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भारतीय मानवाधिकार का सूत्र सर्वे भवन्तु सुखिन:

भारतीय मानवाधिकार का सूत्र सर्वे भवन्तु सुखिन:

by pallavi anwekar
in जनवरी- २०२१, विशेष, सामाजिक
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मानवाधिकार केवल अल्पसंख्यकों की बपौती नहीं है और न होनी चाहिए परंतु अपने स्वार्थ और कुछ विशिष्ट ऐजेंडों को आगे बढ़ाने के लिए मानवाधिकार का दुरुपयोग बढ़ता जा रहा है। आज मानवाधिकार को केवल ‘थेअक्रेटिक’ दृष्टिकोण से देखा जा रहा है, यह अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है।

मानवाधिकार यह शब्द गाहेबगाहे हमारे कानों पर पड़ता ही रहता है। नियमित रूप से समाचार पत्र पढ़ने वालों और समाचार चैनल देखने वालों को तो लगभग रोज ही यह सुनाई देता है, क्योंकि दुनिया के किसी न किसी कोने में रोज मानवाधिकारों का उल्लंघन होने की खबरें आती रहती हैं। वस्तुतः मानवाधिकार शब्द की संकल्पना को समझे बिना इसका कितना उपयोग या दुरूपयोग किया जा रहा है, इसकी चर्चा करना व्यर्थ होगा। भारत में मानवाधिकार का मूल सूत्र सदैव ही सर्वे ‘भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया’ ही रहा है, क्योंकि किसी अन्य व्यक्ति को दुःख पहुंचाकर अपना अधिकार शाश्वत रखना भारतीय मानवाधिकार की अवधारणा में नहीं बैठता है। भारतीय सामाजिक संकल्पना में अधिकार दायित्व के साथ ही आते रहे हैं। इसलिए अधिकारी व्यक्ति अपने दायित्व का वहन करने के लिए अपने अधिकारों का प्रयोग करता रहा है। परन्तु कालांतर में अधिकारों की संकल्पना से दायित्व निकल गया और इसका परिणाम यह हुआ कि अधिकार व्यक्ति केन्द्रित और आगे जाकर विशिष्ट समाज केन्द्रित बन गया।

हम सभी ने बचपन में बीच का बन्दर या अन्य किसी नाम से वह खेल अवश्य खेला होगा जिसमें खेलने वाले सभी लोग दो पालों में खेलते हैं और एक व्यक्ति दाम देता है। दोनों पालों के खिलाडी गेंद उछालते हैं और दाम देने वाले को वह गेंद दूसरे पाले में जाने से पहले लपकनी होती है। अक्सर दाम देने वाले की अवस्था बंदर की तरह हो जाती है, जो कभी इस पाले में कूदता है तो कभी उस पाले में कूदता है। फ़िलहाल मानवाधिकार की हालत भी इस खेल की गेंद की तरह है जिसे अपने मतलब के लिए कभी एक व्यक्ति उछालता है कभी दूसरा। परन्तु पूरी घटना में मानवाधिकार की सबसे ज्यादा जरूरत जिसे होती है वह बेचारा इन दोनों पालों के बीच का बंदर बनकर रह जाता है, क्योंकि अमूमन वह कमजोर ही होता है और दोनों पाले के लोग उसे छकाते रहते हैं।

पिछले कुछ वर्षों में घटी घटनाओं का अगर थोड़ा विश्लेषण करेंगे तो यह बात अधिक साफ हो जायेगी कि किस तरह केवल भारत में ही नहीं पूरे विश्व में मानवाधिकार कुछ विशिष्ट वर्गों की सम्पत्ति बन गया है। क्या आपको याद है हाल-फिलहाल में किन-किन घटनाओं के बाद मानवाधिकार का कार्ड खेला गया था? मानवाधिकार की चर्चा उस समय हुई थी जब दिल्ली में निर्भया हत्याकांड के दोषियों में से एक नाबालिग लड़के को सजा सुनाई गई थी। इतनी निर्दयता से दुष्कर्म करनेवाला कोई भी व्यक्ति नाबालिग कैसे हो सकता है, पहला प्रश्न तो यही है। दूसरी बात पीड़िता के मानवाधिकार के सामने दोषी का मानवाधिकार कितना मायने रखता है? अगर पीड़िता के मानवाधिकार के लिए जोर लगाया जाता तो निश्चित ही दोषियों को और जल्दी सजा सुनाई जाती।

                                 विहिप द्वारा विश्व मानव अधिकार दिवस पर सेमिनार का आयोजन

विश्व मानव अधिकार दिवस के उपलक्ष्य में विश्व हिन्दू परिषद् की ओर से एक सेमिनार का आयोजन किया गया। जिसमें विहिप नेता प्रशांत हरतालकर ने अपने संबोधन में कहा कि कर्तव्य बोध कराने के उद्देश्य से इस सेमिनार का आयोजन किया गया है। हम अधिकार से अधिक कर्तव्यों को प्रधानता देते है। वास्तविकता में हमारे दायित्वों का पालन करना ही हमारा परम अधिकार है। मानवाधिकार को समझने के लिए सर्वप्रथम हमें अपने कर्तव्यों को समझना होगा। केवल अधिकार के आधार पर हमारा जीवन नहीं चल सकता। कर्तव्य की भावना से ही विश्व सुचारू रूप से चल सकता है। भारतीय संस्कृति में कर्तव्य को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। अपने कर्तव्य भाव को जगाकर यदि हम अधिकारों की चर्चा करते है तो उसे सोने पर सुहागा कहा जायेगा। इस दृष्टिकोण से हम चलेंगे तो सभी के मानवाधिकार की रक्षा स्वयं ही हो जाएगी। हम सभी जानते है कि मानवाधिकार पूरे विश्व को एकसूत्र में बांधने के लिए है। मानव एवं मानवता की रक्षा के लिए ही मानवाधिकार की बात की गई है। भारतीय संस्कृति के दर्शन से ही मानवता की रक्षा संभव है। इसके अलावा उन्होंने पाकिस्तान के हिन्दू शरणार्थियों एवं भारत के बहुसंख्यकों के मानवाधिकार के मुद्दे पर भी अपने विचार प्रकट किये। इस कार्यक्रम में विहिप के कार्याध्यक्ष आलोक कुमार, विनय सहस्त्रबुद्धे, ज्योतिका जी आदि मान्यवर मंच पर उपस्थित थे। उन्होंने भी मानवाधिकार विषय पर अपनी बात रखी।

आतंकवादी बुरहान वानी का जब हमारी सेना ने खात्मा कर दिया था, उसके बाद भी मानवाधिकार की चर्चा जोरों पर थी। क्या देश के हजारों निर्दोष लोगों की जान लेनेवाले आतंकवादी के मानवाधिकार के लिए लड़ना उचित है? क्या बुरहान वानी जैसे आतंकवादी के मानवाधिकार के लिए लडना हमारे देश के सैनिकों के प्रति कृतघ्नता नहीं होगी जो ऐसे आतंकवादियों से हमारी रक्षा करते हैं? क्या उन सैनिकों के और देश के अन्य लोगों के मानवाधिकार नहीं हैं? क्या बुरहान वानी का अल्पसंख्यक समाज से सम्बंधित होना उसके मानवाधिकार को अधिक महत्वपूर्ण बना देता है?

फ्रांस में पैगंबर मुहम्मद का चित्र बनाना मानवाधिकार का उल्लंघन है, परंतु एम.एफ.हुसैन के द्वारा हिंदू देवी देवताओं के आपत्तिजनक चित्र बनाना मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं अपितु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। हिंदू देवी-देवताओं के चित्र चप्पलों और टॉयलेत सीट पर बनाना मानवाधिकार का उल्लंघन नहीं होता?

भारत की बात करें तो यहां हिंदू बहुसंख्यक होने के कारण उनके मानवाधिकारों की चर्चा करने की आवश्यकता ही नहीं महसूस होती। हिंदूओं के साथ हो रहे किसी भी गलत व्यवहार के समय उनके मानवाधिकारों की किसी को भी याद नहीं आती। शायद इसलिये ही विगत कुछ दिनों में पाकिस्तान से प्रताड़ित होकर कई हिंदू भारत आए हैं, परंतु उनके मानवाधिकार की बात कोई नहीं करता, जबकि सीएए का विरोध करने वाले लोग शाहीन बाग में धरना देने वालों के मानवाधिकारों की बात कर रहे थे।

ये सारे उदाहरण मानवाधिकार का एकतरफा और दोगला चेहरा दिखाते हैं। मानवाधिकार केवल अल्पसंख्यकों की बपौती नहीं है और न होनी चाहिए परंतु अपने स्वार्थ और कुछ विशिष्ट ऐजेंडों को आगे बढ़ाने के लिए मानवाधिकार का दुरुपयोग बढ़ता जा रहा है। दरअसल मानवाधिकार को ‘सॉफ्ट टार्गेट’ के रूप में प्रस्तुत करके अपना काम सिद्ध करने का षडयंत्र रचा जा रहा है। रही सही कसर राजनैतिक लोग पूरी कर देते हैं। अपने राजनैतिक स्वार्थ को साधने के लिए इस विषय पर चुप्पी साध लेना ही उन्हें अधिक सुहाता है। आज मानवाधिकार को केवल ‘थेअक्रेटिक’ दृष्टिकोण से देखा जा रहा है, यह अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है।

वास्तव में मानवाधिकार पर लिंग, भाषा, पूजा पद्धति, अल्प संख्यक-बहु संख्यक इत्यादि किसी का भी प्रभाव नहीं होना चाहिए। मानवाधिकार उस हर एक व्यक्ति का अधिकार है जिसने इस दुनिया में जन्म लिया है, परंतु अधिकारों की मांग करते समय दायित्वों का बोध भी साथ में होना चाहिए। भारत में इसके लिए बहुत अच्छा शब्द है ‘धर्म’। यह धर्म कोई पूजा पद्धति या संकुचित विचार नहीं है बल्कि आचरण करने का वह तरीका है जो मानव में कर्तव्यों का बोध अपने आप जागृत करता है। जो व्यक्ति अपने धर्म को भलीभांति समझ जाता है, वह कभी भी दूसरे के मानवाधिकार का उल्लंघन करने या उस पर प्रहार करने की चेष्टा ही नहीं करेगा। इसलिए भारतीय समाज में फिर से एक बार धर्म जागरण की आवश्यकता महसूस हो रही है।

जब धर्म जागृत होगा तब कर्तव्य की भावना जागृत होगी, दायित्व बोध जागृत होगा। जब कर्तव्य व दायित्व का बोध जब अधिकार प्रदान करेगा तभी मानवाधिकार पूर्ण होगा और सर्वे भवन्तु सुखिन: का सूत्र वास्तव में फलित होगा।

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