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आर्तता

आर्तता

by शुभांगी गान
in कहानी, दिसंबर -२०१३
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‘क्या मैं अंदर आऊं मैडम?’ एक मीठासभरा स्वर कान में गूंजा। लेकिन उस समय अरुंधति को किसी से बात करने की इच्छा नहीं थी। उसने सिर गड़ाए ही कह दिया, ‘प्लीज, थोड़ी देर बाहर रुकिए। बुलाती हूं आपको बाद में।’ असल में ऐसी बातें उसके स्वभाव में नहीं थीं। वह जानती थी कि कोई इंतजार करें, अपने लिए रुका रहे, इतनी बड़ी वह नहीं है। लेकिन कभी-कभी व्यक्ति कितना असहाय हो जाता है, कितना व्यक्तिगत स्तर पर जीता है, और उससे भी अधिक वह भावना की दुनिया में सब कुछ भूल जाता है। कोई अपने आसपास न हो ऐसा उसे उस समय लगता है। अरुंधति के बारे में भी ऐसा ही हुआ था। यादों का वे क्षण अचानक…

और उस क्षण वह अपने को सम्हाल नहीं पा रही थी। आंखों में आंसू भरे थे। उस आंसुओं को खुलकर बहने देना था। लेकिन निश्चय के साथ उन्होंने आंसू पोंछें। आंखों से इस तरह आंसू बहाना अच्छा नहीं लगता। लेकिन हम रोये कि अनजाने वे भी रोने लगते हैं। और उन्हें समझाना स्वयं को भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए वे मन को रोके रखती थी। लेकिन इस तरह अकेले हो तो वे पूरे मन से रो लेती थी।

लेकिन ऑफिस में इस तरह रोना! बिल्कुल ठीक नहीं था। कोई बाहर राह देख रहा है, उसे बुलाना ही चाहिए। उसने बेल बजाई। काशीनाथ तत्परता से हाजिर हुआ। ‘काशीनाथ, बाहर कोई मैडम बैठी हुई है, उन्हें बुलाओ’, यह कहते हुए वे कुर्सी से उठ खड़ी हुई। अपने को संयत कर उन्होंने उस सामने के फोटो के समक्ष गुलाब का सुंदर खिला हुआ फूल रखा। वे भावविभोर हुई और कहा, ‘बेटे, गुलाब जैसा सुंदर, सुगंधित, प्रसन्न जीवन तुम्हें देना था, लेकिन…।’ हल्की सी हिचकी होठों में ही दबाकर उन्होंने आंखें पोंछीं। फिर वे अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गई।

‘क्या मैं आ सकती हूं मैडम?’ फिर वही मीठी सी आवाज आई। उन्होंने सिर ऊंचा कर उसकी ओर देखा। होगी कोई बाईस-तेईस साल की युवती। उसे क्या काम होगा मुझ से? वह सोच ही रही थी कि उस लड़की ने कहा, ‘मैं मधुरा कर्णिक। एक पत्रिका के लिए काम करती हूं। मैं आपका साक्षात्कार लेना चाहती हूं।’

‘मेरा?’ उसने आश्चर्य से कहा।
‘हां, मैडम। आप जो काम कर रही हैं…’
‘ऐसा क्या कर रही हूं मैं। देखें तो वैसा कुछ भी नहीं। और सच कहूं तो व्यक्ति जो भी काम करता है उसकी कोई न कोई भूमिका होती ही है। जो व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ के केवल समाज के लिए…. केवल समाज के लिए काम करता है वह वास्तव में महान होता है। उसका साक्षात्कार लेना उचित होता है। और मैं… नहीं, नहीं प्लीज…’ यह कहते हुए वे शांत बैठ गई। लेकिन मधुरा की बेचैनी बढ़ गई। कितनी उम्मीदें लेकर वह यहां आई थी। अरुंधति देव कितनी महान है यह वह जानती थी। उनका काम भी बड़ा था। लेकिन उन्होंने अपने को प्रचार से दूर ही रखा था। जहां वेदना का साथ होता है, उस वेदना को एक झालर होती है वहां खुशी हो ही नहीं सकती। वे जिस दुनिया में जी रही थी वह दुनिया दुखों से भरी थी। उनकी केवल एक ही आकांक्षा थी हरेक की छोटी सी क्यों न हो लेकिन इच्छा पूरी कर सकें। इतनी शक्ति, बल और पैसा ईश्वर ने दिया, लेकिन उन्हें अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए था। मधुरा उन्हें अच्छी तरह से जानती थी। दूर के एक रिश्तेदार से उसे उनके बारे में पूरी जानकारी मिली थी। लेकिन उनके मुंह से उनके बारे में जानना और उससे अधिक उसकी पत्रिका के लिए एक सक्षम, समाजसेवी व्यक्ति का परिचय देना उसकी नई पत्रिका के लिए बेहतर होता। लेकिन सामने वाली व्यक्ति बोलने को ही तैयार न होने से वे बेचैन हो गई। उसने सोचा, किसी पर साक्षात्कार के लिए जबरदस्ती करना अनुचित है। एक दुखी मां को और अधिक दुख देना ठीक नहीं था। उसके जख्म को पुनः कुरेद देना ठीक नहीं था। यहां आना ही नहीं चाहिए था। यहां का सारा परिसर देखकर जब मेरा ही मन उदास हुआ तो फिर अरुंधति देव…। कैसी रहती हैं वे यहां? यहां प्रकृति की गोद में रह कर भी मन प्रसन्न नहीं होता, बल्कि मन पर एक प्रचंड दबाव होता है। बेचैनी में वह उठ खड़ी हुई कि इसी बीच उन्होंने कहा, ‘चाय लेंगी? कुछ अच्छा लगेगा। आप बहुत बेचैन हो गई न्! लेकिन सच बताऊं, यहां इस तरह कोई आए तो मेरा मन भी प्रसन्न होता है। साक्षात्कार न हो फिर भी गपशप करने में कोई हर्ज नहीं है। और अभी मुझे कोई काम भी नहीं है। चाय लीजिए और फिर मैं मेरा यहां का आश्रम दिखाती हूं।’

‘आश्रम!’ अस्पताल को दिया यह रूपक उसे भी अच्छा लगा। ‘प्रकृति की गोद में रहकर छोटे बच्चों के लिए आरंभ और उनके मन व तन की चिकित्सा करने वाली यह संस्था’, उसने कहा, ‘एकदम अनोखी लगी। लेकिन एक बात पूछती हूं- क्या आपको इन सारी बातों से कष्ट नहीं होता? मन पर कितना बोझ रहता होगा?’

‘शायद आप ठीक कहती हैं। कष्ट होता है। लेकिन यही हमारा जीवन है। इसकी अब आदत हो चुकी है। सुख या आनंद की उसे आदत ही नहीं रही। लेकिन, हां आनंद उस समय होता है जब कोई छोटा यहां से ठीक होकर अपने घर लौटता है। लेकिन…’
‘लेकिन क्या मैडम?’

‘ऐसे क्षणों के लिए कान और मन दोनों उत्सुक होते हैं।’ बात करते-करते वे आश्रम का एक-एक कोना उसे दिखाती रही। वह भी आश्चर्यचकित होकर उसे देखती रही। पिछले दस वर्षों में दोनों ने मिलकर इस संस्था को बड़ा किया। उसके लिए अथक परिश्रम किए। अपने दुख भूलकर दूसरों को जीवनदान देने के लिए संघर्ष करने वाले ये लोग थे। मधुरा विस्मय से उनकी ओर देख रही थी। अचानक उन्होंने कहा,

‘सर, यहां नहीं हैं मैडम?’
‘मिस्टर देव यहां होते ही नहीं हैं। बीच-बीच में आते हैं। लेकिन हम दोनों ने अपना विभाजन कर रखा है। वे मुंबई में अपना व्यवसाय सम्हालते हैं और यहां मैं और मेरे बच्चे।’

‘लेकिन आप क्यों इस तरह विभाजित जीवन जीती हैं? वहां रहकर भी यह काम आप कर सकती हैं।’
‘नहीं मधुरा, किसी बात के लिए जीवन समर्पित कर देने का एक बार तय होने पर अन्य किसी बात के बारे में सोचना नहीं होता। और अब हमारे जीवन में बचा ही क्या है?’

‘ऐसा क्यों कहती हैं मैडम? आदमी को एक ही बार तो जीवन मिलता है वह भी उदास होकर गुजार देना! मैडम, जीवन को एक ही पहलू से नहीं देखना होता, अन्यथा जीवन वीरान हो जाता है।’

वह बोल रही थी और वे उसकी ओर एकटक देख रही थीं। जीवन का दर्शन वे उन्हें बता रही थी। वह यह कहां जानती थी कि जीवन की यह विरासत सोचकर भी यदि सम्हाल नहीं पाए तो…! कितना भारी दुख है हमारे जीवन में? उसे भी कहां पता था? आनंद, उत्साह, नए सपने देखने की उसकी दुनिया है। उसे देखकर वाकई कई दिनों के बाद अरुंधति को अच्छा लगा था। ऐसा क्यों है? वे अपने से ही प्रश्न पूछ रही थी। और अचानक उसे लगा संहिता आज होती तो…वह भी इसीकी उम्र की होती। इसी तरह उत्साह से भरी, किसी लक्ष्य के पीछे भागती, जीवन का – आनंद का गीत गाने वाली। लेकिन… ईश्वर ने तो उसका जीवन ही छीन लिया था। हंसमुख, कोमल, कली का इस तरह यात्रा खत्म करते समय ईश्वर को क्यों कुछ नहीं लगा? मेरे बारे में ही वह इतना निष्ठुर क्यों हुआ? संहिता की याद आई और उनका गला अचानक रुंध गया। दस वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन दिल में अभी भी उसकी आवाज उभरती है। उसकी याद के बिना एक क्षण भी नहीं गुजरता यहां। पूरे जीवन में वह छा गई लेकिन न मिलती है, न दिखती है, न बोलती है। मन कितना परेशान हो जाता है! लगता है मिट जाए। न आए वे यादें, वह दुख; लेकिन मौत भी तो नहीं आती। थककर वे बगीचे के एक बेंच पर बैठ गई। मधुरा चलते-चलते उनके मन की उथल-पुथल अनुभव कर रही थी। शायद अरुंधति यादों की दुनिया में विचरण कर रही थीं और वहां से उन्हें बाहर निकालना उसे ठीक नहीं लग रहा था। लेकिन चलते-चलते अचानक बैठ जाने पर उसने कहा, ‘क्या अस्वस्थ लग रहा है मैडम? पानी लेंगी?;
‘नहीं मधुरा, ठीक हूं मैं। लेकिन कुछ थकान महसूस हो रही है। घर जाकर कुछ विश्राम कर लूं तो ठीक लगेगा।’
‘क्या मैं आऊं आपके साथ? आपके साथ घर तक चलूंगी।’

‘नहीं मधुरा चली जाऊंगी मैं।’ ऐसा कहते हुए वह उठ खड़ी हुईं, लेकिन तुरंत बैठ भी गई।
‘क्या हुआ?’ उनके कंधे पर हाथ रखते हुए मधुरा ने कहा।
‘चक्कर आया सा लगता है।’
‘अब मैं आपके साथ निश्चित ही आऊंगी। क्या डॉक्टर को बुलाऊं?’

‘नहीं बेटा। कितनी चिंता करती है। हां, घर तक मेरे साथ आना।’ यह कहते हुए उन्होंने उसके कंधों का सहारा लिया।
उसके साथ चलते हुए उन्हें बहुत अच्छा लग रहा था। एक अपरिचित सी मैं उन्हें बहुत करीब लग रही थी। उसके चेहरे का निर्मल भाव, बोलते हुए हंसती आंखें और शक्कर सी मीठी जबान! उन्होंने सहजता से उसकी ओर देखा और कहा, ‘असल में मैंने तो उसे साक्षात्कार दिया ही नहीं, तुम्हें मुझ पर क्रोध आया होगा। महिला बहुत हेकड़ है ऐसा भी लगा होगा। मुझे सहायता न करना भी सोचा होगा, लेकिन लोकलाज से…’

‘नहीं… नहीं मैडम। साक्षात्कार देना या न देना आपका नितांत व्यक्तिगत प्रश्न है। वास्तव में आपके जैसी किसी कर्तव्य परायण, समाज के लिए अपना सर्वस्व होम करने वाली और उससे भी अधिक असंख्य बच्चों के माता-पिताओं की आशा की किरण बनी, उनकी चिकित्सा कराने में कोई कमी न पड़ने देने वाली महिला हैं आप। आप दोनों वाकई श्रेष्ठ हैं। फिर भी आप शायद साथ-साथ हैं। जो कोई काम मन से, तन्मयता से करता है वह प्रचार से दूर ही रहता है। लेकिन फिर भी कहती हूं आपके कार्यों पर समाज अवश्य गौर करता है। और इसीलिए तो मैं आप तक पहुंची हूं। लेकिन… जाने दीजिए। आपका घर आ गया है। जाऊं मैं अब या अंदर तक छोडूं?’

और पता नहीं वे क्यों एकदम बेचैन हो गई। वह अब यहां से जाएगी यह सोचकर उनका मन कचोटने लगा। उसका हाथ पकड़कर उन्होंने कहा, ‘अंदर आओ मधुरा। थोड़ा शरबत लो और इस मां के हाथ के पोहे तो खाकर जा। मुझे भी बहुत अच्छा लगेगा।’

‘आपका प्रस्ताव तो मुझे सही में अच्छा लगा। लेकिन सच बताऊं, आप अस्वस्थ हैं। आपको विश्राम करना चाहिए और दूसरी बात यह कि मैं बहुत दूर से आई हूं। मुझे लौटने में दो-ढाई घंटे लगेंगे। फिर मुझे घर पहुंचने में देर होगी।’
‘नहीं होगी देरी। केवल आधा घंटा रुको। और हां, पोहे मैंने सुबह ही बनाकर रखे हैं। मायक्रोवेव में गर्म करके तुम्हें देने वाली हूं। चलेगा न्!’

‘नहीं मैडम! लेकिन आप मेरे लिए इतना क्यों करती हैं? इतने स्नेह, अपनत्व की मुझे आदत नहीं है।’
‘ऐसा क्यों कहती हैं? माता-पिता, बहन-भाई सभी हमसे ममता रखते हैं, स्नेह रखते हैं। तुम पर भी ममता करने वाले लोग होंगे। उनके स्नेह का इस तरह अपमान नहीं करना चाहिए।’ उन्होंने यह कहा और मधुरा कुछ बेचैन हो गई। कुछ उदास भी हुई। अपने को सम्हालते हुए उसने कहा, ‘हरेक का भाग्य इतना अच्छा कहां होता है? दुनिया में हरेक को सभी सुख कहां मिलते हैं?’

‘अर्थात? मधुरा तुम्हें कहना क्या है?’
‘अनाथ हूं मैडम मैं। अनाथाश्रम में पली-बढ़ी। लेकिन एक अज्ञात व्यक्ति ने मेरी शिक्षा का भार उठाया। इसलिए यहां तक पढ़ पाई हूं। उस व्यक्ति से मिलने की खूब इच्छा है। लेकिन आज तक वह व्यक्ति अज्ञात ही है। किसी का ऐसा ही होता है भाग्य!’ यह कहते हुए उसने एक उदास मुस्कुराहट बिखेरी। बात अरुंधति को झकझोर गई। वाकई कैसा होता है किसी का भाग्य! उसके प्रति स्नेह उमड़ा। उसका हाथ पकड़ सोफे पर बिठाते हुए कहा, ‘बैठो, पानी लाती हूं और हां पोहे और शरबत भी। तुम्हारा बहुत समय नहीं लूंगी।’ यह कहते हुए वह अंदर गईं। मधुरा ने हॉल में चौतरफा नजर दौड़ाई। दीवारों पर संहिता के कितने तो फोटो लगे हुए थे। हर फोटो में वह कितनी सजीव लग रही थी। कितनी मासूम लग रही थी। अरुंधति देव कितनी दुखी होगी! सोनपरी जैसी लड़की कितनी वेदनाएं सहकर गई। किस तरह जी रही हैं वह। एक दुख झेल रही थीं कि फिर से वेदना की दुनिया अपना ली। वाकई कितने महान लोग हैं ये! उनके प्रति गर्व से उनका मन भावविभोर हो गया। बहुत सारे विचार मन में कौंध रहे थे… और उसका अकेलापन। जीवनभर सह रही उपेक्षा, अनाथाश्रम की वह कठोर वार्डन, टुच्चेपन से सम्हालने वाली अन्य औरतें, कितनी बार गीला हुआ तकिया, पिटाई.. सब कुछ इस समय उसे याद आ रहा था। सच में ऐसी एक मां मेरे साथ होती तो…

‘पानी लो मधुरा’ कहते हुए अरुंधति शरबत व पोहे लेकर आई और उसकी तंद्रा टूट गई। उन्हें सामने देखा और फिर उसे न देखी मां की याद आ गई। वह अनजाने बोल गई, ‘मां होना यह वाकई भाग्य होता है। संहिता कितनी भाग्यवान…’ फिर चुप हो गई। अरुंधति ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा।

‘संहिता को पहचाना! अर्थात वह मेरी पुत्री है यह जानती है तू!’
‘सच बोलूं मैडम! उसके फोटो देखें और लगा वह हूबहू आपकी प्रतिमा है।’
‘हां, बहुत बार मुझे लगा कि मेरी पुत्री बड़ी होकर मेरे जैसी ही दिखेगी। लेकिन… ईश्वर ने कितनी कम आयु उसे दी। तुम्हें देखा और लगा संहिता ही मेरे सामने खड़ी है। साम्य कुछ भी नहीं है, लेकिन आज होती तुम्हारे जैसे ही होती लेकिन… जाने दो। मेरी वेदना बताकर तुम्हें उदास नहीं बनाना है मुझे। तुम लड़कियों को जब जब हंसते हुए देखती हूं तब तब कहीं न कहीं वहां मुझे संहिता की उपस्थिति महसूस होती है। अचानक मन प्रसन्न होता है। उसी क्षण उसके न होने का तीव्र आभास भी होता है… बहुत बार मुझे लगता है मैं क्यों जी रही हूं? लेकिन…’ बोलते-बोलते वे रुक गई। फोन बज रहा था। वे तेजी से उठी और फोन उठाया, ‘हैलो, अरुंधति देव बोल रही हूं।’

‘मैडम, वह कोमा से बाहर आ चुकी है और अच्छा रिस्पांस दे रही है। जल्दी आइए।’ दूसरी छोर से आई आवाज मधुरा को सुनाई दे रही थी। कोई ठीक हो रही थी यह खुशी की बात थी। उस अनदेखी लड़की का चेहरा आंखों के सामने आया और अरुंधति के चेहरे पर आई खुशी की लहर भी।
‘कुछ अच्छा हो रहा है न् मैडम? कौन है यह लड़की?’

‘नव्या! है सात-आठ साल की। ब्लड कैंसर से पीडित थी। लेकिन अब काफी मात्रा में सुधार हो गया है। केमोथेरपी के कितने अग्निदिव्य पार कर लिए हैं उसने। हिम्मतवान लड़की है। सब कुछ शांति से सहा। लेकिन पांच-छह दिन पहले अचानक कोमा में चली गई। लगा सब कुछ खत्म हो गया है। लेकिन वापस लौटी। मां-बाप की इकलौती है। पिछले दो माह से देख रही हूं। वे दोनों मौन होकर सब कुछ सह रहे थे। अब खूब खुश होंगे। मैं भी बहुत खुश हूं। कोई बीमार ठीक हो यह डॉक्टर की दृष्टि से कितनी खुशी की बात होती है।’
‘सच है मैडम। आपने चिकित्सा की उसकी?’

‘नहीं मधुरा, मेरे अंदर का डॉक्टर मेरी लड़की मौत के साथ खत्म हो गया है। वह गई और मुझे लगा, मेरे डॉक्टर होते हुए भी मैं उसे बचा नहीं सकी। क्या उपयोग है मेरे डॉक्टर होने का? बस, उसके बाद अपने डॉक्टरी ज्ञान का कभी उपयोग नहीं किया। थक गई हूं मैं। अब नहीं लगता मैं इस कोष से बाहर आ सकूंगी। वेदना का एक अथाह सागर देखा है। लेकिन अपनी ही पुत्री को मौत के मुंह में धीरे-धीरे जाते हुए देखने जैसी और कोई बड़ी सजा क्या हो सकती है!’

‘इतना सब कुछ आपने भोगा। फिर भी वेदना की इस दुनिया से भागने की आपकी इच्छा नहीं होती! फिर से उसी दुनिया में जी रही हैं। इसके लिए इतना सब कुछ कर रही हैं। मि. देव भी आपको बराबर साथ देते हैं। यह सब कैसे जम पाया?’, मधुरा ने कहा और अरुंधति खिलखिलाकर हंस पड़ीं।

‘मधुरा, मि. देव तो अपने व्यवसाय में बहुत व्यस्त होते हैं। यही क्यों, उन्होंने अपने को बहुत व्यस्त बना लिया है। यहां का अस्पताल चलाने के लिए बहुत पैसा लगता है। लोगों ने भी सहायता की है। संतोष इसी बात का है कि कैंसर से पीड़ित गरीब बच्चों के लिए हम कुछ कर पा रहे हैं। उनकी छोटी-छोटी इच्छाएं जैसे जमे वैसे पूरी करते हैं। उन्हें हर तरह की चिकित्सा उपलब्ध करा सकते हैं। पुत्री के प्रति यही हमारी श्रद्धांजलि है। इसके अलावा ये असमर्थ माता-पिता और क्या कर सकते हैं?’
‘आपको पता नहीं है मैडम आप कितना बड़ा कार्य कर रही हैं। लेकिन सच कहूं तो आपका यह सब काम देखकर दो अपेक्षाएं अंतर्मन में उभरी हैं। मैं वह कहूं या नहीं या कि क्या मुझे वैसा अधिकार है यह मैं नहीं जानती। लेकिन कहने की इच्छा होती है।
‘तू बोल सकती है मधुरा। लेकिन ऐसा कुछ मत कहना जो मेरे लिए पूरा करना कठिन होगा।’

‘नहीं मैडम.. सामान्य ही हैं। लेकिन… पता नहीं आपको अच्छा लगे या नहीं। एक बेगानी लड़की किस अधिकार से बोल रही है यह भी आपको लग सकता है। लेकिन ये दोनों मेरी आंतरिक इच्छाएं हैं।’
‘इतनी मनपूर्वक इच्छाएं… अच्छी ही होंगी। कहो…’

‘आप अपने ज्ञान का उपयोग फिर से लोगों की सेवा के लिए करें। अपनी डॉक्टरी सेवाएं पुनः सब को उपलब्ध कराएं। एक सक्षम सर्जन लोगों को मिलें। दूसरी इच्छा यह है कि आप मि. देव के साथ जीवन बिताएं। आप उन्हें अकेले रहने का शाप क्यों दे रही हैं? आप जैसे वे भी दुखी होंगे। फिर उन्हें सम्हालने वाला कोई तो होना चाहिए। आप दोनों एक-दूसरे को सम्हालिए। एक-दूसरे के साथ जीवन जीयें। विभाजन कर एक-दूसरे का जीवन दुखमय न बनाएं। खूब दुख भोगा है, अब अपने मन को थोड़ा सा समझाइए। एक नया जीवन जीयें। जीवन में जो छूट गया है वे यादें मन में घर कर रहती ही हैं, लेकिन हम जीना तो छोड़ नहीं सकते। मेरा देखिए। वैसे देखें तो मेरे जीवन में क्या है? कुछ भी नहीं। कोई स्नेह देने वाला नहीं है। न कोई बांट जोहने वाला है। लेकिन मैं मानती हूं कि ईश्वर ने हमें जीवन दिया है तो उसका निश्चित रूप से कोई न कोई उपयोग तो होगा ही। और आपने तो… भरपूर काम किया है और कर रही हैं। अतः आपके लिए जीवन बोझ बने यह योग्य नहीं है।’
‘बहुत अच्छी बात की मधुरा तुमने। लेकिन जीवन में किसी प्रिय व्यक्ति का चले जाना, उसका होना या न होना कितनी भयंकर वेदना देता है यह। रात-रात भर अब भी नींद नहीं आती। उसकी भुगती वेदना, डॉक्टरों को देखकर उसका होने वाला आक्रोश और कभी-कभी उसका एकदम शांत हो जाना… बहुत कष्ट होता है इन बातों से। दस साल हो गए, लेकिन लगता है मैं वही समय, वही जीवन जी रही हूं। कैसे भूलूं यह सब? वैसे भी मुझे इसे भूलना ही नहीं है। वह मेरे हृदय में रहना ही चाहिए। वह समय मेरे मन में बैठा रहना ही चाहिए।’

‘ऐसा क्यों मैडम? दुख, वेदनाएं व्यक्ति अपने जीवन से मिटा देना चाहता है। नहीं जी सकता व्यक्ति इस तरह का भीषण जीवन।’
‘लेकिन मैं जी रही हूं। मुझे लगता है कि वह वेदना, वह जीवन मुझे भी अनुभव होना चाहिए। इससे उसकी वेदना की आर्तता अपने शरीर के जरिए मैं भी अनुभव कर सकूंगी। यह मेरी आंतरिक इच्छा है।’

उनका कहना मधुरा सुन रही थी। शब्दों के अर्थ दिमाग तक पहुंच रहे थे। वह अचानक चीख पड़ी, ‘नहीं मैडम! आप बहुत भीषण बोल रही हैं। ऐसा सोचे भी न। यदि मैं ईश्वर होती तो यह वरदान आपको कदापि नहीं देती। प्लीज मैडम, यहां से लौटते समय मैं आपकी यह वेदना लेकर नहीं जाना चाहती। आपको आनंदपूर्वक सुख से जीते हुए देखना चाहती हूं। दुख व्यक्ति को खत्म कर देता है। जीवन बोझ बन जाता है। लेकिन आप दो हैं। एक-दूसरे का साथ लेकर अपने व्यवसाय को एक नया आयाम देकर दूसरों के लिए जीते समय अपने लिए भी कुछ जीयें। बस्स! एक पुत्री की अपनी मां के लिए यह भावना समझकर उसका सम्मान करें प्लीज…’ ऐसा कहते हुए मधुरा भावविभोर हो गई। वहां और रुकना उसके लिए असंभव हो गया। अपनी पर्स लेकर वह उठ खड़ी हुई, ‘जा रही हूं मैडम। आपका मनपूर्वक आभार। इतना समय आपने मेरे लिए ही व्यतीत किया। सचमुच थैंक्स!’ और वह दरवाजे से बाहर निकल गई।

‘एक मिनट मधुरा’, कहते हुए उसका हाथ हाथ में लेकर वह भी बाहर निकल आई, ‘तुम्हारी दोनों इच्छाएं पूरी करने की मैं भरसक कोशिश करूंगी।’ आगे वह बोलती रही, ‘जीवन का इतना अच्छा अर्थ समझाने के लिए सचमुच तुम्हारे आभार मानने चाहिए। लेकिन मैं आभार नहीं मानूंगी। क्योंकि तुमने मुझे मां कहा और पुत्री के आभार मानने का छोटा काम मैं नहीं करूंगी। और हां, मैंने तुम्हें साक्षात्कार नहीं दिया, लेकिन मेरा मन तुम दुनिया तक अवश्य पहुंचा सकोगी।’
यह कह अरुंधति अस्पताल की ओर मुड़ी। उसे देखकर मधुरा निःशब्द होकर संतोष से मुस्कुरा रही थी।

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