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द्वितीय शीत युद्ध का शिकारउक्रेन

द्वितीय शीत युद्ध का शिकारउक्रेन

by सरोज त्रिपाठी
in अप्रैल -२०१४, राजनीति
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काले सागर के तट पर स्थित 4.6 करोड़ की आबादी वाला देश उक्रेन अमेरिका और रूस के बीच खींचतान में विभाजन के कगार पर है। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि वह दो भागों में बंट चुका है तथा निकट भविष्य में उसके और टुकड़े होने की आशंका है। इस साल 22 फरवरी को वहां के लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित राष्ट्रपति 63 वर्षीय विक्टर यानुकोविच को भाग कर रूस में शरण लेनी पड़ी। इसके बाद उक्रेन के यूरोपीय संघ (ईयू) में शामिल होने के समर्थकों ने देश की संसद के अध्यक्ष अलेक्जेंडर टुवर्चीनोव को देश का कार्यकारी राष्ट्रपति तथा अर्सेनी यात्सेनयक को प्रधानमंत्री बनाया। दूसरी ओर उक्रेन के प्रायद्वीप क्रीमिया पर रूस समर्थक मिलीशिया काबिज है। क्रीमिया की संसद ने रूस में विलय का प्रस्ताव पारित कर दिया है। सभी महत्वपूर्ण ठिकानों पर रूसी सैनिकों की तैनाती हो चुकी है।

एक तरफ रूस ने उक्रेन में यानुकोविच को अपदस्थ किए जाने की घटना को गैरकानूनी करार देते हुए दो टूक शब्दों में चेतावनी दी है कि वह उक्रेन में शांति बहाली के लिए अपनी क्षमताओं का इस्तेमाल करेगा। दूसरी तरफ अमेरिका और उसके सहयोगी यूरोपीय संघ ने कड़े शब्दों में कहा है कि रूस की कार्रवाई उक्रेन की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का उल्लंघन है। उन्होंने मांग की है कि तत्काल रूस क्रीमिया से अपनी सेना वापस बुलाए। इस तरह अमेरिका और रूस के बीच अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने की प्रतिस्पर्धा में उक्रेन को विभाजन की त्रासदी झेलनी पड़ रही है।

करीब ढाई दशक पहले तक सोवियत संघ का दक्षिणी पश्चिमी हिस्सा रहा उक्रेन फिलहाल आर्थिक तौर पर भले ही कमजोर हो चुका हो, लेकिन भौगोलिक तौर पर आज भी उसकी अहमियत बरकरार है। यूरोप की गैस जरूरतों का 25 प्रतिशत रूस पूरी करता है और इसका आधा हिस्सा उक्रेन से जाने वाली पाइपलाइनों से गुजरता है। पूर्व सोवियत संघ का दूसरा सबसे धनी गणतंत्र रहा उक्रेन 1991 में एक स्वतंत्र देश के तौर पर दुनिया के नक्शे पर उभरा। इसकी 20 प्रतिशत आबादी रूसी है। फिलहाल उक्रेन का पश्चिमी हिस्सा यूरोपीय संघ के साथ नजदीकी रिश्ते की पैरवी कर रहा है तो पूर्व और दक्षिणी हिस्सा सहयोग के लिए रूस की ओर देखता है।

उक्रेन के ताजा संकट की शुरुआत पिछले साल नवम्बर में हुई। यूरोपीय यूनियन उक्रेन को अपने बाहुपाश में लेना चाहता था। अमेरिका भी यही चाहता था क्योंकि यूरोपीय यूनियन की जकड़ में आने के बाद उक्रेन को 24 देशों वाले सैन्य संगठन नाटो में खींचना आसान हो जाता। उक्रेन का नाटो में जाना रूस के सीने पर खंजर से कम न होता, इसलीए मॉस्को ने उसे 15 अबर डॉलर सहायता का प्रस्ताव रख दिया। उक्रेन के राष्ट्रपति यानुकोविच ने भी रूस की ओर अपना झुकाव जाहिर किया। तभी से उक्रेन के यूरोपीय यूनियन में शामिल होने के समर्थकों ने राजधानी कीव के इंडिपेंडेंस स्क्वेअर में विरोध प्रदर्शनों और धरनों का सिलसिला शुरू कर दिया। प्रदर्शनकारियों की ताकत दिन-ब-दिन बढ़ने लगी। यानुकोविच सरकार ने प्रदर्शनकारियों को दबाने के लिए दमन की नीति अपनायी। सरकार और प्रदर्शनकारियों के बीच संघर्ष में लगभग 100 लोग मारे गए तथा कई घायल हो गए।

21 फरवरी 2014 को यूरोपीय यूनियन के प्रमुख सदस्य देशों जर्मनी, फ्रांस और पोलैंड की निगरानी में विपक्ष और राष्ट्रपति यानुकोविच में एक समझौता हुआ। इस समझौते के तहत इसी साल मार्च से दिसम्बर के बीच राष्ट्रपति और सांसद के चुनाव होने थे। यानुकोविच ने विपक्ष की यह मांग भी मान ली थी कि वे अपने कई अधिकार संसद को दे देंगे और विपक्ष के साथ नई सरकार का गठन किया जाएगा। कुल मिलाकर यह समझौता विपक्ष के ही हक में था। पर विपक्ष के उग्रवादी खेमे ने इस समझौते को ठुकरा दिया। उसने राष्ट्रपति यानुकोविच के तत्काल इस्तीफे, संसद के विघटन, जेल में बंद लोंगो की फौरन रिहाई और यानुकोविच की पार्टी पर प्रतिबंध की मांग रख दी। अंतत: 22 फरवरी को यानुकोविच को अपनी जान बचाकर देश से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा।

यानुकोविच के देश से पलायन के बाद यूरोपीय संघ के समर्थक सत्ता पर काबिज हो गए। संसद ने यानुकोविच के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव पारित कर दिया। यानुकोविच के विरुद्ध प्रदर्शनकारियों के जनसंहार के आरोप में गिरफ्तारी का वारंट भी जारी कर दिया गया। इस तरह उक्रेन में ‘नारंगी क्रांति’ का दूसरा चरण देश पर अमेरिकी वर्चस्व कायम होने के साथ पूरा हुआ।

क्रीमिया यह काले सागर से लगा उक्रेन का प्रायद्वीप है। 26 हजार वर्ग मील वाले क्रीमिया की 30 लाख की आबादी में लगभग 70 प्रतिशत रूसी हैं। क्रीमिया का सेवस्तोपोल रूस के काले सागरीय जहाजी बेड़े का मुख्यालय है। रूस को 2042 तक का इसका पट्टा मिला हुआ है। फिलहाल कानूनी तौर पर क्रीमिया उक्रेन के भीतर एक स्वायत्तशासी गणतंत्र है। इसकी अपनी निर्वाचित संसद तथा प्रधानमंत्री है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि रूस की रानी कैथरीन महान ने 1783 में इसे तातारों से छीना था। 1945 में सोवियत रूस के शासक निकिता ख्रुश्चेव ने इसे उक्रेन को दे दिया था।

उक्रेन में 2005 से 2010 तक का वक्त ‘नारंगी क्रांति’ का पहला दौर था। उस समय भी यही यानुकोविच देश के राष्ट्रपति थे। 2004 में चुनाव में उनकी जीत के बाद उक्रेन मे बवाल मचा था। उन पर चुनाव में धांधली और भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। भारी विरोध के बीच सुप्रीम कोर्ट ने नए मतदान का आदेश दिया था। इसमें 52 प्रतिशत वोट पाकर युश्चेंको विजयी हुए। युश्चेंको के समर्थकों ने यानुकोविच के विरोध में नारंगी रंग के झंडे फहराए थे इसलिए इसे ‘नारंगी क्रांति’ नाम मिला था।
2010 के चुनाव में यानुकोविच फिर बाकायदा विजयी हुए थे। उनके निर्वाचन को विपक्षियों समेत दुनिया भर ने मान्यता दी थी। पर धीरे-धीरे देश में स्थितियां उनके खिलाफ होने लगीं। उक्रेन वासियों के मन में यह आम धारणा बनने लगी कि 2010 का राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद यानुकोविच अपने कुनबे के पूंजी विस्तार में लग गए। नये उद्यमियों का सरकार पर वर्चस्व कायम हो गया। इनमें से अधिकांश यानुकोविच के बड़े बेटे अलेक्सांद्र के मित्र थे। इनमें से कई मंत्री भी बन गए। इस वर्ग को ‘यानुकोविच कुनबा’ कहा जाने लगा। उन पर सत्ता के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे।

पूर्वी उक्रेन के निवासी यानुकोविच ने 2010 का चुनाव जीतने के बाद पहले मध्य मार्ग अपनाने की कोशिश की थी। उन्होंने रूस और यूरोपीय संघ दोनों से अच्छे संबंध स्थापित किए। पर बाद के दिनों में उन्होंने रूस के प्रति अपना झुकाव स्पष्ट कर दिया। 21 नवम्बर 2013 को उन्होंने यूरोपीय यूनियन से संधि के प्रस्ताव को खारिज कर दिया। इसके साथ ही देश में ’नारंगी क्रांति’ के दूसरे दौर की शुरुआत हो गई। प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतर आए। सरकार उनका दमन करने में जुट गयी। इस बीच 17 दिसम्बर 2013 को रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने आर्थिक संकट से जूझ रहे उक्रेन को 15 अरब डॉलर सहायता राशि तथा सस्ते में गैस आपूर्ति का प्रस्ताव दिया। प्रदर्शनकारियों ने माना कि इस प्रस्ताव से रूस ने यानुकोविच को खरीद लिया है। इससे देश में विद्रोह की ज्वाला और तेजी से धधक उठी। इसकी अंतिम परिणति 22 फरवरी को यानुकोविच के देश से अपनी जान बचाकर भाग जाने में हुई।

अब रूस में शरण लिए यानुकोविच 22 फरवरी 2014 की घटना को अमेरिकी पिट्ठू फासीवादी ताकतों का षड्यंत्र करार दे रहे हैं। उनका दावा है कि वे आज भी उक्रेन के विधिवत तरीके से निर्वाचित राष्ट्रपति हैं। वे देश के भविष्य के लिए संघर्ष करते रहने की अपनी प्रतिबद्धता घोषित कर रहे हैं। रूस यानुकोविच के दावे को सही ठहरा रहा है। रूस के मुताबिक उक्रेन में रूसी लोगों तथा रूस के हितों की रक्षा के लिए उसे सैन्य कार्रवाई करने का वैधानिक अधिकार है। दूसरी तरफ अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों ने रूस के खिलाफ कई प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी है। वे रूस पर ईरान की तरह का आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी दे रहे हैं। रूस को समूह-8 (जी-8) से भी बाहर निकालने की मांग की जोर पकड़ती जा रही है। अमेरिका ने काला सागर में अपनी सैन्य उपस्थिति और मजबूत कर दी है। अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा रूस के राष्ट्रपति पुतिन से कह रहे हैं कि अगर रूस को उक्रेन में बसे रूसियों और अल्पसंख्यकों की चिंता है तो उनकी समस्याओं का समाधान उक्रेन की मौजूदा सरकार के साथ बातचीत करके निकालना चाहिए। पर रूस तो उक्रेन के नए शासकों को उग्रवादियों की कठपुतली करार देते हुए उसे मान्यता देने को ही राजी नहीं है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चले शीत युद्ध का खामियाजा दुनिया के कई मुल्कों को भुगतना पड़ा था। अंतत: इस शीत युद्ध का खात्मा सोवियत संघ के विघटन के साथ हुआ। ऐसी आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि उक्रेन के संकट के साथ द्वितीय शीत युद्ध की शुरुआत हो सकती है। निश्चय ही इसका खामियाजा भी दुनिया के कई मुल्कों को भुगतना पड़ेगा।

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