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राष्ट्रार्पित जीवन के प्रतिमान डॅा. हेडगेवार

राष्ट्रार्पित जीवन के प्रतिमान डॅा. हेडगेवार

by प्रा. मुकुंद हम्बर्डे
in मार्च-२०१४, सामाजिक
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राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए, समाज सुधार के लिए, राष्ट्र के उत्थान के लिए भिन्न-भिन्न समयों में भिन्न-भिन्न स्थितियों में अनेकानेक महापुरुषों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के कार्य किए हैं। इनके नाम तो सर्वज्ञात हैं किंतु उन्होंने जो कार्य किए हैं, वे उनके जीवन के पश्चात थोड़े समय के लिए चलते रहे और फिर कुछ ही कालावधि में नामशेष हो गए। किंतु एक महापुरुष ऐसे भी हैं जो स्वयं तो अल्पज्ञात रहे हैं किंतु जिनका कार्य उनके बाद न केवल जीवित रहा, अपितु निरंतर बढ़ता हुआ आज विश्व के सबसे ब़डे गैर सरकारी एवं गैर राजनैतिक संगठन के रूप में विश्व विख्यात हो चुका है। इस महापुरुष का नाम है डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार और उनके द्वारा स्थापित कार्य का नाम है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम अब सर्वज्ञात हो गया है। आज विश्व भर में संघ के करो़डों स्वयंसेवक एवं समर्थक हैंं। कई लोग अज्ञानतावश, भ्रमवश, प्रामाणिक मतभेद के कारण या राजनैतिक कुटिलता के कारण जानबूझकर संघ का विरोध भी करते हैं। अनेक लोग तटस्थ मनोवृत्ति के भी हैं। वे सब संघ का नाम जानते हैं, संघ के विषय में इनकी अनुकूल-प्रतिकूल अवधारणाएं भी हैं किंतु इनमें बहुत से लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का केवल नाम ही जानते हैं, उनके विषय में अन्य कुछ नहीं। वस्तुत: डॉ. हेडगेवार और संघ परस्पर पर्यायवाची हैं। डॉ. हेडगेवार का जीवन और उनका अनुभवसिद्ध निष्कर्ष ही संघ का अधिष्ठान है। डॉ. हेडगेवार के जीवन चरित्र को मुख्यत: तीन अध्यायों में समझा जा सकता है।

बाल्य काल

डॉ. हेडगेवार का जन्म चैत्र शुक्ल प्रतिपदा शक संवत 1811 (विक्रम संवत 1946) तद्नुसार 1 अप्रैल 1889 को एक सामान्य पुरोहित कुल में नागपुर में हुआ था। शैशव तो माता-पिता की छत्रछाया में बीता किंतु प्लेग महामारी में उनके देहावसान के पश्चात वे अपने ब़डे भाई के संरक्षण में रहे और फिर ब़डे भाई के निधन के बाद उनके चाचा ने उनका पालन-पोषण किया। किसी भी अन्य व्यक्ति के समान ही बीते हुए उनके बाल्य काल का विशेष उल्लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनके जीवन की और कार्य की झलक उनके बाल्य काल में ही मिल जाती है। उनके बाल्य काल की कुछ घटनाओं के कारण ही उन्हें “जन्मजात देशभक्त” कहा गया।

मात्र आठ वर्ष की आयु में ही एक घटना में उनकी देशभक्ति का भाव प्रकट हुआ था। 22 जून 1897 को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के साठ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में मनाए जा रहे उत्सव में जो मिठाई बांटी गई थी उसे अपने देश के लिए अपमानजनक मान कर केशव ने वह मिठाई कू़डे में फेंक दी। बालक केशव को मिठाई अत्यंत प्रिय थी। देश के स्वाभिमान की रक्षा में सर्वाधिक प्रिय वस्तु का त्याग। इस घटना में उनकी असीम देशभक्ति का दर्शन होता है। उनकी असीम देशभक्ति का परिचय केवल प्रतिक्रिया स्वरूप ही नहीं, आक्रामक सक्रियता से होता है। नागपुर के सीताबर्डी के किले पर फहराता हुआ यूनियन जैक उनकी आंखों में इतना खटकता था कि उन्होंने अपने कमरे से किले तक तीन मील लंबी सुरंग खोदकर उसके अंदर से किले तक पहुंचकर उस पराधीनता के प्रतीक को उखाड़ने का असंभव प्रयास प्रारंभ कर दिया था। उनकी देशभक्ति को उस समय लोकमान्य तिलक और नागपुर के मुर्धन्य नेता डॉ. मुजे द्वारा चलाए गए स्वाधीनता आंदोलन की विभिन्न गतिविधियों ने और भी परिपुष्ट किया। विशेषतया डॉ. मुजे ने उन्हें अपने साथ जोड़ लिया था। उनके हर कार्य में डॉ. मुजे का सम्बल उन्हें जीवनभर प्राप्त होता रहा। सोलह वर्ष की आयु में उनकी सहभागिता क्रांतिकारी कार्यों में भी होने लगी थी। अपने साथ सबको जोड़कर कार्य करने की उनकी प्रवृत्ति का दर्शन भी एक क्रांतिकारी कार्य में होता है।
देशभर में चलने वाले ‘वंदे मातरम’ आंदोलन को उन्होंने अपने विद्यालय के हर छात्र तक पहुंचा दिया। सन 1907 की घटना है, वे नागपुर के नीलसिटी स्कूल में पढ़ते थे। विद्यालय निरीक्षक जब कक्षा में आए तब उनका स्वागत सभी छात्रों ने ‘वंदे मातरम’ की घोषणा से किया। अपने हृदय में विद्यमान राष्ट्रभक्ति की चिंगारी से सभी छात्रों के मन में उसी राष्ट्रभक्ति की मशाल को प्रज्ज्वलित कर उन्होंने एक अद्भ्ाुत योजना को पूरी गोपनीयता के साथ साकार कर दिखाया था। सबको सम्पूर्ण मनोभाव के साथ अपने साथ जो़डना, उन्हें केवल अनुयायी ही नहीं, सक्रिय सहभागी बनाना, निर्दोष कार्य योजना बनाकर उसका सफल कार्यान्वयन करना, किसी भी कार्य में सबको इतनी द़ृढ़ता से समाहित करना कि सबको वह कार्य अपना स्वयं का लगे और लोभ, लालच, दंड के भय आदि में भी वे सब अड़िग बने रहें, ऐसा भाव निर्माण करने के जो गुण उनके जीवन में द़ृष्टिगोचर हुए थे, वे सब इस आंदोलन में प्रकट हुए।

अनुभव एवं चिंतन काल

उपर्युक्त आंदोलन के फलस्वरूप विद्यालय से निष्कासन हुआ। उन्होंने यवतमाल के ‘विद्या गृह’ नामक राष्ट्रीय विद्यालय में प्रवेश लिया, उसके बंद होने पर पुणे में अध्ययन किया और अमरावती के केंद्र से कलकत्ता (अब कोलकाता) के राष्ट्रीय चिकित्सा विद्यालय की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की। इस अध्ययन काल में और उसके बाद नागपुर आने के बाद भी राष्ट्रीय आंदोलनों में उनकी सहभागिता में कोई कमी नहीं आई। सुरंग बनाने के लिए प्रेरित करने वाली आक्रामक प्रवृत्ति के कारण उन्होंने पुलिन बिहारी दास द्वारा संचालित उस समय की अग्रणी क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन समिति की सदस्यता ग्रहण की। इसी कार्य को आगे बढ़ाने के लिए निमित्त स्वरूप कलकत्ता के ‘नेशनल मेडिकल कॉलेज’ में प्रवेश लेकर उन्होंने बंगाल को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। स्वाभाविक गोपनीयता के कारण उनके क्रांति कार्य की कोई अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसी अवधि में उन्होंने अनेक प्रकार के आंदोलनों का, सेवा कार्यों का, गोपनीय कार्यों का सफल संचालन किया। आगे चलकर संघ कार्य में जो भी आयाम जुड़े, उसका प्रारंभ हमें इस अवधि में डॉक्टर जी के जीवन में दिखाई देता है। ‘नेशनल मेडिकल कॉलेज’ की उपाधि को मान्यता दिलवाने के लिए उनके द्वारा संचालित आंदोलन इस बात का एक अद्भ्ाुत उदाहरण है।
अपनी चिकित्सा शिक्षा 1915 में पूर्ण करने के पश्चात वे नागपुर आए और किसी भी प्रकार की नौकरी न करने का तथा विवाह न करने का संकल्प लिया। अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया। 1915 से 1925, 10 साल तक स्वाधीनता प्राप्ति और समाज सुधार के लिए किए जा रहे विभिन्न कार्यों में वे सक्रिय सहभागी रहे। डॉ. मुंजे, भाऊ जी कावरे, अण्णा जी खोत आदि समाज समर्पित कार्यकर्ताओं के मार्गदर्शन में उन्होंने युवकों को संगठित करते हुए बल साधना और क्रांतिकारियों का दल बनाया, क्रांतिकारियों की सहायता तो वे गोपनीय ढंग से करते ही रहे, प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न सामाजिक और राजनैतिक कार्यों में सक्रिय रहे। पुणे में जाकर लोकमान्य तिलक जी से भेंट की, परिणाम स्वरूप मध्य प्रांत के “होमरूल लीग” में प्रवेश किया तथा लोकमान्य तिलक जी के नेतृत्व में चलने वाले अनेकानेक आंदोलनों में अग्रणी रहकर कार्य किया। प्रथम विश्व युद्ध केे पश्चात उभरे “खिलाफत आंदोलन” में मुस्लिम समुदाय की मनोवृत्ति और राष्ट्र घातक हिंसक आक्रामकता के साथ हिंदू समाज के दब्बूपन का भी उन्होंने सूक्ष्मता से अध्ययन, मनन एवं चिंतन किया।

इस अवधि में उन्होंने जो विविध कार्य किए उसकी सूची मात्र अचंभित करने वाली है। ‘राष्ट्रीय मंडल’ का संचालन, ‘नागपुर नेशनल यूनियन’ नामक राजनैतिक दल की स्थापना, ‘संकल्प’ साप्ताहिक का संचालन, ‘राष्ट्रीय उत्सव मंडल’ की स्थापना, डॉ. ल. वा. परांजपे द्वारा स्थापित ‘भारत स्वयंसेवक मंडल’ का प्रचार, भारतीय राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) की सदस्यता ग्रहण कर नागपुर में होने वाले अधिवेशन की स्वागत समिति के सदस्य रहे, लोकमान्य तिलक के देहावसान के पश्चात योगी अरविंद को अध्यक्ष पद ग्रहण करने हेतु निवेदन करने के लिए गए प्रतिनिधि मंडल के सदस्य, अधिवेशन की व्यवस्था, असहयोग आंदोलन में सहभागिता, फलस्वरूप राजद्रोह के आरोप में एक वर्ष का सश्रम कारावास आदि-आदि।

1921 में कारावास से बाहर आने के बाद इन सारे अनुभवों पर उनका गहन चिंतन चल रहा था। 1924 से ‘स्वातंत्र्य’ नामक समाचार पत्र का सम्पादन करते हुए उन्होंने अपना यह चिंतन समाज के समक्ष प्रस्तुत किया। देश की स्थिति, राजनीति का अस्थिर अस्पष्ट स्वरूप, हिंदू समाज की आत्मग्लानि युक्त मानसिकता, मुसलमानों की गुंडागर्दी, हिंदू-मुस्लिम एकता के नाम पर तुष्टिकरण, जाति भेद और ऊंच-नीच के भेद से बिखरा विघटित हिंदू समाज, राष्ट्रीयता के विषय में भ्रमित मानसिकता आदि देखकर डॉक्टर जी का मन चिंतित, व्यथित रहता था। अंतर्मुख चिंतन और अपने मित्रों से चलने वाले चर्चा सत्रों के आधार पर वे एक अत्यंत मूलभ्ाूत निष्कर्ष पर पहुंचे। निष्कर्ष था अपना यह हिंदू समाज विघटन और आत्मविस्मृति इन दो रोगों से पीड़ित हो चुका है। वे डॉक्टर थे। मानो, देश और समाज की दीर्घ और गहन चिकित्सा करने के बाद उन्होंने समाज के रोग का निदान कर लिया था। किंतु इतना कहना पर्याप्त नहीं है। उनकी मुख्य विशेषता थी- देश के प्रति उनके मन में अपार भक्ति भाव, देश की दुर्दशा देखकर उनका हृदय गहरी व्यथा से भरा हुआ था। किंतु यह रोते रहने वाली व्यथा मात्र नहीं थी, अपितु समर्पण भाव से कार्य करने के लिए उठकर चलने हेतु प्रेरित करने वाली ऊर्जा थी। इसी व्यथा से निकला कार्य संकल्प। हिंदू समाज को संगठित, अनुशासित, स्वाभिमानी, राष्ट्रभक्ति युक्त बनाते हुए हिंदू राष्ट्र को स्वतंत्र एवं परम वैभवशाली बनाने का संकल्प, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” की स्थापना का संकल्प। किसी कवि ने इसी बात को इस पंक्ति में कहा है- “हृदय की व्यथा संघ बन फूट निकली।”

संघ काल

“1925 में विजय दशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉ. हेडगेवार ने की” ऐसा कहना मात्र सुविधा के लिए ठीक हो सकता है, किंतु यह वास्तविकता नहीं है। स्थापना होने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रचलित अर्थों में न तो कोर्ई संस्था है, न दल, न संस्थान, न प्रतिष्ठान। इसका नाम भी निश्चित नहीं था, तो 1925 में विजय दशमी के दिन क्या हुआ था? पहले से ही चल रहे चर्चा सत्रों के निष्कर्ष के फलस्वरूप जब संकल्प निश्चित हुआ तब “विजय दशमी” के शुभ दिन को अपने संकल्प अभिव्यक्ति के लिए उचित मुहूर्त मानकर उनके निवास स्थान पर एकत्रित अपने 15-20 सहयोगियों के सामने उन सभी के मन के संकल्प की घोषणा की। क्या थी घोषणा? केवल एक वाक्य- “ हम लोग आज से संघ शुरू कर रहे हैं।” (मूल मराठी में- आज पासून आपण संघ सुरू करीत आहोत।) बस इसी को कहते हैं विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन की स्थापना।
संघ के प्रवास एवं विकास की कथा बहुत लंबी और बहुआयामी है। उसे कहने के लिए इस लेख में स्थानाभाव है। संघ का प्रारंभ, विकास एवं राष्ट्रव्यापी विस्तार में डॉक्टर जी की भ्ाूमिका का ही विवरण यहां अपेक्षित है, किंतु दोनों बातें एकरूप ही हैं।

इसके कुछ स्मरणीय बिंदु:

रामटेक में राम नवमी के मेले में व्यवस्था करने के निमित्त से इसका नामकरण 17 अप्रैल 1926 को डॉक्टर जी के घर में आयोजित बैठक में सामूहिक विचार-विमर्श से हुआ, नाम रखा गया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। नाम की व्याख्या करते हुए सभी लोगों ने स्पष्ट किया कि “हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है”। ‘सामूहिक निर्णय’ संघ की रीति-नीति बनी। इसका मूल कारण था डॉक्टर जी का इस पर अडिग विश्वास। आप्पा जोशी जी ने सभी साथियों के संग निर्णय लिया ‘डॉक्टर जी संघ के परमपूजनीय सरसंघचालक होंगे’। डॉक्टर जी ने इच्छा न होते हुए भी इसे स्वीकार किया।

संघ के स्वरूप को स्पष्ट करने हेतु उन्होंने जो कहा, वे वचन संगठन कार्य के मूल मंत्र बन गए। इन्हीं मंत्रों पर आगे बढ़ते हुए संघ ने अपना वर्तमान स्वरूप ग्रहण किया। उन्होंने सबसे कहा, “इस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जन्मदाता अथवा संस्थापक मैं न हो कर आप सब हैं, यह मैं भलीभांति जानता हूं। आपके द्वारा स्थापित संघ का आपकी इच्छानुसार मैं एक धाय का कार्य कर रहा हूं। मैं यह काम आपकी इच्छा एवं और आज्ञा के अनुसार आगे भी करता रहूंगा तथा ऐसा करते समय किसी भी प्रकार के संकट अथवा मान-अपमान की मैं कतई चिंता नहीं करूंगा। आपको जब भी प्रतीत हो कि मेरी अयोग्यता के कारण संघ की क्षति हो रही है तो आप मेरे स्थान पर दूसरे योग्य व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वतंत्र हैं।” इन वचनों में डॉक्टर जी के समर्पित व्यक्तित्व का दर्शन स्पष्ट होता है। केवल वचन से ही नहीं, उन्होंने संघ कार्य के लिए अपना सर्वस्व लगाते हुए अथक प्रयास किया, निरंतर प्रयास किया। जीवन का क्षण-क्षण, शरीर का कण-कण राष्ट्र कार्य के लिए, संघ के लिए।

अनेकानेक सामूहिक निर्णय, गणवेश, प्रार्थना, आज्ञाएं, आचार-पद्धति, कार्यक्रमों की संरचना, वैचारिक अधिष्ठान, नीतियां, सेवा कार्यों की योजना आदि-आदि अनेक बातें सामूहिक निर्णयानुसार होती रहीं और प. पू. डॉक्टर हेडगेवार एक धाय की तरह उन सबका पालन, क्रियान्वयन करते रहे, करवाते रहे। उनकी प्रेरणा से अनेक लोगों ने अपना जीवन ‘प्रचारक’ के रूप में समर्पित किया। उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक राष्ट्रभाव और संगठन की पताका लेकर सैंक़डों युवक निकले। स्थान-स्थान पर संघ की शाखाओं का जाल फैलाते हुए 15 वर्षों में संघ को राष्ट्रव्यापी कर दिया। प. पू. डॉक्टर जी स्वयं स्थान-स्थान पर जाते रहे, लोगों से मिलते रहे, संघ के पौधे रोपते रहे। रोग ग्रस्त शरीर के उपचार हेतु वे जहां भी जाते, वहीं संघ कार्य का बीजारोपण करते जाते थे। अपनी पीठ की वेदना का उपचार कराने बिहार में राजगीर के उष्ण निर्झर से स्नानोपचार करने गए तो वहां भी संघ की शाखा प्रारंभ हो गई थी। तिल-तिल तपस्या कर रहे थे। शरीर क्षीण हो रहा था, उसकी चिंता करने का समय उनके पास नहीं था। उन्हें तो “याचि देहीं, याचि डोळां” (इसी शरीर मेंं, इन्हीं आंखों से) अपना संकल्प पूरा करना था। 9 जून 1940 को संघ शिक्षा वर्ग के समापन में सम्पूर्ण भारत से, हर प्रांत से आए हुए शिक्षार्थियों को एकत्रित देखकर उन्होंने संतोष पूर्वक कहा “आज मैं अपने सामने हिंदू राष्ट्र का लघ्ाु रूप देख रहा हूं।” 20 जून को अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं के समक्ष उन्होंने प. पू. श्री गुरुजी से कहा, “ आगे संघ का संपूर्ण कार्य आप संभालिए”। इसके कुछ दिनों के बाद ही 21 जून 1940 को सुबह 9 बजकर 27 मिनट पर उन्होंने अंतिम सांस ली। वे राष्ट्र के लिए समर्पण का मंत्र हमें दे गए।
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