बल, बुद्धि और विद्या के सागर श्री हनुमान

भारतीय लोक जीवन तथा मनीषा में श्री हनुमान जी ही ऐसे देवता हैं जो बल, बुद्धि और विद्या के आगार हैं। जो भक्तों का पाप, ताप और संताप नष्ट करके उन्हें संकट और दु:खों से मुक्त तो करते ही हैं साथ ही, व्यक्ति में आत्मविश्वास और निष्ठा जगाते हैं। बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि जानकी जी ने जब प्रसन्न होकर हनुमान जी को अमूल्य मणियों का हार उपहार स्वरूप प्रदान किया उस समय श्री राम जी ने इसी प्रकार के भाव श्री हनुमान जी के प्रति व्यक्त किए थे, वाल्मिकी रामायण में उसका उल्लेख है-

तेजो धृतिर्यशो दाक्ष्यं सामर्थ्यं विनयो नय:।
पौरुषं विक्रमो बुद्धिर्यस्मिन्नेतानि नित्यदा॥

तेज, धैर्य, यश, दक्षता, शक्ति, विनय, नीति, पुरुषार्थ, पराक्रम और बुद्धि ये सभी गुण श्री हनुमान में नित्य स्थित हैं।
वाल्मिकी रामायण में अनेक स्थानों पर आदि कवि ने श्री हनुमानजी के इन गुणों का वर्णन किया है।

यस्य त्वेतानि चत्वारि वानरेन्द्र यथा तव।
धृतिर्द्वष्टिर्मतिर्दाक्ष्यं स कर्मसु न सीदति॥

हे वानरेन्द्र! जिस पुरुष में तुम्हारे समान धैर्य, सूझबूझ, बुद्धि और कुशलता- ये चारों गुण विद्यमान हैं, वह अपने कर्म में कभी भी असफल नहीं हो सकता, वह हमेशा विजयी होता है। इस प्रकार श्री हनुमानजी का स्वरूप धीरता, गम्भीरता, सुशीलता, वीरता, श्रद्धा, नम्रता, निराभिमानिता का समुच्चय है, जो सभी का मंगल करता है और अमंगल का नाश करता है। गोस्वामी तुलसी ने विनयपत्रिका में श्री हनुमानजी के इसी स्वरूप का वर्णन किया है।

मंगलमूरति मारुति नंदन-सकल अमंगल मूल निकंदन

मारुतिनंदन श्री हनुमान मंगल की मूर्ति है, वे सभी प्रकार के अमंगल का नाश करते हैं और अभय प्रदान करते हैं। तुलसी आगे कहते हैं-

पवन तनय संतन हितकारी, हृदय बिराजत अवधबिहारी

पवन पुत्र हनुमान संतों, सज्जनों की सदैव रक्षा करते हैं और उनके हृदय में शील, शक्ति, सौंदर्य के प्रतीक भगवान श्रीराम, जानकी एवं लखनलाल के साथ सदा सर्वदा निवास करते हैं। यही कारण है कि आज के युग में श्री हनुमान जी भारत ही नहीं, विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। भारत के हर प्रांत, नगर, गांव, कस्बे में आपको भगवान श्री हनुमानजी का मंदिर मिल जाएगा, जहां बड़ी संख्या में आबाल, वृद्ध नर नारी, युवा, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी उनका नित्य दर्शन पूजन कर अपना मनोरथ सिद्ध करते हैं। श्री हनुमान चालीसा में कहा गया कि,

संकट कटै मिटे सब पीरा
जो सुमिरे हनुमत बल बीरा

जो भी व्यक्ति निष्ठापूर्वक श्री हनुमानजी का स्तवन और मनन करता है उसके सभी प्रकार के संकट तथा पीड़ा नष्ट हो जाते हैं और व्यक्ति को परम सुख और संतोष की प्राप्ति होती है। यही कारण है कि आज संसार में जितने मंदिर, देवालय श्री हनुमानजी के हैं, उतने तो संभवत: श्री हनुमान जी के आराध्य भगवान श्री रामजी के भी नहीं हैं।

श्री हनुमानजी का अलौकिक एवं दिव्य व्यक्तित्व जहां बल, बुद्धि ज्ञान और विद्या से आलोकित हैं, वहीं वे सेवा और समर्पण के अद्भुत उदाहरण हैं। श्रद्धा तथा भक्ति पूर्ण आचरण के वे सर्वोच्च आदर्श हैं। श्री हनुमान जी का सेवा धर्म उनके चरित्र का केन्द्रीय भाव है। तभी तो तुलसी ने मानस में लिखा-

आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवा धरमु कठिन जगु जाना
सिर भर जाउं उचित अस मोरा। सब ते सेवक धरमु कठोरा।

आज की परिस्थिति में, जबकि मानव भौतिक समृद्धि के शिखर पर है। वैज्ञानिक प्रगति और उपलब्धियों ने उसे सुख के सभी प्रकार के साधन तो उपलब्ध करा दिए हैं, वह दिन प्रतिदिन भौतिक दृष्टि से तो आगे बढ़ता जा रहा है। किन्तु पारमार्थिक सामाजिक और चरित्रिक दृष्टि से उसका निरंतर अवमूल्यन हो जा रहा है। सेवा, संयम तथा संवेदना के संस्कार आज विलुप्त हो रहे हैं। ऐसे समय के अस्त व्यस्त वातावरण में, देश की युवा पीढ़ी में नव चैतन्य जागृत करने के लिए श्री हनुमंत चरित्र का अनुशीलन ही एक मात्र रास्ता है, जो समाज और देश को सही दिशा दे सकता है, क्योंकि यह हनुमान का चरित ही है जो व्यक्ति को आदर्श पर चलने की प्रेरणा देता है, बुद्धि को अज्ञान और जड़ता से, कर्म को आलस्य और प्रमाद से तथा हृदय को भय, कठोरता तथा स्वार्थ से रहित करके उसे आत्मविश्वासी, निष्ठावान तथा सद्गुणों से युक्त करता है।

हनुमान जी का जन्म

जहां तक श्री हनुमान जी के जन्म का प्रश्न है, इस संबंध में पुराणों में अनेक कथाओं का उल्लेख मिलता है। श्री हनुमान जी परम पुण्यमयी माता अंजनी के सुत हैं किन्तु वे शंकर सुवन, वायुपुत्र और केसरीनन्दन कहे जाते हैं। अर्थात शिव, वायु और केसरी उनके पिता हैं। पुराणों में जिन कथाओं का उल्लेख मिलता है, वे सभी कल्पभेद से सत्य भी मानी गई हैं।

बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि त्रेता युग में वानरराज केसरी का विवाह कुंजर पुत्री- अंजनी से हुआ था। बहुत दिनों तक उन्हें संतान की प्राप्ति नहीं हुई, तब अंजनी माता ने वायुदेवता का स्मरण किया और पवनदेवता के शुभाशीष से अंजनी माता गर्भवती हुई और उनके गर्भ से भगवान शिव ने ही एकादश रुद्र-श्री हनुमान जी के रूप में जन्म लिया।

एक अन्य कथा के अनुसार एक समय परम लावण्यमयी मृगनयनी माता अंजनी ने श्रृंगार कर पीत परिधान धारण किया था। वे पर्वत शिखर पर खड़ी प्रकृति की मनोरम छटा का आनंद ले रही थी। इसी समय उनके मन में पुत्र कामना ने जन्म लिया। उन्होंने सोचा कि कितना अच्छा होता यदि मेरे एक अत्यंत बलवान, ज्ञानवान, सुयोग्य पुत्र होता। ऐसा चिंतन करते ही, वे पुत्र की कामना के चिंतन में ध्यान मग्न हो गई। सहसा वायु का तेज झोंका आया और वायु के उस वेग से मां अंजनी का आंचल खिसक गया। उन्होंने अनुभव किया कि जैसे कोई उनको स्पर्श कर रहा हो, मां अंजनी ने इसे समझा कि कोई उनके पातिव्रत्य धर्म को नष्ट करना चाह रहा है। अत: वे उस अदृश्य को शाप देने के लिए जैसे ही उद्यत हुई, उसी समय पवन देव प्रकट हो गए और उन्होंने अंजनी मां को शांत करते हुए कहा, ‘यशिस्वनि! मैं तुम्हारे पातिव्रत धर्म को नष्ट करने नहीं, बल्कि तुम्हें वरदान देने के लिए प्रस्तुत हुआ हूं। मैंने अव्यक्त रुप से तुम्हाला आलिंगन करके अपने मानसिक संकल्प द्वारा बल, बुद्धि और पराक्रम से संपन्न एक अत्यंत तेजस्वी और मनस्वी पुत्र प्रदान किया है। तुम्हारा यह पुत्र महान धैर्यवान, महातेजस्वी, महाबली पराक्रमी तथा मेरे समान ही गतिमान होगा।’ ऐसा कह कर वे अदृश्य हो गए। माता अंजनी ने प्रणाम करके पवन देव के आशीष को शिरोधार्य किया। अंजनी गर्भवती हुई और चैत्र शुक्ल पूर्णिमा, मंगलवार के दिन अंजनी के गर्भ से श्री हनुमानजी ने लोक कल्याणार्थ जन्म लिया। जन्म के समय नवजात शिशु का रूप अत्यंत सुंदर तथा मनोहारी था। अपने पुत्र के सुंदर रूप का दर्शन करके वानराज केसरी तथा माता अंजनी के हर्ष का पारावार न था।

तथापि, श्री हनुमानजी की जन्मतिथि के संबंध में विद्वानों के अनेक विचार हैं। वायु पुराण के अनुसार श्री हनुमान जी का जन्म आश्विन (कार्तिक-चन्द्रमास) के कृष्णपक्ष-चतुर्दशी को स्वाति नक्षत्र, मेष लग्न में माता अंजनी के गर्भ से हुआ था और स्वयं भगवान शंकर अवतरित हुए थे।

आश्विन स्यासिते पक्षे स्वात्यां भौमे च मारुति:।
मेष लग्नेऽजनागर्भात् स्वयं जातो हर: शिव॥

किन्तु सर्वाधिक प्रचलित जन्मतिथि चैत्र मास की पूर्णिमा को माना गया है। आनंद रामायण के अनुसार श्री हनुमानजी का जन्म चैत्र मास की पूर्णिमा-मंगलवार को हुआ था।

महाचैत्री पुर्णिमायां समुत्पन्नोऽअंजनी सुत:।
वदन्ति कल्पभेदेन बुधा इत्यादि केचन॥

अर्थात चैत्र मास की पूर्णिमा तिथि को श्री हनुमान जी ने पृथ्वी पर समस्त संसार को सुख प्रदान करने के लिए जन्म लिया।

अंजनी गर्भसम्भूतं कपीन्द्रसचिवोत्तम।
रामप्रिय नमस्तुभ्यं हनुमन रक्ष सर्वदा॥

माता अंजनी के पुत्र होने के कारण विश्व में श्री हनुमानजी अंजनीपुत्र, आंजनेय, अंजनीनंदन आदि नामों से विख्यात हुए।

हनुमान जी की शिक्षा

श्री हनुमान जी की प्रारम्भिक शिक्षा मलय पर्वत पर अंजनी के निवास स्थान पर ही हुई, किन्तु विधिवत् शिक्षा हनुमान जी ने भगवान सूर्यनारायण से प्राप्त की। भगवान भास्कर के सम्मुख बैठकर उनकी ही गति से उल्टे चलते हुए हनुमान ने सूर्य से शिक्षा प्राप्त की और कुछ ही समय में पवन पुत्र ने सूत्र, वृत्ति, वार्त्तिक, व्याकरण, महाभाष्य और संग्रह आदि का पूर्णतया अध्ययन कर लिया और वे बृहस्पति के समान ज्ञानवान बने।

श्री हनुमान जी के बारे में कहा जाता है कि वे न केवल विद्यावान थे, बल्कि संगीत शास्त्र के भी आचार्य थे। संगीत पारिजात में श्री हनुमान जी को संगीत शास्त्र का प्रमुख प्रवर्तक माना गया है

कर्त्ता संगीत शास्त्रस्य हनुमानंश्च महाकपि।
शार्दूल काहलावेतो संगीत ग्रन्थ कारिणौ॥

अर्थात शार्दूल, काहलात व श्री हनुमान जी संगीत शास्त्र के निर्माता आचार्य हैं।
इस प्रकार श्री हनुमान जी ‘बुद्धिमतां वरिष्ठम्’ तथा ‘ज्ञानिनामग्र गण्यं’ के रूप में सर्वत्र संसार में पूजित हुए।
वाल्मिकी रामायण के अनुसार श्री हनुमान जी के ज्ञान का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि जब भगवान राम की श्री हनुमान से पहली मुलाकात हुई, तो हनुमान जी ने जिस प्रकार से राम से शुद्ध संस्कृत से बात की उससे राम जी भी आश्चर्यचकित हो गए और उन्होंने लक्ष्मण से कहा-

नानृग्वेद विनीतस्य ना यजुर्वेद धारिणः।
ना सामवेद विदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥
नूनः व्याकरणं कृत्स्नमनेन बहुधाश्रुतम्।
बहु व्याहरतानेन न किंचितदप शब्दितम्॥

ेअर्थात- जिसे ऋगवेद की शिक्षा नहीं मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नहीं किया तथा जो सामवेद का विद्वान नहीं है, वह इस प्रकार सुंदर भाव से वार्तालाप नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होंने समूचे व्याकरण का कई बार स्वाध्याय किया है। इतनी देर बातचीत होने के बाद भी हनुमान जी के मुंह से एक भी अशुद्ध शब्द नहीं निकला।

श्री हनुमान जी के बुद्धि चातुर्य का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस हनुमानजी ने रामजी से शुद्ध संस्कृत में बात की, उन्हीं श्री हनुमान जी ने अशोक वाटिका में सीता माता से लोकभाषा अवधी में वार्तालाप किया था ताकि सीता उन्हें रावण का परिकर न समझ लें, अत: उन्होंने समय, परिस्थिति आदि को ध्यान में सम्भाषण करके अपने बुद्धि चातुर्य का परिचय दिया। चारों वेदों के ज्ञान, कर्म और उपासना के तीनों धर्म मार्गों के अध्येता श्री हनुमान जितने विद्वान व ज्ञानवान हैं, उतने ही वे आचरण संपन्न भी हैं। उनकी विद्वता उनके सम्पूर्ण आचरण में उतरी हुई है। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। वे कोरे विद्वान नहीं हैं बल्कि उनका ज्ञान उनके आचरण में चरितार्थ होता है।

श्री हनुमान जी बल और बुद्धि के अदभुत समुच्चय हैं और वे हमेशा मंगल करते हैं, अमंगल, अशुभ, अकल्याणकारी तत्वों का विनाश करते हैं। वे बाह्य और आंतरिक शक्ति के अद्वितीय प्रतीक हैं, जिन्हें कभी भी अहंकार स्पर्श नहीं करता और वे सदैव निस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं और यही भाव आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

आज जब चारों ओर स्वार्थपरता दिखाई पड़ रही है, व्यक्ति केवल अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए तत्पर दिखता है, सद्भाव, सहयोग और सहिष्णुता की परिभाषाएं बदल रही हैं, तब श्री हनुमान जी का तेजोमय, निस्वार्थ और मंगलकारी रूप हमें राह दिखाता है कि ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’। अत: श्री हनुमान जी का प्रत्येक आचरण राम काज के लिए, समाज के कार्य के लिए, राष्ट्र के कार्य के लिए समर्पित है।

अत: आइए श्री हनुमान जयंती के पवित्र अवसर पर हम सब अपने चरित्र में प्रेम, भक्ति, सेवा तथा समर्पण के उदात्त तत्वों को आत्मसात करने का संकल्प लें। गर्व, अभिमान और अहंकार से भरा आज का मनुष्य यदि सेवा, सहिष्णुता और सद्भाव की भावना को नहीं विकसित करेगा तो वह स्वयं तो नष्ट होगा ही, मानवता को भी नष्ट करेगा। इसलिए आज श्री हनुमान ही हमारे एक मात्र अवलंब है जो हमें सभी प्रकार के संकट, व्याधि से मुक्त दिला सकते हैं।

पवन तनय संकट हरण मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुरभूप॥

श्री हनुमान सप्तक
जय जय जय हनुमत् बलशाली,
प्रणव पवनसुत इच्छाधारी।
प्रमुदित मुख और पावन लोचन,
जय-जय-जय हे! संकट मोचन॥

अंजनी पुत्र केसरी नंदन,
प्रतिपल करत राम के वंदन।
मस्तक पर भक्ति का चंदन,
सुख सागर भव दु:ख के भंजन॥

शिव के अंश रुद्र अवतारी,
राम काज वश इच्छाधारी।
मारुत वेग द्रोण गिरी धारी,
दुष्ट दलन संतन हितकारी॥

चतुर, सुमंगल, अतिबल नायक
अष्ट, सिद्धि नव निधि के दायक।
रामकथा के तुम नित गायक,
तुमरे दास कृपा के लायक॥

अभय, अजेय, अवध्य, वज्रांगी,
बल, बुद्धि, ध्यान के संगी।
शस्त्र, शास्त्र, व्याकरण के ज्ञाता।
मृदुभाषी, विवेक, विख्याता॥

जब सुर नर पर संकट आवै,
और भक्ति भाव से जो कोई घ्यावे।
हर विपदा से तुम ही उबारो,
आपत् में तुम रखवारो॥

तुम्हरे हृदय राम-वैदेही,
सिया-राम के परम सनेही।
मेरो मानव जनम् संवारो
पातक चित निर्मल कर डारौ॥

मूढ़ मगज मोहि जान के, कृपा करो हनुमान
संकट से रक्षा करो, सबकी कृपा निधान॥
– प्रीति त्रिवेदी, वाराणसी
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