हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
नियति के शिकंजे में अफगानिस्तान

नियति के शिकंजे में अफगानिस्तान

by प्रमोद पाठक
in दिसंबर -२०१३, सामाजिक
0

अफगानिस्तान किसी जमाने में भारत का ही अंग था। भारतीय और अफगानी जनता में मैत्रीभाव था। अफगानिस्तान के सुदूर इलाकों तक हिंदुओं के व्यवहार थे। इसे ध्यान में रखकर अफगानिस्तान को फिर करीब लाने की चुनौती भारत के समक्ष है।

नाटो व अमेरिका के मित्र राष्ट्रों ने देश की सुरक्षा का जिम्मा अफगानिस्तान की सेना को सौंप दिया है। इस अवसर पर काबुल में एक विशेष समारोह हुआ। अफगानिस्तान के वर्तमान राष्ट्रपति हामिद करजाई ने उनके ही देशबंधुओं तालिबानी समूहों को देश के मुख्य प्रवाह में शामिल होने की भावनात्मक अपील की। इस समारोह में बताया गया कि प्रशिक्षित अफगानी सैनिकों की संख्या करीब साढ़े तीन लाख है। ये सभी अफगानी सैनिक अमेरिका या अन्य यूरोपीय देशों की ओर से प्रशिक्षित किए गए हैं। यह उम्मीद भी जाहिर की गई कि सन 2014 में जब अमेरिका और अन्य नाटो देशों की फौजें वहां से निकल जाएंगी तब देश की सुरक्षा व बाहरी हमले का सामना ये अफगानी सैनिक कर सकेंगे। अगले वर्ष प्रस्तावित राष्ट्रव्यापी चुनावों के दौरान यह प्रशिक्षित सेना आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था का ध्यान रखेगी।

यह समारोह जब हो रहा था तब दोहा व कतर के खाड़ी देशों में अलग ही नाटक रचा जा रहा था। अमेरिका ने हामद करजाई और उनके मंत्रिमंडल को विश्वास में लेकर अगले वर्ष देश में शांति बनाए रखने और चुनाव शांतिपूर्ण कराने के लिए सीधे तालिबान से वार्ता की तैयारी की और कतर प्रशासन से बात कर तालिबान को अपना पृथक कार्यालय स्थापित करने की अनुमति दी। इस तरह तालिबान का कार्यालय वहां खुल गया और तय हुआ कि अमेरिका, वर्तमान अफगान सरकार, तालिबान और पाकिस्तान इस तरह चारों के प्रतिनिधि मंडलों की बैठक आयोजित की जाए। शायद उसमें यह भी शर्त रही होगी कि वार्ता के दौरान कहीं भी आतंकवादी कार्रवाई नहीं की जाएगी। लेकिन दूसरे ही दिन छपी खबरों में कहा गया कि कतर स्थित कार्यालय के समक्ष तालिबान ने अपना पृथक ध्वज फहराया और ‘अफगानिस्तान की अमीरात’ शिलालेख लगवाकर यह साबित करने की कोशिश की कि उनकी स्वतंत्र व पृथक सरकार है। इसके बाद पाकिस्तान में अमेरिकी जत्थों पर हमला कर चार सैनिकों की हत्या कर दी तथा काबुल में करजाई के राष्ट्रपति प्रासाद पर आत्मघाती हमला किया गया। इन तीनों घटनाओं से तालिबान ने साबित कर दिया कि अमेरिका की शर्तें वे स्वीकार तो करेंगे ही नहीं, शांति और व्यवस्था कायम होने देने का उनका बिल्कुल इरादा नहीं है। उन्हें अमेरिका से कुछ भारी आर्थिक लाभ प्राप्त करते समय अमेरिका की कठपुतली करजाई की सरकार को चुनौती देकर हटा देना है। अमेरिका व अन्य राष्ट्रों की सेना हटने पर या इसके पूर्व भी तालिबान को यह काम करना है। इस प्रयास में पाकिस्तान का उन्हें पूरा समर्थन होगा यह बात साफ है। क्योंकि, तालिबान के जरिए पाकिस्तान को अफगानिस्तान में अपना दबदबा कायम रखना है।

बुद्धिहीन अमेरिका

वैश्विक महासत्ता बनी अमेरिका ने द्वितीय महायुद्ध के बाद कहीं भी निर्विवाद रूप से सैनिकी अथवा सामरिक सफलता प्राप्त नहीं की है। वियतनाम, कोरिया, इंडोचीन, इराक और अब अफगानिस्तान‡ पाकिस्तान युति में से कहीं भी अमेरिका को सफलता तो नहीं मिली; लेकिन अफगानिस्तान में वर्तमान स्थिति नाटो देशों और मुख्य रूप से अमेरिका के लिए पराजय का कलंक लगने जैसी है।

अफगानिस्तान पर हमला कर रूस ने अपने हाथ जला लिए थे। अमेरिका ने इससे कोई पाठ नहीं पढ़ा। अमेरिका ने रूस के खिलाफ पाकिस्तान के जरिए अनेक तालिबानी संगठनों को युद्ध के लिए तैयार करते समय धार्मिक उन्माद को पोषित किया था, जो अब अमेरिका और अन्य नाटो देशों के कंधे पर बैठ रहा है। यहां भी अमेरिका की बुद्धिहीनता साबित होती है। यदि इस सब में भारत को शामिल करने की बात भी कही जाती तो यह पाकिस्तान के मुंह पर करारा तमाचा होता। परंतु न अमेरिका ने ऐसा प्रयत्न किया और न ही ढुलमुल भारत सरकार ने। अब भविष्य में तालिबान कोई भी शर्त मानने को राजी नहीं होगा।

वर्तमान स्थिति

इस समय करजाई सरकार के पास लगभग साढ़े तीन लाख अफगानियों की फौज है। इनमें से अधिसंख्य को आतंकवादियों के खिलाफ लड़ने का प्रशिक्षण दिया जा चुका है। कहा जाता है कि उन्हें अमेरिका और नाटो देशों ने प्रशिक्षित कराया। लेकिन वे हैं तो अफगान ही! उनका नाटो की सुरक्षा कसौटियों से कुछ लेनादेना नहीं है। अफगानी सेना पर कितना भरोसा किया जाए इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता। उनमें कितने छिपे आतंकवादी हैं यह पता लगाना भी मुश्किल है। अफगानी सैनिकों के प्रशिक्षण के दौरान ऐसी 78 घटनाएं हुई हैं जिनमें उन्होंने अपने ही प्रशिक्षकों को काफिर मान कर उन पर हमला किया और 120 विदेशी सैनिक मारे गए। अफगानी सेना में बहुसंख्य फौजियों की निष्ठा किस कबीले के प्रति होगी इसका अनुमान लगाना संभव नहीं होता। उन्हें नियमित वेतन मिलता है; अमेरिका उन पर करोड़ों डॉलर बहाता है; इसके कारण वे करजाई सरकार की बात मानते हैं ऐसा लगता है। अमेरिका और कुछ मात्रा में ईरान से मिलने वाले धन पर अफगानी सेना का ढांचा खड़ा है।

2014 के बाद के अफगानिस्तान में तालिबानी पिछले एक दशक पूर्व के जुल्मी शासन की मनमानी जारी रख सकेंगे इस बारे में संदेह है। पश्चिमी तकनीकों, अमेरिका व भारत की ओर से विकास कार्यों में लगाई गई पूंजी और प्राद्यौगिकी, उससे हुए लाभ के कारण प्रत्यक्ष में कुछ उत्पादक काम करने के प्राप्त अवसर व यह जारी रहने की उम्मीद को ध्यान में रखें तो ऐसी संभावना है कि 1990 के दशक के मध्य में आसानी से तालिबानियों के हाथ लगे ग्रमीण युवकों की संख्या 2010 के दशक में काफी कम होगी। काबुल, हैरत इत्यादि शहरों में कुछ न कुछ उद्योग और उत्पादक कार्य आरंभ होने से अफगानिस्तान में भी शहरीकरण की लहर आई है। ग्रमीण युवकों का शहरों की ओर आना बड़े पैमाने पर आरंभ हो गया है। स्कूल शुरू हो गए हैं। महिलाओं और लड़कियों को पढ़ाया जा रहा है। इस स्थिरता को जनसाधारण आसानी से छोड़ने के लिए तैयार नहीं होगा। जिस ग्रमीण क्षेत्र से तालिबानियों को युवकों की आपूर्ति होती है वहां भी तालिबानियों के उपद्रवों पर सीमाएं लगी हैं। युवकों को जबरन् उठाकर ले जाने वाले तालिबानियों के साथ संघर्ष कर उन्हें भगा देने की घटनाएं अफगानिस्तान में हो रही हैं। (द इंडियन एक्सप्रेस दि. 26 मार्च 13)

2014 के बाद का अफगानिस्तान

2014 के बाद करजाई की उपयोगिता जब तक है तब तक उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए आवश्यक न्यूनतम फौजी बल काबुल में तैनात रखकर शेष सभी स्थानों की फौज अमेरिका हटा देगा। इससे अफरातफारी मचेगी। 2014 में प्रस्तावित अफगानी प्रशासन के चुनाव पूरे होने के बाद ही अमेरिका वहां से हटना शुरू करेगा। ये चुनाव आसानी से कैसे हो, उसके लिए किस तरह के प्रशासकीय कदम उठाए जाने चाहिए इसका प्रशिक्षण लेने के लिए कई अफगानी अधिकारी भारत में आ रहे हैं। शायद चुनावों के दौरान अनेक भारतीयों को निरीक्षक के रूप में अफगानिस्तान में आमंत्रित किया जा सकता है।

ये चुनाव ठीक ढंग से न हो, अफरातफरी मचे यही कोशिश पाकिस्तान से समर्थन प्राप्त तालिबानी करेंगे। अमेरिका की इच्छा होने के बावजूद पाकिस्तान उन्हें रोक नहीं पाएगा। विशेष रूप से पश्तुनबहुल पूर्व व आग्नेय अफगानिस्तान के क्षेत्र में इस बीच संघर्ष होने की संभावना व्यक्त की जा रही है। चुनाव किसी तरह पूरे हो भी जाएं फिर भी निर्वाचित प्रतिनिधि क्या वाकई जनता का प्रतिनिधित्व करेंगे, उनमें क्या ईमानदारी से काम करने की मानसिकता होगी आदि प्रश्नों के उत्तर अभी देना संभव नहीं है। अमेरिका से आने वाला काला धन बंद हो जाने, अफीम की खेती से अनाज व भोजन की व्यवस्था न होने व उसका अधिकांश हिस्सा तालिबानियों द्वारा हड़प किए जाने की परम्परा होने से ग्रमीण क्षेत्र उपेक्षित ही रहेगा।

अफगानिस्तान में प्रचुर मात्रा में खनिज संपदा है। भारत और रूस ने वहां खान उद्योग आरंभ करने के लिए अफगानिस्तान प्रशासन से बात चलाई है। ये उद्योग आरंभ न होने देने अथवा उसमें रोड़े डालने की तालिबानी कोशिश करेंगे। अमेरिका की पाकिस्तान के प्रति नरम नीति के कारण वह पाकिस्तान की कारगुजारियों को रोक नहीं पाएगा। दूसरी ओर खनिज तेल के पर्याप्त भंडार और परमाणु अस्त्रों से सज्जित होने की आकांक्षा रखने वाला तथा विश्व की महासत्ता न भी हो लेकिन मध्य पूर्व की महासत्ता बनने का सपना देखने वाला ईरान अफगानिस्तान पर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करेगा। वर्तमान में ईरान की सहायता और आंतरिक आर्थिक मदद में पलने वाले शिया पंथीय लड़ाके पश्चिम अफगानिस्तान में हैं ही। इसके अलावा भारत और रूस की अफगानिस्तान के साथ आर्थिक और सामरिक संबंध दृढ़ करने और पाकिस्तान की नकेल कसने की इच्छा है। इस तरह 2014 के बाद अफगानिस्तान के जकड़े जाने की संभावना अधिक दिखाई देती है।

अफगानिस्तान का 2014 के बाद का भविष्य वहां की जनता और जनता द्वारा निर्वाचित, विभिन्न कबीलों के छोटे-मोटे धार्मिक समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले व मूलतया लड़ाकू जनप्रतिनिधियों पर निर्भर होगा। एक ओर फूट और भ्रष्टाचार से पीड़ित अफगानिस्तान यदि देश एक नहीं रख पाया, धर्म के बजाय विकास कार्मों को अग्रक्रम नहीं मिला तो अफगानिस्तान का भविष्य अंधकारमय होगा और दो दशक पूर्व की अराजकता फिर से आएगी।

मुख्य रूप से पश्तुन पाकिस्तान के साथ व उज्बेक व हजारा ईरान के साथ मिलकर यदि अपने पत्तल पर खिंचने की कोशिश करेंगे तो अफगानिस्तान का तीन हिस्सों में विभाजन होने की आशंका बनी रहेगी। वर्तमान तथाकथित प्रशिक्षित साढ़े तीन लाख की सेना अफगानिस्तान के एक झंडे के नीचे न लड़ते हुए कबीलों के अनुसार विभाजित हुई तो वे अपने ही देशबंधुओं के खिलाफ खड़े होंगे और सीरिया जैसी गृहयुद्ध की स्थिति पैदा होने के संकेत हैं।

इसका उपाय एक ही है और है सारी दुनिया के आतंकवादियों को पनाह देने वाले पाकिस्तान का विभाजन करना। आज पाकिस्तान को अमेरिका की सहायता है। कल यदि मे सहायता रुक गई तो आंतरिक विद्रोह पनपेगा। अमेरिका के जाने के बाद आईएसआई को रोकने वाला कोई नहीं होगा। इसके पूर्व 1971 में पाकिस्तान का विभाजन हुआ वैसी ही स्थिति वहां उत्पन्न होकर इस्लाम में ही बड़ा संघर्ष पैदा होने के संकेत है। कट्टरवादियों के समर्थन से नवाज शरीफ वहां जीते हैं। वे उन्हें या आईएसआई को रोक नहीं पाएंगे और देश विनाश के कगार पर पहुंच जाएगा।

भारत की नीति

परिवर्तित स्थिति में भारत की अफगानिस्तान के प्रति क्या नीति हो यह चर्चा का मुद्दा है। पाकिस्तान की रुकावटों और बीच-बीच में होने वाले तालिबानी हमलों की परवाह न करते हुए भारत ने पिछले कई वर्षों से अफगानिस्तान में विकास कार्यों पर बल दिया है। ईरान से लगा हुआ झारंज से दिलराम तक का करीब साढ़े तीन सौ किमी का रास्ता भारत ने बनाया है। कुछ माह पूर्व भारत के वरिष्ठ कृृषि विशेषज्ञ डॉ. स्वामीनाथन ने अफगानिस्तान का दौरा कर कंधार में कृषि विश्वविद्यालय व अनुसंधान केंद्र की स्थापना की परियोजना को लगभग मान्यता दी है। भारत ने अफगानिस्तान के छात्रों को उच्च शिक्षा की जगह-जगह सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं। इसका वहां की नई पीढ़ी पर अनुकूल असर हो रहा है।

तालिबानियों पर अंकुश रखने के लिए पिछले दशक में भारत ने उत्तरी संगठन (छेीींहशप अश्रश्रळरपलश) को हथियारों की मदद दी थी। कुछ समय तक काबुल में उनका वर्चस्व था। लेकिन, अमेरिका के रुख के कारण पाकिस्तान सिर चढ़ा हो गया और तालिबान की सरकार के गठन में सफल रहा। वर्तमान में करजाई का शासन भी संकट में है व उनके प्रति अफगानी लोगों में भी नाराजी है ऐसी स्थिति में करजाई भारत से हथियारों की मांग करें (द हिंदू, दि. 20 मई 13) तब भी वह पूरी नहीं करनी चाहिए। भारत को 1971 में मुक्ति वाहिनी को मदद करने का अनुभव है। भारत को ऐसी सहायता 2014 की घटनाओं को ध्यान में रखकर ही करनी चाहिए। फिलहाल एक वर्ष की अवधि में भारत को विकास कामों पर ध्यान देना चाहिए। इसी समय दक्षिण व पश्चिम अफगानिस्तान की जनता में व्यापक पैमाने पर सम्पर्क अभियान आरंभ कर लोकतांत्रिक व्यवस्था और आंतरिक प्रशासन का प्रशिक्षण गांवों तक पहुंचाने का काम करना चाहिए। उसे जनता का अच्छा समर्थन मिलेगा। इसी समय भारतीय सिनेमा उद्योग भी इसमें बड़ी भूमिका निभा सकता है।

अफगानिस्तान किसी जमाने में भारत का ही अंग था। भारतीय और अफगानी जनता में मैत्रीभाव था। अफगानिस्तान के सुदूर इलाकों तक हिंदुओं के व्यवहार थे। इसे ध्यान में रखकर अफगानिस्तान को फिर करीब लाने की चुनौती भारत के समक्ष है।

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: afghanistanaghan talibanfatehindi vivekhindi vivek magazineislamic radicalismislamic terrortalibani terrorist

प्रमोद पाठक

Next Post
राष्ट्रिय क्षितिज पर राजनैतिक बदलाव – जनवरी -२०१४

राष्ट्रिय क्षितिज पर राजनैतिक बदलाव - जनवरी -२०१४

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0