अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर

वेब सीरीज़ ‘पाताल लोक’ में पालतू कुतिया का नाम ‘सावित्री’ रख दिया गया। अब अगर ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो ये एकतरफ़ा क्यों हैं? आज से 40 वर्ष बाद विश्व में मुस्लिम समुदाय का चित्रण करने की हिम्मत किसी में हैं? क्यों नहीं किसी प्रसिद्ध मस्ज़िद में चुंबन के दृश्य फिल्माए जाते हैं, जिसमें लड़का हिंदू हो और लड़की मुसलमान। क्या किसी वेब सीरीज़ में कोई अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर पालतू कुतिया का नाम किसी पूज्य मुस्लिम के नाम पर रख सकता है?

आजकल समाज में एक नई बहस शुरु हुई है और वह है मनोरंजन के नए साधनों, ओटीटी प्लेटफॉर्म्स, डिजीटल माध्यमों, यूट्यूब, फेसबुक इत्यादि पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों के नियमन के बारे में, उन पर दिखाई जाने वाली सामग्री में जिस तरह से हिंदू धर्म की आस्था पर चोट पहुंचायी जा रही है व खुलेपन के नए-नए कीर्तिमान स्थापित किए जा रहें हैं, उनको देखते हुए समाज ने मांग की है कि इस पर कोई अंकुश होना चाहिए। वर्तमान सरक़ार ने इस मांग को गंभीरता से लेते हुए सबसे पहले तो इस तरह के तमाम प्लेटफॉर्म्स को IT से निकाल कर IB मिनिस्ट्री के अंतर्गत लाने का काम किया है और किस तरह से इन प्लेटफॉर्म्स पर दिखाए जाने वाली सामग्री पर एक नीति बनाई जाए उस पर काम शुरु हुआ है। लेकिन सरक़ार के स़िर्फ मंत्रालय बदलने से ही एक वर्ग ने गाना शुरु कर दिया है कि केन्द्र सरक़ार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगा रही है। लेकिन, क्या वास्तव में ऐसा है? किसी ऐसे माध्यम का, जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता हो, उस पर कोई अंकुश होना चाहिए या नहीं इस पर चर्चा होना स्वाभाविक है। इससे किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कहां रोक लगायी जा रही है?

हमारे देश में मनोरंजन के साधनों का दुरुपयोग आज से नहीं हो रहा है। जब देश में सिनेमा मनोरंजन का एकमात्र माध्यम था, उस समय भी मनोरंजन के नाम पर हिंदू धर्म की आस्थाओं पर चोट पहुंचाई जाती थी। समाज में एक ऐसा नेरेटिव सेट किया जाता था, जिसमें हिंदू धर्म के प्रतीक चिह्नों का चित्रण इस तरह किया जाता था कि जिससे उनकी गलत छवि समाज में बने। साहूकार, पंडितों का चित्रण बलात्कारी, क्रूर पात्रों के रुप में किया जाता था। हमारे मंदिरों की छवि इस तरह की बनाई जाती थी, जिससे लोगों को लगे कि ये धर्म के नाम पर आम लोगों का शोषण करते हैं। हमारे लोकप्रिय नायक, हिंदू देवी-देवताओं को तो कोसते थे लेकिन दूसरे धर्म के प्रति उसकी आस्था देखते ही बनती थी। अमिताभ बच्चन की फ़िल्म ‘दीवार’ इसका जीवंत उदाहरण है, जिसमें नायक मंदिर की सीढ़ियां नहीं चढ़ता, लेकिन, 786 का बिल्ला अपने सीने से लगाए रहता है। उन्हीं की एक फिल्म है ‘अमर अकबर एंथोनी’, जिसमें निर्देशक मनमोहन देसाई ने शिरडी के साईं बाबा को इस तरह से चमत्कारी बताया कि आज वह मुसलमान ‘चांद मियां’ होने के बावजूद हिंदूओं की आस्था का पात्र बन गए हैं। मंदिरों में बलात्कार के दृश्यों का चित्राकंन करना, ये सब सामान्य बात रही है। ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं कि काल्पनिक कहानियों को इस तरह से फ़िल्माया गया जिससे वह हमारे इतिहास का हिस्सा लगने लगीं। सोहराब मोदी की फ़िल्म ‘पुकार’, जहांगीर के इंसाफ का एक काल्पनिक दस्तावेज़ है, के. आसिफ़ की फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ भी मोहब्बत की ऐसी कहानी कहती है, जिसका कोई साक्ष्य नहीं है। विकिपीडिया में लिखा है – ‘सबूत और स्रोतों की कमी के कारण, अनारकली की कहानी को व्यापक रूप से या तो झूठी या भारी अलंकृत होना स्वीकार कर लिया है। फिर भी, उसकी कहानी कई माध्यमों द्वारा पोषित है और कला, साहित्य व सिनेमा में उसे रूपांतरित किया गया है’। इस काल्पनिक कहानी को एक कालजयी प्रेम कथा बना दिया गया। ये सब हमारे देश में तब हो रहा था, जब देश में फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड बनाया हुआ था। क्या किसी की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर रोक लगी?

प्रश्न उठता है कि अब क्यों समाज इस तरह की मांग कर रहा है? वास्तव में अब पानी सर से ऊपर निकल गया है। हमेशा से समाज में अच्छे-बुरे सभी तरह के लोग थे, इसलिए सिनेमा के चरित्र समाज के अच्छे-बुरे चरित्रों के साथ स्वीकार्य हो जाते थे। लेकिन आजकल ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जिस तरह का कंटेंट दिखाया जा रहा है, जिस तरह से अश्लीलता का खुलेआम प्रदर्शन किया जा रहा है, जिस तरह से अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर बहुसंख्यक समाज के सम्मानित प्रतीकों को अश्लीलता की चाशनी में लपेट कर प्रस्तुत किया जा रहा है, उसको लेकर अब समाज ने भी तय किया है कि बस! बहुत हो गया। अब इस खेल को और नहीं चलने दिया जायेगा। इसका ताज़ा उदाहरण अक्षय कुमार की फिल्म ‘लक्ष्मी बम’ है, जिसको जनता के विरोध के बाद ‘लक्ष्मी’ के नाम से ओटीटी प्लेटफॉर्म पर प्रदर्शित किया गया। हालांकि अक्षय कुमार की राष्ट्रवादी छवि होने के बावजूद ये फ़िल्म जनता द्वारा नकार दी गई।

आप जनता की भावनाओं के साथ अब खिलवाड़ नहीं कर सकते, ये जनता ने बता दिया है। महेश भट्ट जैसे नामी निर्माता-निर्देशक की फिल्म सड़क-2 ने डिसलाइक़ पाने का रिकॉर्ड ही बना दिया। क्योंकि उनकी सुशांत सिंह राजपूत मर्डर केस में कथित संलिप्तता के कारण सामान्य दर्शक वर्ग उनका बहिष्कार कर रहा था।

एक बार हम नज़र डालते हैं, ओटीटी प्लेटफॉर्म पर जिस तरह की कहानियां दिखाई जा रही हैं, ‘गंदी बात’, ‘सविता भाभी’, ‘आश्रम’, ‘मिर्ज़ापुर’, ‘सेक्रेड गेम्स’, ‘ए सुटेबल बॉय’, ‘फोरशॉटस’ ‘वर्जिन भास्कर’ आदि कुछ प्रमुख वेब सीरीज़ हैं। 2018 में दिखाई गयी ‘लैला’ नाम की सीरीज़ में आज से 40 वर्ष आगे के समाज का चित्रण करते हुए एक काल्पनिक कट्टरवादी हिंदूवादी समाज का चित्रण किया गया है। विक्रम सेठ के उपन्यास ‘ए सुटेबल बॉय’ में एक हिंदू लड़की को एक मुसलमान लड़का, मध्य प्रदेश के महेश्वर घाट के शिव मंदिर में तीन बार चूमता है। इस बात को लेकर लोगों ने एतराज़ किया है। वेब सीरीज़ ‘पाताल लोक’ में पालतू कुतिया का नाम ‘सावित्री’ रख दिया गया। अब अगर ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है तो ये एकतरफ़ा क्यों हैं? आज से 40 वर्ष बाद विश्व में मुस्लिम समुदाय का चित्रण करने की हिम्मत किसी में हैं? क्यों नहीं किसी प्रसिद्ध मस्ज़िद में चुंबन के दृश्य फिल्माए जाते हैं, जिसमें लड़का हिंदू हो और लड़की मुसलमान। क्या किसी वेब सीरीज़ में कोई अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर पालतू कुतिया का नाम किसी पूज्य मुस्लिम के नाम पर रख सकता है? मुझे भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, पर मैं दूसरे का सम्मान करते हुए यहां नाम नहीं लिख रहा हूं।

सच तो ये है कि, तथाकथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग अलापने वाले उस समय ख़ामोश हो जाते हैं, जब दूसरा पक्ष किसी और की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार करता है। फ्रांस की ताज़ातरीन घटना जिसमें एक शिक्षक को पैग़म्बर मोहम्मद पर बनाये कार्टून का समर्थन करने मात्र पर ही मार डाला गया। उसके बाद विश्व भर में शांतिप्रिय समुदाय के लोगों ने अशांति फैलायी उसे सबने देखा। हमारे यहां के अभिव्यक्ति की आज़ादी के पैरोकारों के मुंह में दही जम गया था। एक भी आवाज़ इस अन्याय के खिलाफ़ नहीं उठी। इस तरह से बहुसंख्यक समाज की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाले उस दिन की कल्पना करें जब ये लोग भी शांतिप्रिय समुदाय की राह पर निकल पड़े तो उनका क्या हाल हो सकता है? अभी तक बहुसंख्यक समाज केवल शांतिपूर्ण विरोध करके ही आपको चेतावनी दे रहा है कि अब बस कीजिए बहुत हो गया। इसकी गंभीरता को समझिए।

सरक़ार ने इसको समझा है और अब वह कतई इस मूड में नहीं है कि, अभिव्यक्ति की एकतरफ़ा स्वतंत्रता की आड़ में कोई मनमानी करता रहे। सरक़ार ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है, लेकिन इसका कितना प्रभाव पड़ेगा, ये तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। फिल्मों में सेंसरशिप के बावजूद इस तरह के विषय दिखते ही रहते हैं। ‘पीके’ और ‘ओ, माइगॉड’ जैसी फ़िल्में इसका स्पष्ट उदाहरण हैं। यहां दर्शकों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। अगर वे स्वयं ये निर्णय ले लें कि वे इस तरह के विषयों पर आधारित वेब सीरीज़ों का बहिष्कार करेंगें, तो शायद बाज़ार की भाषा समझने वाले इन तथाकथित क्रिएटिव जमात के होश ठिकाने आयेंगे। नेटफ्लिक्स, ज़ी-5, -ङढ बालाजी, उल्लू, अमेजॉन, चद प्लेयर, हॉटस्टार, वूट आदि प्लेटफॉर्म पर जहां इस तरह का कंटेंट दिखाया जाता है, उस के बहिष्कार से ये लोग भी इस तरह का कंटेंट अपने यहां दिखाने से डरेंगें। इस लड़ाई को जनता और सरक़ार ही मिलकर लड़ सकते हैं और ये सही समय है मनोरंजन के बाज़ार की गंदगी को साफ़ करने का। सरक़ार क़ानून बना कर और जनता बहिष्कार करके इस गंदगी को रोक सकती है।

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