशाली आत्मा थे।

फूफी की इस गूढ़ बात का रहस्य भतीजों की समझ में नहीं आया अत: वे विवशता से सिर झुकाए बैठे रहे। जानने को तो वे सभी जानते थे क्योंकि फूफा भवानी का जीवन एक खुली पुस्तक का सा था। इसमें जो पुण्य था वह अब तक क्यों नहीं दिखाई दिया, यह बात भोले युवा भतीजे नहीं समझ सके थे।

नारी की घोषणा की गूंज दूर दूर तक सुनाई पड़ी, विशेष रूप से भवानी के मित्रगण और प्रशंसक यह घोषणा सुनकर अवाक रह गए। ये लोग विवेक के भार से दबकर कसमसाते हुए एक दूसरे को देखने लगे और मौन रहकर मात्र नेत्रों से पूछने लगेः भाग्यवान? पुण्य? आत्मा?
लग्न मण्डप से लेकर मृत्यु तक भवानी का अपनी पत्नी के साथ व्यवहार जगजाहिर था। पत्नी में उसके बाह्य व्यवहार के विषय में एक भी शब्द बोलने की हिम्मत नहीं थी और न ही हो सकती थी; फिर भी वह उसे क्षमा नहीं करता और समय-समय पर दण्ड देता रहता था। देर रात्रि में घर आता और फिर तुनक कर पत्नी को घर से बाहर निकाल देता। पत्नी चाहे सर्दी हो या वर्षा बाहर खुले में सारी रात बैठी रहती। पड़ौसी यह सब देखने पर मात्र हाथ का इशारा करके कोई भी उसे अपने यहां बुलाने की हिम्मत नहीं कर सकता था।

पुण्यशाली आत्मा।

सुन कर आश्चर्य हुआ पर सभी ने अपने मन को यह कह समझाया कि भाई, नारी है। इसके अन्तर की गहराई को भला कौन समझ सकता है?

गांव में, सीमावर्ती पहाड़ियों और ठेठ आकाश तक उनकी बातों की गूंज की प्रतिध्वनि की विधवा ने कोई परवाह नहीं की। भतीजों के साथ उनकी मंत्रणा यथावत चलती रही। यह करना यह न करना। ऐसा तो होना ही चाहिए, किसी भी परिस्थिति ऐसा नहीं होना चाहिए। मेरी ‘ना’ का अर्थ है किसी भी मूल्य पर ‘हां’ नहीं।

बैठक के अन्त में दो निर्णय किए गए: पहला, मृतक की स्मृति में गांव के बाहर बने मंदिर का जीर्णोद्धार करके समग्र क्षेत्र में अनूठा मंदिर बनवाना और दूसरा मंदिर के चौक में स्वर्गीय आत्मा की मूर्ति स्थापित करना।
अलिखित शर्त: प्रतिमा, मूर्ति नहीं तो मंदिर भी नहीं।
***
स्वर्गीय भवानी के पिता के पाय मात्र चार-पांच बीघा जमीन के सिवाय कोई सम्पति नहीं थी। म?अत: भवानी के पास जो भी सम्पत्ति थी, वह उसने स्वयम् के बाहुबल, विवेक व होशियारी से बनाई थी। कॉलेज का प्रथम वर्ष पूरा करते ही उसे जीवन पथ मिल गया: पढ़ाई छोड़कर वह विलायती शराब की हेराफेरी करने लगा। खून में जोश था; अत: व्यापार प्रवृत्ति जाग्रत हुई और उससे एक अनूठा रसायन तैयार हो गया।
उसे जैसे कमाना आता था वैसे भली प्रकार खर्च करना भी आता था। आय का एक निश्चित भाग मौजमस्ती के लिए अलग रख कर शेष रकम वह धंधे में लगा देता। उसने ट्रान्सपोर्ट से व्यवसाय की शुरूआत की। सबसे पहले उसने एक पुरानी जीप खरीदी; इसमें वृद्धि होती रही और ट्रकों और दूसरे वाहनों का काफिला तैयार हो गया। अधिकारियों और राजनेताओं के साथ उठ-बैठ तो थी ही। इससे रोड़ बनाने के ठेके मिलने लगे। पारस्परिक सम्बन्ध इतने अच्छे थे कि उसे चलाकर ठेके मांगने जाना नहीं पड़ता था। सहकारी बैंकों के मैनेजर आगे होकर लोन देते। अनुकूलता से गांव में जमीन भी खरीदता रहा और शैन:शैन: प्रगतिशील किसानों में गिना जाने लगा।

लोगों की मान्यता थी कि इतना पैसा आकाश से नहीं बरसता है। शराब के धन्धे का सूत्रधार एक बड़ा सेठा था। इसी कारण भवानी सेठ के घर आया-जाया करता। शनै:शनै: शराब के धंधे को स्वयं संचालित करके भवानी सेठ अन्त:पुर का ही स्वामी बन गया। इस प्रकरण के अन्त: को सुखद मानो या दुख:द है यह एक आर्थिक पहलू। डेढ़-दो साल में सेठ की सारी मिल्कियत-पूंजी भवानी के पास में थी और युवा, सुन्दर सेठानी को रोती बिलखती छोड़कर वह वहां से निकल गया।

सेठानी से प्रारम्भ करके जो उसने लम्बी माला सृजित की उसका अंतिम पुष्प थी उगम। कोई पन्दरह वर्ष पहले मध्य प्रदेश के कुछ परिवार आजीविका की खोज में यहां आये थे। आगन्तुक सभी पुरूष परिश्रमी, घनी मूंद्दवाले और गलमुच्छ वाले थे। स्त्रियों की आंखें भूरी और बाल सुनहरे थे। वे लोग गांव से थोड़ी दूर नदी के दूसरे किनारे पर घासफूंस की झोपड़ियों में रहते और जो भी मजदूरी मिलती उससे अपना पेट भरते थे। अपने खेतों में काम करते अन्य मजदूरों के साथ जब उसने उगम को पहली बार देखा तो उसकी उम्र चौदह-पन्द्रह वर्ष की होगी। हंसती, गाती, नाचती उगम माटी का घड़ा लेकर ट्यूब वेल पर पानी लेने आती तो आम के पेड़ के नीचे टेबुल-कुर्सी डलवाकर सांसें भरता भवानी उसे देखता रहता था।

भवानी जोर-जबरदस्ती से, बहलाफुसलाकर, लोभलालच देकर उगम को पा सकता था, पर उसने यह तरकीब काम में नहीं ली। फल प्राप्ति के लिए उसने लम्बा रास्ता अपनाया। सरकार के सभी विभागों में उसकी पहुंच थी। उसे यह ज्ञात था कि लोन या सब्सिडी कहां से और कैसे मिलती है। तदुपरांत यह तो सेवा ही का काम था। खेती हर मजदूरों को, गरीबों को सरकारी योजनाओं से धन दिलाकर उनके पक्के मकान बनाकर दिलवा दिए, बिजली लगवा दी, ग्राम पंचायत से प्रस्ताव पारित करवाकर पानी के नल लगवा दिए। ये सब काम भवानी ने सामान्य व्यक्ति के लिए करवाए। पर सरकारी सहायता से बने इन मकानों में भला एक विशिष्ट व्यक्ति कैसे रहता। अत: भवानी ने इस विशिष्ट व्यक्ति के लिए एक आधुनिक सुविधाओं से युक्त दो मंजिला मकान बनवा दिया था।

इतना ही करके रुक जाना ही ठीक रहा। जबकि आम धारणा थी कि भवानी अपने घर से उगम के घर तक डामर की सड़क बना देगा। पर कुछ लोग व्यंग्य में कहते कि भवानी बीच में न रुककर नदी पर पुल बनवा देगा। अरे, वह उड़नछू आदमी है। वह ऐसी माथापच्ची करने के बजाय घरों के बीच एक उड़ता पुल ही क्यों न बनवा दे?

नहीं, तहखाना नहीं, यह तो छिपकर कुकर्म करने वाले निकृष्ट व्यक्तियों के योग्य है। पर जिसको कुछ भी नहीं छिपाना उसे भला तहखाने की क्या आवश्यकता है।
***
सम्भवत: विधवा में कुशल संचालक के गुण अविकसित थे। अब तक ये गुण काले पत्थर के नीचे दबे पड़े थे जो अब बाहर निकले और जबान खुल गई। वह चुटकी बजा कर आदेश देने लगी। उसका आग्रह था कि हर काम व्यवस्थित ढंग से ही होना चाहिए। छोटी बड़ी जिम्मेदारियां योग्य व्यक्तियों को सौंप देनी चाहिए। तदुपरान्त हर स्तर के व्यक्ति के लिए काम की समय सीमा होनी चाहिए। ज्यादा से ज्यादा एक वर्ष में मंदिर के शिखर पर ध्वजा लहराई जावे। पंडितों से पूछ कर अभी से ही प्राणप्रतिष्ठा का शुभ मुहूर्त तय हो जाना चाहिए और इसको ध्यान में रखकर आयोजन होने चाहिए। सत्ता की डोरी, विशेष रूप से चित्र विभाग उसने अपने पास में ही रखा। महत्वपूर्ण निर्णय आवश्यकता होने पर भतीजों का मंतव्य लेकर स्वयम् ही लेती थी। निर्णयों पर अमल के लिए पांच ग्रामीणों की एक कमेटी गठित की गई। इस समिति में गांव में रहने वाली भिन्न- भिन्न जातियों के व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व दिया गया। समिति डरती-डरती बोली: पच्चीस लाख अन्दाज…। ‘पचास लाख’ विधवा ने उत्तर दिया।

मनोरंजन में शोकायुक्त हास्य में किसी ने पूछा कि क्या मैंने सुनने में भूल की है? आपने पच्चीस कहा या पचास?
उगम ने भतीजों को कहा, बैंक की पास बुक्स देखें, जरूरत पड़ें तो, इतनी जमीन का क्या करने है? पांच-दस बीघा निकाल दो।
अच्छे से अच्छा संगमरमर कहां मिलता हैं? जहां भी अच्छे शिल्पी और मजदूर हो उन्हें बुलवाया जाए। उनके लिए भोजनशाला शुरू करो। भोजनशाला में चौबीस घंटे चाय-नाश्ते की व्यवस्था की जावे। मंहगी फीस देकर सोमपुराओं को बुलवाया जावे।
***
धीरे-धीरे समिति के सदस्यों में जोश आया। उनके चहेरों पर श्रद्धा का लेप हुआ और वाणी में मधुरता आई। काम करते, हाथ जोड़कर करते, बोलते बड़े गद्गद् स्वर से। कई ट्रक संगमरमर के आए। कारीगर पूरे-पूरे मनोयोग से अपना काम करने लगे। बालक आधी छुट्टी बाद स्कूल में बैठने के बजाय अपने बस्तों समेत वहां आ जाते और कारीगर की काम करने की तन्मयता को तन्मय होकर देखते रहते। बालकों की उपस्थिति अनुपयोगी नहीं थी; शिल्पियों को पाषाणमूर्ति में भाव बालकों से मिलता रहता।

मंदिर गांव की गरिमा था। राजा महाराजाओं से भी न होने वाला काम यदि हो रहा हो तो भला किसे भला नहीं लगता? तदुपरांत भी कहीं कहीं घुसपुस होती रहती। कतिपय चापलूस व्यक्ति बड़बड़ाते रहते कि… और तो ठीक जरा… मंदिर जैसे पवित्र काम के लिए… पाप का पैसा… बहुमत ने इस दलील को उड़ा दिया। उनका कथन था पैसा अर्थात लक्ष्मी। हमें और बात से क्या लेना-देना। दान में बिना दांत की गाय देने की भी चर्चा हुई।

भारत में असंख्य मंदिर हैं। ऐसी मान्यता है कि इन असंख्य मंदिरों को सेठ-साहूकारों या राजा-महाराजाओं ने ही बनवाया है। यह पैसा कहां से आया यह किसी पुस्तक-वही में नहीं लिखा है? धर्म धुरंधरों ने क्या कभी सोचा है कि यह पैसा किसके पसीने की कमाई का है? तो फिर भले आदमी पैड बांधो। बाई में सत उमड़ा है इसका आदर, मान करो और इसे हर्षित होकर स्वीकार करो।
और इस प्रकार एक शंका का निवारण हुआ।

मर्मज्ञों की ओर से एक बड़ी बाधा रखी गई ‘यह तो पहली ही बात है -’
‘क्या बात है?’ मंदिर के चौक में दिवगंत नालायक की प्रतिमा लगाना।
‘क्या आपको इसमें आपति है?’
हमें आपत्ति है या नहीं यह बात छोड़ो, तुम्हें और मुझे तो यह भली प्रकार मालूम है कि यह कौन और क्या है। इससे मैं मंदिर में जाने से पूर्व मुंह दूसरी दिशा में रखकर जूतें खोलूंगा पर भावी पीढ़ी का विचार भी तो करो। सौ-दो सौ वर्ष बाद पीढ़ियां बदल जायेंगी, हमारी प्रजा तो है बड़ी भुलक्कड! हनुमानजी, गणेश जी की मूर्तियों के समक्ष दीपक जलाएगी, नारियल चढ़ायेगी, मनौती मांगेगी…
‘इस देश में कितनी ही प्रतिमाएं और स्तभ्म पूजे जाते हैं, इनमें से आधे भवानिया जैसे पथभ्रष्ट होंगे?’

ऐसा कहा गया है कि यदि भावी श्रद्धालुओं में मात्र दर्शन से भक्तिभाव जाग्रत होने में संदेह हो तो कला का सहारा लिया जावे। मूर्ति के सिर पर सींग और आगे हाथी जैसे दो दांत बनाए जावे। ऐसी मूर्ति देखकर दर्शनार्थी डर कर नारियल और दीपक पटक कर दूर भाग जायेंगे।
यद्यपि, ऐसी चर्चा बड़ी हल्की आवाज में कोने से चली। सर्वसम्मति से तय हुआ: होने दो इस देश में सब कुछ चलता है।
ठीक।

***
उगम का बड़ा भतीजा खेती सम्भालता था, वही छोटा भतीजा शैलेन्द्र इंजीनियर था और अहमदाबाद में नौकरी करता था। शैलेन्द्र बड़ा ही सीधा और समझदार लड़का था। पढ़ने और नौकरी में जैसी निष्ठ थी वैसी ही निष्ठा उसकी हर काम में थी। स्वर्गीय आत्मा की प्रतिमा लगने का विचार उसके मन में तुरंत नहीं आया, परंतु जब मन ने स्वीकार ही लिया तो उसने पूरे मनोयोग से अपने आपको इस काम हेतु समर्पित कर दिया। उसने फूफी से प्रार्थना की : ‘फूफी क्या फूफा के कुछ फोटो मिलेंगे?’

शैलेन्द्र का कहना था कि जीर्णोद्धार का अन्य सारा काम चाहे देशी, स्थानीय शिल्पी करें, देवी देवताओं के साथ इनका सीधा परिचय है, परन्तु फूफा की प्रतिमा का निर्माण काम ये नहीं कर सकते। इसके लिए तो अहमदाबाद के किसी बड़े आधुनिक शिल्पी, स्कल्प्टर से बात करनी पड़ेगी।

बंधन समाप्त होते ही विधवा चारों ओर घूमने फिरने लगी। उसने नए विचार को तुरंत मान लिया : ‘हां, हा.. मुझे यह आइडिया बहुत पसंद आया। हमें सारा काम बेस्ट और अपटुडेट करवाना है।’
‘परन्तु फूफी इस काम में इन लोगों की फीस -’
तिजौरी में सोने-चांदी के पाट रखे हैं, वे फिर कब काम में आयेंगे?

बंगले के प्रत्येक भाग की दीवारों पर स्वर्गीय भवानी की विविध मुद्राओं में फोटो लगे थे। मूंछ के, बिना मूछ के, सिर पर साफा, हैट, घोड़े पर सवारी या मोटरसाइकिल। तदुपरांत उसने बिना किसी उद्देश्य के शहर के प्रख्यात फोटोग्राफर को बुलवाकर कई फोटू खिंचवाए थे। चश्मा लगाकर, किसी वृहत ग्रन्थ का अध्ययन करता भवानी। लैम्प के प्रकाश में टेबुल पर झुक कर इम्पोर्टेड पेन से कुछ लिखता भवानी। खिड़की से बाहर शून्य भाव में ताकता उदास भवानी। दोनों तरह के फोटुओं में से शैलेन्द्र ने कुछ फोटू पसंद कर अलग रख लिये।

अहमदाबाद आकर उसने शिल्पी की खोज शुरू की। एक कटु सत्य शैलेन्द्र भली प्रकार समझा गया कि फोटू के फूफा और सदेह देखे फूफा एकदम भिन्न थे। ज्यों ज्यों उसने इन फोटुओं का अध्ययन किया त्यों त्यों उसे कई रहस्यों के संकेत मिलने लगे। पहला कलाकार था फोटूग्राफर, उसने सत्य को पकड़ा, जाना। अब दूसरे कलाकार अर्थात शिल्पी की बारी थी। यह काम सामान्य व्यक्ति का नहीं। श्रेष्ठ को निम्न कुछ पसंद नहीं- यह पाठ फूफी से सीखा था।

बहुत अधिक खोज करने पर शैलेन्द्र को एक पता मिला। शहर के पश्चिमी बस्ती में, दूर एक शिल्पी युगल रहता था। पति-पत्नी दोनों ने शिल्प कला का अध्ययन यूरोप और अमेरिका में किया था। तत्पश्चात भारतीय कला के अध्ययन हेतु भारत आए। शैलेन्द्र ने इनका नाम बताने वाले को शंका भी बताई थी। ट्राय कर लो, परेशानी क्या है, बाकी इतने बड़े कलाकार, देश-विदेश के इनके पास कई प्रोजेक्ट होंगे। अत: वह इतना छोटा काम ले इसकी संभावना में शक है।

दूसरे दिन शैलेन्द्र स्कूटर लेकर इस स्थान पर गया। सामने पक्का गेट था, तत्पश्चात खेत, आम के वृक्ष। स्कूटर मुश्किल से चल सके ऐसा रास्ता, रास्ते में गड्ढे और पत्थर थे। कला के दुश्मनों को दूर करने के लिए खड़े किए इन विघ्नों में कोई रहता है, शंका पैदा करता है। पर शैलेन्द्र अपने धनुष से इन विघ्नों को दूर करता आगे बढ़ता ही गया और अन्तत: उसे आम वृक्षों से ढंका स्टूडियो मिल ही गया। वहां उसने एक लम्बे बाल और दाढी मूंछ वाला साधु देखा, भगवा वस्त्रधारी गले में मोठे रूद्राक्ष की माला पहने एक साध्वी भी बैठी थी। चारों ओर देश के नेता, लोकसेवक और धर्म धुरधंर बिखरे पड़े थे। कतिपय दीवार से सटे खड़े थे और कतिपत उल्टे सिर किए पड़े थे।

कलाकार से बातचीत करने में शैलेन्द्र को बहुत कठिनाई आई। पहले तो उसने शैलेन्द्र के आने की परवाह ही नहीं की। उसने हल्की तालियां बजाईं, सित्त-सित्त किया, पर कलाकार के न तो आंखें ही खुली थीं और न कान। सुनते ही नहीं और सुनते भी तो उसका अनर्गल उत्तर देते। युवक की दृष्टि क्षितिज पर जमी थी, वहीं युवती किसी फूल को देख रही थी, उसका यह काम पूरा होता कि आम्रकुंज से आते किसी पक्षी के स्वर की ओर खिंच रहा था।

पर शैलेन्द्र सहज में हार मानने वाला प्राणी नहीं था। उसने एक युक्ति कीः एक अलग फोटू निकाला और हलके से युवती की आंखों और पक्षी के बीच में रख दिया। युवती ने निश्वास डालते हुए अपने साथी से कहा, डीयर हमें यह प्रोजेक्ट स्वीकार करना ही पड़ेगा। वी हेव नो ऑप्शन। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।
***
सर्दी और गर्मी की रखडपट्टी, नदी और तालाबों में कूदना, भरी दोपहरी या मध्य रात घुड़सवारी या मोटरसाइकिल सवारी, समाज जिसका निषेध करता है, मना करता है, उस वस्तु का पूरे मनोयोग से सेवन-इन सब का परिणाम फोटू में दिखाई देता था। चेहरा भरा भरा तो था ही। आंखें भी सुन्दर और पानीयुक्त थी। त्वचा ताम्र वर्णी थी।

युवती अपने मित्र पति से कहने लगी, ‘इसमें अपरिमित संभावनाएं हैं। इन्फिनेट पॉसिबिलिटील- किसी भी फोटोग्राफ को हाथ में लेकर घण्टों तक इधर उधर घूमाती रहती।’
नि:श्वास लेती। इन्टरेस्टिंग। नींद में से सचेत उठी। फैसिनेटिंग।
कौतुहल बिना कला नहीं; अत: उसने हंस कर कहा; ‘सब ठीक, पर मूंछ कैन्सिल!’

निर्माण काम ज्यों ज्यो आगे बढ़ता गया त्यों त्यों गांव की दूसरी प्रवृत्तियां गौण होती रहीं। सारा गांव सेवा के लिए सदैव तैयार रहता था। किसान बैलों या ट्रैक्टर के साथ हाजिर हो जाते। पानी के लिए अलग ही व्यवस्था थी, कुएं खोदकर चरख चलाने पर भी पनिहारिनियां पानी के घड़े भर उंडेल जातीं। स्कूल चलती, पर मात्र दिखावे को; गणित-विज्ञान को छोड़कर छात्रों के हृदय में टांकियों का संगीत प्रविष्ट हो गया था। व्यवसायी अपनी नौकरी- व्यवसाय ही भूल गए थे; गांठ के पैसे खर्च करके भाग-दौड़ करते थे। नंगे पावों और फटेहाल आदमी भी लाखों रुपयों का काम पूरी ईमानदारी से करके पैसे पैसे का पूरा हिसाब रखते।

चारों तरफ जमीन को समतल करके ऊंची पीठिका बनाई गई। तीन-चार एकड़ जमीन में वृक्षारोपण किया गया। चारों ओर चारदीवारी बनी। पत्थर पर पत्थर रखे गए। खुदाई के काम के स्तम्भ खड़े किए गए। आयोजकों के कल्पनातीत मंदिर तैयार हुआ।

मंदिर का प्राणप्रतिष्ठा महोत्सव भी इसकी शोभानुरूप ही हुआ। देश के बड़े-बड़े पंड़ितों को बुलाया गया। महोत्सव की सभी विधियां शास्त्र-सम्मत विधान से सम्पन्न हुई। यज्ञ की भांति ही पाकशाला के धुंए से सारा आकाश भर गया। उत्सव मात्र एक ही गांव का न होकर आसपड़ोस के पांच-सात गांवों का हो गया था। जाति और धर्म के भेदभाव बिना सबको निमंत्रण दिया गया। भिखारी, साधुसंत, फकीर और गांव की सीमा से निकलता कोई चरवाहा, फकीर भूखा नहीं जायें। डाकिया और बिजली विभाग के वायरमैन से सरकारी कर्मचारियों तक को भी आदर से बुलाकर भोजन करवाया गया। देर शाम तक दर्शनार्थियों की भीड़ यथावत बनी रही। गणपति, हनुमान और अन्य अनाम देवताओं के सामने भीड़ थी पर एक ओर एक प्रतिमा अकेली ही खड़ी थी। उसके सामने कोई दर्शनार्थी नहीं था। यदि भूल से नजर पड़ जाती तो दर्शनार्थी हंस कर मुंह फेर लेता था।

बूढ़े एक दूसरे को कोहनी मार रहे थे। देखा उस नंगे को? दास, खड़ा-खड़ा हंस रहा है।
***
वाद्ययंत्र रुके। सभी प्रकार का कोलाहल थम गया।
अपने आपको धन्य मानकर लोग छितरने लगे- धीरे धीरे सारा मंदिर खाली हो गया। एक चौकीदार रहा वह भी यह कर अंधेरे में एक खटिया पर सो गया था। कोई नहीं रहा तो आधी रात बीते, नदी के सामने के किनारे की बस्ती में से एक स्त्री निकली। दिन में जब इसके पड़ौस के नर -नारी नए वस्त्रों में सजधज के समूह में गाते बजाते मंदिर आये थे तो वह भी आकर मिष्ठान्नों का रसास्वादन कर सकती थी; पर वह दरवाजा बंद कर घर में ही बैठी रही। उसके घर में चुल्हा नहीं जला था। उसने अन्न का एक भी दाना मुंह में नहीं रखा था। सभी की तरह माता जी तो उसकी भी थी, तदुपरांत भी वह प्रसाद से वंचित रही।

खेतों के ढेलों पर मंद मंद चलती वह भूखी नारी मंदिर के पास पहुंची। कोई भी उसे नहीं देख रहा है, डांट डपटकर भगाने वाला कोई नहीं है, यह निश्चित कर, दबे पांवों, छिपते, शरीर को सकुंचित कर उसने चौक में पांव रखा। गणेश जी ओर हनुमान जी को प्रणाम किया और दरवाजे के पीछे बैठी माता के सामने हाथ जोड़ कर न जाने कब तक खड़ी रही।

पहली प्रतिमा की बारी अन्त में आई।
उस दिन की तरह आज भी पूनम की ही रात थी। प्रतिमा का मुखमण्डल पूर्ण चन्द्रमा के उज्ज्वल प्रकाश में स्नान कर रहा था। नारी उसे देखती रही। यह रूप व्यर्थ ही नहीं आया था। यह रूप अन्तिम रात और अन्तिम क्षणों का था। चेहरा पूरी रात पानी में घुलता रहा था। सारी रात इस पर चांदनी बरसती रही थी और इस तरह यह मूर्ति हो गई थी। वह नतमस्तक होकर खड़ी रही। उसकी आंखों से सावन भादो बरसने लगा।
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