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टीकाकरण का महाभारत

टीकाकरण का महाभारत

by शैलेंद्र कवाडे
in जनवरी- २०२१, सामाजिक, स्वास्थ्य
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भारत में यह टीका सीरम इन्स्टीट्यूट द्वारा तैयार किया जा रहा है। तीसरे प्रकार के टीके से तात्पर्य है- सीधे-सीधे स्पाइक प्रोटीन तैयार करना और शरीर में उसका टीकाकरण करना। इस प्रकार का टीकाकरण बहुत आसान लगता है परंतु कोविड के निर्मूलन के लिए अब तक ऐसा टीका बना नहीं है। अपेक्षा की जाती है कि आने वाले 3 से 6 महीनों में वह टीका बन जाएगा।

पूरी दुनिया इस बीमारी को दूर करने वाली औषधियों और उससे ज्यादा टीका की प्रतीक्षा में है। कारण बहुत सीधा- सादा है और उसे समझे बिना औषधि और टीका के संदर्भ में जो असमंजस की स्थिति उत्पन्न हुई है; वह दूर नहीं होगी।

कोविड के कारण जिनकी मृत्यु होती है अथवा जिन्हें गंभीर स्वरूप की बीमारी हो जाती है, उनके शरीर में साइटोकाइन स्ट्रोम नाम की स्थिति निर्मित हो जाती है। अब सवाल यह है कि यह साइटोकाइन स्ट्रोम क्या होता है? चलिए, इसे आसान और सरल भाषा में समझेंगें।

साइटोकाइन हमारे शरीर में प्रतिकार शक्ति के संदेशवाहक के रूप में कार्य करते हैं। जब बाहर का कोई रोगाणु हमारे शरीर में प्रवेश करता है, तब किसी भी प्रतिकार कोशिका द्वारा उसे पहचाने जाने पर वह पेशी अथवा कोशिका अन्य पेशियों/ कोशिकाओं को अर्थात् समस्त प्रतिकार प्रणाली को इन संदेशवाहकों के माध्यम से यह संदेश पहुंचाती है कि किसी रोगाणु ने हमारे शरीर में प्रवेश किया है। तब पूरी प्रतिकार प्रणाली उस खतरे (रोगाणु) को खोजने में लग जाती है और उस रोगाणु को नष्ट करती है। यह प्रणाली आपको बड़ी आदर्श प्रणाली लगेगी, परन्तु इसमें एक कमी है।

हमारी प्रतिकार प्रणाली किसी कॉलोनी की तरह होती है, जहां कई लोग रहते हैं। इसमें साइटोकाइन्स नाम के संदेश पहुंचाने वाले संदेशवाहक भी होते हैं। मान लीजिए . . कुछ लोगों ने कॉलोनी में किसी अजनबी को देख लिया। अब उन लोगों ने इस खतरे का (अजनबी का) संदेश इस संदेशवाही को दिया। अब होना यह चाहिए कि इस संदेश को पाते ही ये संदेशवाही, यह संदेश ठीक तरह से दूसरों तक पहुंचा दें। लेकिन एक समय में इस अजनबी को देखने वाले लोग उस स्थिति में अलग-अलग तर्क लगाते हैं। जैसे किसी को वह अजनबी बच्चे उठाकर ले जाने वाला चोर लगेगा; किसी को को वह अजनबी आतंकवादी लगेगा; तो किसी को वह अजनबी किसी के घर आया हुआ मेहमान लगेगा और किसी और को कुछ और लगेगा। ऐसी स्थिति में इन लोगों से संदेश सुनने वाले ये संदेशवाही हड़बड़ा आते हैं और सही संदेश पहुंचाने के स्थान पर भ्रामक (अफवाह) संदेश पहुंचाना प्रारंभ करते हैं । अब अफवाहों की भीड़ लग जाती है और उस कॉलोनी का हर सैनिक जो हथियार मिलेगा और जिस पर संदेह है; उस पर आक्रमण करने के लिए दौड़ पड़ता है। इस गड़बड़ी और हड़बड़ाहट में कई निरपराध लोग मारे जा सकते हैं। जब ऐसी गड़बड़ी अथवा हड़बड़ाहट हमारे शरीर में उत्पन्न होती है तो उसे ‘साइटोकाइन स्ट्रोम’ कहते हैं। इसके कारण हमारे शरीर के कई अवयव/अंग मारे जाते है। फलस्वरूप, व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।

यह सब क्यों घटित हुआ? हमारे शरीर को इस कोविड विषाणु से परिचय न होने के कारण! यदि हमारे शरीर को इस विषाणु से पहले से परिचय हो जाता तो अफवाहों की आंधी उठती ही नहीं और जिस तरह हमारा शरीर दूसरे हज़ारों विषाणुओं से लड़ता रहा है। इससे भी लड़ता और उन्हें नष्ट कर देता। आसान भाषा में कहना हो तो टीकाकरण का अर्थ है – इस विषाणु से हमारे शरीर का परिचय करा देना।

देखा जाए तो शरीर से किसी विषाणु अथवा जीवाणु से परिचय होने के लिए टीकाकरण की आवश्यकता नहीं हैं। जब हम इस दुनिया में आकर पहली सांस लेते हैं; उसी समय हमारे शरीर में हजारों प्रकार के जीवाणु और विषाणु प्रवेश करते है। उसी समय मां के दूध द्वारा लाखों प्रकार के एंटीबॉडीज अर्थात् उन घुसपैठियों को मारने वाले सैनिक शरीर में भेजे जाते हैं। धीरे-धीरे हमारा शरीर स्वयं ही इन एंटीबॉडीज का निर्माण करना प्रारंभ करता है। हमें अपने आस-पास के रोगाणुओं से परिचय हो जाता है। हमारे शरीर को बोध हो चुका होता है कि रोगाणुओं का आक्रमण होने पर क्या करना चाहिए। परिणाम यह होता है कि जिस परिसर में हम रहते हैं, उस परिसर की जलवायु, अन्न के हम आदी हो जाते हैं, उनको हम पचा जाते हैं। इसी तरह हममें से अनगिनत लोगों ने इस समय कोविड को पचा लिया है और उन लोगों को यह मालूम भी नहीं है।

वर्तमान समय में हम टीका अथवा टीकाकरण शब्द बड़े ही सीमित अर्थ में उपयोग में लाते है। इसके पीछे संभवतः हमारा यह तर्क होता है कि हमारे शरीर में सुईं चुभोकर जो दवा अथवा अन्य द्रव छोड़ा जाता है, उसी को टीकाकरण कहते हैं। चेचक अथवा शीतला के विषाणु को अंग्रेजी में स्मॉल पॉक्स कहते हैं तो गाय के स्तनों में गांठें तैयार करने वाले रोग को काउपॉक्स कहते हैं। ये दोनों प्रकार के विषाणु भिन्न-भिन्न हैं। काउपॉक्स की बीमारी स्मॉल पॉक्स की तुलना में सौम्य अथवा मंद स्वरूप की थी। जेन्नर से पूर्व चेचक से प्रभावित व्यक्ति के शरीर में से विषाणु निकालकर उन्हें दूसरे स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में प्रविष्ट कराने के प्रयोग किए गए थे परंतु वैज्ञानिकों को पर्याप्त सफलता प्राप्त नहीं हो रही थी क्योंकि इस प्रकार सीधे-सीधे विषाणु को शरीर में प्रविष्ट कराने के प्रयोग में कई लोगों की मृत्यु हो जाती थी। जेन्नर ने यह सिद्ध कर दिखाया कि प्रतिकार क्षमता निर्माण करने के लिए सीधे-सीधे विषाणु का टीका लगाना कोई उपाय नहीं है, इसे सौम्य विषाणु का टीका लगाना कम हानिकर और परिणामकारक उपाय है। संक्षेप में कहना हो तो जिस प्रकार हम कसरत करते समय जान-बूझकर अपनी मांसपेशियों को भुलावे में डालकर थोड़ा-थोड़ा भार (वेट) उठाना शुरू करते हैं और मांसपेशियों की शक्ति को बढ़ाते हैं। उसी तरह अधमरे विषाणुओं को युद्ध में उतारकर हम अपनी प्रतिकार शक्ति को भुलावे में रखते हैं और उसे लड़ने और शत्रु को पहचानना सिखाते हैं।

अब तक के सभी ta©bbaine (एंटी वायरस) लगभग इसी पद्धति से तैयार लिए गए हैं यानि कि उन ta©bbaine (एंटी वायरस) में अधमरे विषाणु अथवा जीवाणु हुआ करते थे। उन्हें बहुत कम संख्या में शरीर में छोड़ा जाता था। इसमें भी पुन: दो-तीन प्रकार हैं। पहला प्रकार- अक्षम तरह का टीका । इसमे इन विषाणुओं अथवा जीवाणुओं को अधमरा बनाकर शरीर में छोड़ देते थे। इस विषाणु को खच्चर अथवा घोड़े जैसे जीवित प्राणी में अथवा अंडे में विकसित किया जाता था। पीढ़ी-दर पीढ़ी वहीं बढ़े हुए ये विषाणु मानव के शरीर में, मानव पर आक्रमण करने की शक्ति भूल जाते थे और फिर ये ऐसे अधूरे अथवा अक्षम, हमारे शरीर में छोड़े जाने पर हमारा शरीर ही उन्हें बड़ी सहजता से मार देता है परंतु उसी समय हमारे शरीर को उन विषाणुओं का परिचय भी प्राप्त हो जाता है और जब इन विषाणुओं के सगे भाई हम पर हमला करते है तब हमारी प्रतिकार प्रणाली उन्हें अचूक पहचान कर नष्ट कर देती है। इस पद्धति से खसरा रोग का टीका तैयार किया जाता है। दूसरा प्रकार- इसमें इन विषाणुओं को पूर्णत: मारकर शरीर में छोड़ा जाता है। इन विषाणुओं को मृत बनाने के लिए केमिकल अथवा उष्णता का उपयोग किया जाता है। संक्षेप में कहना हो तो इस प्रकार में शत्रु के किसी सैनिक को पकड़कर; उसे मारकर उसकी वर्दी अपने सैनिकों को दिखाना है और उन्हें अगले हमले के लिए तैयार करना है। इन दिनों घर- घर जाकर दी जाने वाली पोलियो की ta©bbaine (एंटी वायरस) इसी पद्धति की है। इसी प्रकार के दूसरे भी कुछ उपाय हैं; जिनका उपयोग पूर्व समय में किया जाता था परंतु इन सभी में एक दोष अथवा एक कमी है और वह कमी है- मानवी सुरक्षा को लेकर संदेह के विषय में।

mRNA पर आधारित टीका पहला और लोकप्रिय प्रकार है।
mRNA शब्द मेसेंजर RNA का लघुरूप है। यह अणु सीधे-सीधे प्रोटीन को पैदा करता है। कोविड के विषाणु पर एक कवच होता है। इस कवच पर एक कील की तरह प्रोटीन होता है। यह प्रोटीन मानव की कोशिकाओं के साथ मिलकर उस विषाणु को कोशिकाओं के अंदर जाने के लिए रास्ता बना देता है। इसे ‘s प्रोटीन’ अथवा ‘स्पाइक प्रोटीन’ कहते हैं। हमारी प्रतिकार प्रणाली की कोशिकाएं भी इसी प्रोटीन को पहचानती हैं और विषाणुओं पर हमला बोल देती हैं। यह प्रोटीन उस विषाणु का चेहरा होता है। वैज्ञानिकों ने इस प्रोटीन को जन्म देने वाले mRNA का प्रयोगशाला में निर्माण किया । यह mRNA जीवित रहे; इसलिए इसे एक स्निग्ध पदार्थ की बूंद में बंद कर दिया। ऐसी करोड़ों बूंदों से बना यह द्रव ही कोविड का टीका कहलाता है। जब इन बूंदों को टीके के रूप में हमारे शरीर में प्रविष्ट कराया जाएगा तब ये बूंदें हमारे शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश करेंगी। वहां इस टीके में से कुछ बूदें फट जाएंगी और उनमें स्थित mRNA बाहर आ जाएगा। यह ाठछअ कोविड के विषाणु के समान स्पाइक प्रोटीन का निर्माण करेगा। हमारी प्रतिकार प्रणाली उसके विरुद्ध एंटी बॉडीज़ का निर्माण करेगी और इस तरह हमारे शरीर में कोविड से युद्ध करने की प्रतिकार शक्ति निर्मित हो जाएगी। आपने मोडर्ना (मॉडर्न) अथवा फाइज़र टीके के बारे में सुना होगा। ये टीके इसी पद्धति से तैयार किए गए हैं। इस पद्धति से टीके तैयार करना सुरक्षित है, परंतु इसमें दो बाधाएं हैं।

पहली बाधा – यह mRNA बहुत नाज़ुक होता है। उसका निर्वहन करने के लिए अत्यंत कम तापमान की आवश्यकता होती है। दुनिया में कई देशों में इस पद्धति से टीके का संग्रह करना, उसका परिवहन करना असंभव है। इस स्थिति में ये टीके विकसित देशों में उत्तम कार्य करेंगें परंतु भारत जैसे देश में टीकों का वितरण करना बड़ी जटिल समस्या होगी। दूसरी बाधा – संपूर्ण mRNA प्रयोगशाला में तैयार किया जाने वाला है। इसलिए ये टीके बहुत महंगे होंगे। इन टीकों के दाम अनेक अविकसित अथवा निर्धन देशों की सामर्थ्य से बाहर होंगे।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने इस पर उपाय के रूप में एक भिन्न तकनीक का उपयोग किया है। उन्होंने प्रयोगशाला में mRNA – निर्माण किया परंतु उसे स्निग्ध (चिकने) पदार्थ की बूंद में न छोड़कर एडीनो वायरस नामक विषाणु में छोड़ा। जिस विषाणु के कारण चिंपाजी को सर्दी-ज़ुकाम होता है। इसके पश्चात् इस विषाणु को प्रयोगशाला में अलग – अलग प्रकार की कोशिकाओं में बढ़ाया अर्थात पनपाया। परिणाम यह हुआ कि वहां उसके अरबों खंड तैयार हुए। इस विषाणु की मजेदार और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसे मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट करने पर यह हमारी कोशिकाओं में प्रवेश करेगा,वहां स्पाइक प्रोटीन तैयार करेगा परंतु हमारे शरीर में वह स्वयं की वृद्धि नहीं करेगा। क्योंकि मनुष्य उसका खाद्य नहीं है। जिस प्रकार जेन्नर के काउ पॉक्स के विषाणु मनुष्य के शरीर में बढ़ नहीं सकते थे। उसी तरह चिंपाजी एडीनो वायरस हमारे शरीर में बढ़ता नहीं है बल्कि हमें आवश्यक प्रतिकार शक्ति दे जाता है। इस प्रणाली से बनाया जाने वाला टीका सस्ता होगा। उसका परिवहन आसानी से किया जा सकेगा और इस टीके का उत्पादन भी बड़ी तेज़ी से होगा। भारत में यह टीका सीरम इन्स्टीट्यूट द्वारा तैयार किया जा रहा है।

तीसरे प्रकार के टीके से तात्पर्य है- सीधे-सीधे स्पाइक प्रोटीन तैयार करना और शरीर में उसका टीकाकरण करना। इस प्रकार का टीकाकरण बहुत आसान लगता है परंतु कोविड के निर्मूलन के लिए अब तक ऐसा टीका बना नहीं है। अपेक्षा की जाती है कि आने वाले 3 से 6 महीनों में वह टीका बन जाएगा।

टीका बनाना कोविड के विरुद्ध चले रहे युद्ध का ही एक हिस्सा है; टीका बनाना युद्ध नहीं है। असली युद्ध टीके को उचित ढंग से प्रत्येक मनुष्य तक पहुंचाना है। वर्तमान परिस्थिति को देखें तो लगता है कि टीका उपलब्ध होने पर उसकी कालाबाज़ारी होना, उसके वितरण वाले स्थान पर दंगा- फ़साद जैसा माहौल बनना, प्राथमिकता के आधार पर वह टीका जिनको लगाया जाना चाहिए; उन्हें न लगाकर दूसरों को उस टीके का लाभ प्राप्त होना जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। इस समय प्रशासन इन सभी बातों का विचार कर इसकी योजना किस प्रकार बनाई जा सकती है, इसका ढांचा बनाता होगा। शायद आने वाले निकट समय में सरकार द्वारा टीकाकरण के संदर्भ में कोई ठोस कार्यक्रम चलाए जाने की घोषणा की जा सकती है।

यहां हमें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यह टीकाकरण निश्चित रूप से कवच है परंतु वह कोई मृत्युंजय मंत्र नहीं है। टीकाकरण एक तरह से ढाल की भांति होगा, लेकिन युद्ध में कोई ढाल टूट भी सकती है। दूसरी तथा और भी महत्त्वपूर्ण बात यह कि आज हमारे पास बहुत कम संख्या में ये ढालें उपलध होंगीं। मेरे अनुमान के अनुसार भारत में प्रारंभ में प्रथम एक-दो महीनों में केवल 5 से 7 करोड़ टीके उपलब्ध होंगे। इसके बाद उनकी संख्या बढ़ेगी। ऐसे समय आगे वाले मोर्चे पर युद्ध करने वाले योद्धाओं को ये ढालें देना अर्थात टीके लगाना अपेक्षित और आवश्यक है। इन योद्धाओं में चिकित्सा क्षेत्र के सेवक होंगें, पुलिसकर्मी होंगें, बैंकिंग अथवा यातायात/ परिवहन क्षेत्र के कर्मी होंगे, पचास वर्ष से अधिक आयुवाले, स्त्री-पुरुष होंगे और विभिन्न बीमारियों से प्रभावित बीमार व्यक्ति होंगें। इनको कोविड होने की और वह जानलेवा सिद्ध होने की संभावना सब से अधिक है।

इस टीका रूपी ढाल पर स्वाभाविक रूप से पहला अधिकार इन सभी लोगों का होगा। प्रशासन का पहला उद्देश्य लोगों को कोविड नहीं होना चाहिए, यह नहीं है, बल्कि, कोविड के कारण किसी की मृत्यु न हो यह होगा। हम सभी को शांति और अनुशासन से इस अभियान में प्रशासन को सहयोग देना चाहिए, तभी अन्य विषाणुओं की तरह कोविड रूपी यह विषाणु भी मानव की जीत के इतिहास का एक हिस्सा बनकर रह जाएगा। और ऐसा ही होगा।

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