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आज फिर आपकी  कमी सी है…

आज फिर आपकी कमी सी है…

by pallavi anwekar
in फरवरी-२०२१, विशेष, व्यक्तित्व, साहित्य
2

जगजीत सिंह को सुनना एक पूरी जिंदगी को जीने जैसा है। जिस तरह वो इश्क करने वालों को लुभाते थे, वैसे ही अपनी जिंदगी की ढ़लान पर खड़े लोगों को उनका बचपन भी याद दिलाते थे। अपने ‘लाइव’ कार्यक्रमों में जब वे ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी सुनाते’ तो कई लोगों की आंखों के किनारे बरबस ही भीग जाते थे।

गुनगुनाता था तो खुलते हुए बादल की तरह
मुस्कुराहट में कई तरबों की झनकार छुपी थी
गली कासिम से चली एक गजल की झनकार था वो
एक आवाज की बौछार था वो

मशहूर शायर गुलजार जिन्हेंअपनी कविता की ये चंद पंक्तियां अता करते हैं, उन्होंने अपनी भारी आवाज के मखमली जादू से कई लोगों के दिलों पर, कई सालों तक राज किया है। भारत में गजल गायकी को उर्दू के लिफाफे से निकालने वाले, पंजाबी टप्पों को आम लोगों तक पहुंचाने वाले और अपनी हर प्रस्तुति पर लोगों की वाहवाही लूटने वाले जगजीत सिंह आज भी लोगों के जेहन में वैसे ही जिंदा हैं, जैसे दस साल पहले हुआ करते थे। आज भी उनकी गाई हुई गजलों को सुनकर ऐसा नहीं लगता कि उन्हें गुजरे एक दशक बीत चुका है। जगजीत सिंह जाते-जाते खुद ही कह गए थे कि- ‘तुमसे बिछडकर तुमको भुलाना, मुमकिन है आसान नहीं।’

सचमुच आज भी जगजीत सिंह को भुलाना आसान नहीं है। अचरज की ही बात होगी अगर उनकी गाई गजलों का कोई मुरीद नहीं हुआ हो। जवानी में कदम रखने वालों से लेकर जिंदगी फलसफा पढ़ चुके सभी को जगजीत सिंह ने अपनी गजल से कोई न कोई तोहफे जरूर दिए। जगजीत सिंह ने उस जमाने में गाना शुरू किया था, जब कैसेट और टेप रिकॉर्डर हुआ करते थे। घर के किसी कोने में या छत पर ले जाकर जब कोई अकेले में हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद

अपनी रात की छत पे कितना तनहा होगा चांद
सुनता था, तो दोस्त यार फौरान समझ जाते थे कि जनाब इश्क में डूबे जा रहे हैं। फिर शुरू होता था सिलसिला उसके मेहबूब के बारे में पूछने का। इश्क करने वाले लोग अमूमन अपने प्यार को छिपाए रखना ही वाजिब समझते हैं इसलिए उनके लिए जगजीत सिंह कि गजल काम आती है कि

कल चौदवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा।
कुछ ने कहा ये चांद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा।
हम भी वहीं मौजूद थे, हम से भी सब पूछा किए,
हम हंस दिए, हम चुप रहे, मंज़ूर था परदा तेरा।

गजल और इश्क का नाता पहली बारिश के बाद मिट्टी से उठनेवाली सौंधी खुशबू की तरह होता है। खुशबू उठते ही पता चल जाता है कि बारिश हुई है। इश्क में डूबा हुआ बंदा जगजीत सिंह की गजलों में अपने आप ही डूब जाता है और जंगलों, दरख्तों से होते हुए मयखाने तक पहुंच जाता है और गाता है-

तिश्ना नज़रें मिली शोख़ नज़रों से जब
मय बरसने लगी जाम भरने लगे
साक़िया आज तेरी ज़रूरत नहीं
बिन पिये बिन पिलाये ख़ुमार आ गया

जगजीत सिंह को सुनना एक पूरी जिंदगी को जीने जैसा है। जिस तरह वो इश्क करने वालों को लुभाते थे, वैसे ही अपनी जिंदगी की ढ़लान पर खडे लोगों को उनका बचपन भी याद दिलाते थे। अपने ‘लाइव’ कार्यक्रमों में जब वे ‘वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी सुनाते’ तो कई लोगों की आंखों के किनारे बरबस ही भीग जाते थे। जगजीत सिंह का गजल गाने तरीका भी इतना शानदार हुआ करता था कि लोग अपने आप ही उनसे खुद को जोड लेते थे। उनकी एक बहुत मशहूर गजल है-

सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफताब आहिस्ता आहिस्ता

इस गजल को सुनाने की फरमाइश उनसे लगभग हर लाइव कॉन्सर्ट में की जाती थी। जगजीत सिंह हर बार इस गजल को अलग ढ़ंग से गाते और हर बार उनके सामने बैठे श्रोता मंत्रमुग्ध होते थे। सुनने वाले इस गजल में इतना डूब जाते थे कि जैसे ही जगजीत सिंह मिसरे के आखरी शब्द ‘आहिस्ता आहिस्ता’ तक पहुंचकर जानबूझकर चुप हो जाते तो सुनने वाले ही उसे पूरा कर देते थे और सारा हॉल ‘आहिस्ता आहिस्ता’ की आवाज से गूंज उठता था।

जगजीत जितने अच्छे गायक थे, उतने ही अच्छे संगीतकार भी थे। उन्होंने गजल को अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत करने के लिए विभिन्न रागों तथा वाद्ययंत्रों का बखूबी इस्तेमाल किया। वे खुद सुर मिलाने के लिए अधिकतर हारमोनियम पकडते थे परंतु वायलिन, तबला, सेक्सोफोन और बाद में आए कई इलेक्ट्रिक वाद्यों का भी जगजीत सिंह ने भरपूर उपयोग किया था। उनका कई गजलों में ‘सिग्नेचर ट्यून’ देने का प्रयोग भी किया जो काफी सफल रहा। गजल का पहला मिसरा शुरू होने के पहले एक खास धुन बजती थी, जिससे सुनने वाले यह समझ जाते थे कि जगजीत आगे कौन सी गजल गाने वाले हैं। ‘दैरो हरम में बसने वालों, मयखाने में फूट न डालो’ के पहले का तराना हो या ‘होश वालों को खबर क्या’ के पहले कुछ गुनगुनाना हो, या ‘फिर कोई फरियाद तेरे दिल में दबी हो जैसे’ का म्यूसिक पीस हो। ये सभी जगजीत सिंह की खास ‘सिग्नेचर ट्यून’ थीं।
उन्होंने शास्त्रीय संगीत के रागों के साथ भी बखूबी खेला था। ‘सुनते हैं कि मिल जाती है हर चीज दुआ से’ को उन्होंने राग दरबारी में गाया और ‘मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम’ के लिए राग तोडी का इस्तेमाल किया। राग यमन में ‘दुनिया जिसे कहते हैं’ सजी तो ‘हमसफर होता कोई तो बांट लेते दूरियां’ राग बागेश्री के रंग में रंगी थी। जिस तरह चित्रकार रंगों से खेलते हुए अपनी कलाकृति तैयार करता है, वैसे ही जगजीत सिंग सुरों से खेलते थे। किसी एक धुन और तरानों के साथ बनाई गई गजल को हर प्रस्तुतिकरण में अलग-अलग तरह से गाना उनकी खासियत हुआ करती थी।

जगजीत सिंग शायद पहले ऐसे गायक होंगे जिनकी गाई गजलें, गीत फिल्मी गीतों से भी अधिक लोकप्रिय हुए होंगे। अपनी पत्नी चित्रा सिंह के अलावा जगजीत सिंह ने सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर तथा आशा भोसले के साथ भी कई गजलें गाईं थीं। जगजीत सिंह के सामने किसी भी गायिका की आवाज बहुत पतली ही लगती थी क्योंकि वास्तविकता में जगजीत सिंह की आवाज ही बहुत भारी थी। परंतु जब कोई ‘डुएट’ गीत या गजल गाई जाती तो जगजीत सिंह इसी विरोधाभास को बखूबी इस्तेमाल करते थे।

चित्रा सिंग के साथ गाई गजल

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है

में जगजीत ने चित्रा की ‘नेसल वॉइस’ का शानदान प्रयोग किया। ‘खो जाए तो सोना है’ गाते समय जब ‘सोना’ शब्द गाया गया तो चित्रा सिंह की खास आवाज खूब काम आई थी।

गम का खजाना तेरा भी है मेरा भी
ये नजराना तेरा भी है मेरा भी

गजल की शुरुआत उन्होंने लता मंगेशकर की आवाज की थी और दूसरी पंक्ति में उनकी आवाज के पिच से मेल करके अपनी पंक्ति गाई थी।

आशा भोसले को चुलबुले गीतों को गाने के लिए जाना जाता था। जगजीत सिंह ने आशा भोसले की इसी चुलबुली आवाज को इस्तेमाल किया ‘जब सामने तुम आ जाते हो, क्या जाने ये क्या हो जाता है’ में। आशा, लता और जगजीत सिंह तीनों ने इसे अपने-अपने अंदाज में गाया है और तीनों की केमिस्ट्री लोगों को बहुत पसंद आयी।

जगजीत सिंह ने गालिब, गुलजार, निदा फाजली जैसे प्रसिद्ध शायरों को तो गाया ही साथ ही ऐसे शायरों को भी आवाज दी ज्यादा मशहूर नहीं थे। दरअसल जगजीत सिंग शायर के नाम से अधिक उसकी शायरी, उसके मिसरे, उसकी गजल से सरोकार रखते थे। गजल लिखने वाले की व्याकरण की शुद्धता, काफिया का मिलान, मीटर आदि अगर ठीक हो तो जगजीत सिंह के लिए उस गजलकार का नाम ज्यादा मायने नहीं रखता था। उनका रुझान हमेशा ही आसान जबान की ओर रहा। अगर कोई शायर भारी भरकम शब्दों वाली गजल दे भी जाता तो जगजीत सिंह कहते कि ‘मुझे ही इसे पढ़ने में इतना सोचना पड रहा है तो लोग कैसे पसंद करेंगे?’

हंस के बोला करो, बुलाया करो।
आपका घर है, आया-जाया करो॥ या फिर
आपको देखकर देखता रह गया
क्या कहूं और कहने को क्या रह गया

इस जैसी कितनी ही सीधी-साधी परंतु गहरा अर्थ ली हुई गजलों को जगजीत सिंह ने अमर कर दिया था।
खलील धनतेजवी की लिखी गजल

अब मैं राशन की कतारों में नजर आता हूं।
अपने खेतों से बिछडने की सजा पाता हूं॥

जैसी जिंदगी के फलसफों की सच्चाई पर लिखी गजलों को भी उन्होंने कुछ इस तरह पेश किया था कि वो लोगों के दिलों तक तो पहुंची पर उससे लोग दुखी नहीं हुए बल्कि उस गजल में ही अपने आप को ढ़ूंढ़ने लगे।

आसान शब्दों को आसानी से गाना आसान काम नहीं था। पर जगजीत सिंह की यही खासियत थी। उन्होंने जिस अदायगी से हर शब्द पर जितना जोर देकर गाना जरूरी था, उतना दिया। वे कई बार कुछ सुरों खींच कर लंबा कर देते थे। एक महफिल में वो जब ‘वो कागह जी कश्ती’ सुना रहे थे, तो उन्होंने इस गजल की पंक्ति ‘कभी रेत के उंचें टीलों पे जाना’ गाते-गाते अजान के सुर पकड लिए थे और कहा कि ‘ये सुर किसी पियानो या बाजे से नहीं निकल सकते थे।’

जगजीत सिंह अपने साथ के साजिंदों को भी अपनी कला का प्रदर्शन करने का भरपूर मौका देते थे। उनकी महफिलें कई बार जुगलबंदी में भी तब्दील हो जाया करती थीं। तबला, वायलिन सितार बजाने वालों को जगजीत सिंह ने भरपूर मौका दिया था। सिडनी की ओपेरा हाउस की महफिल इन लोगों के लिए काफी खास थी।

उनकी महफिलों की शुरुआत जितनी शानदार होती थी उतनी ही शानदार वो खतम भी होती थी। कई बार जब लोग उनके ‘कुर्ते मलमल दी’ या ‘लारालप्पा’ जैसे पंजाबी टप्पों पर थिरकते रहते थे, तो लोगों को लगता था कि आगे और भी कुछ सुनने मिलेगा परंतु जगजीत सिंह साजिंदों को वाद्य बजाता हुआ छोडकर हाथ जोडकर निकल जाते थे।

असली जिंदगी से भी जगजीत सिंह कुछ इसी तरह निकल गए। उनके चाहनेवाले इसी आस में रहे कि जगजीत सिंह से कुछ और मिलेगा परंतु जगजीत सिंह इस दुनिया से विदा हो गए और उनके चाहनेवाले आज भी यही गा रहे हैं कि

शाम से आंख में नमी सी है
आज फिर आपकी कमी सी है।

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Comments 2

  1. Mrs Rajni Thanvi says:
    4 years ago

    बहुत सुन्दर, सराहनीय प्रयास,अमर है जगजीतसिंह जी की आवाज उनका निराला अंदाज ।

    Reply
  2. Yogesh Saini says:
    4 years ago

    तिश्ना नज़रें मिली शोख़ नज़रों से जब
    मय बरसने लगी जाम भरने लगे
    साक़िया आज तेरी ज़रूरत नहीं
    बिन पिये बिन पिलाये ख़ुमार आ गया
    पल्लवी जी द्वारा जगजीत सिंह द्वारा गाई गयी एक ग़ज़ल के बीच से उठाए इस मिसरे से यह स्पष्ट हो जाता है कि जगजीत सिंह की मीठी, गहरी आवाज़ में उर्दू-हिंदी में गाई गज़लें मराठी मानुस के हृदय को भी उतनी ही सांत्वना प्रदान करती रही हैं और सदैव करती रहेंगीं जैसा हम उत्तर भारतीयों को करती हैं, करती रहेंगीं।
    इस लेख के माध्यम से न केवल लेखिका की सिद्ध लेखनी का परिचय मिलता है अपितु भाषायी विमुक्ति भी होती है। खूब शोध के उपरांत लिखा गया एक बेहतरीन व संकलन करने योग्य लेख।
    साधुवाद🙏
    योगेश

    Reply

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