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ऩिजात

ऩिजात

by हरिप्रकाश राठी
in अक्टूबर २०१५, कहानी
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दस दिन पूर्व पांव में मोच आई तो मुझे फिर खाट पकड़नी पड़ी। मॉर्निंग वॉक से लौटते समय जाने कैसे पांव गड्ढे में पड़ गया। दो माह पूर्व कोहनी उतरी तो पन्द्रह रोज पट्टा बंधा था। उसके पहले भी जाने कितनी बार भुगतना पड़ा है। सात वर्ष पूर्व पांव की हड्डी टूटी तब तीन माह खाट में पड़ा था। तब तो सुमित्रा थी, बेचारी ने बहुत सेवा की, पर अब तो बेटे- बहू ऐसे देखते हैं मानो बार-बार पूछ रहे हों, ‘‘देखकर नहीं चल सकते क्या? मम्मी जब से ऊपर गई है, ऊपर ही देखते रहते हो!’’

ये बला जाने कैसे आ गई? ऊपर से बैरी बुढ़ापा। वाकई जीने का समय तो मात्र जवानी है। यौवन सर्वत्र सुरभि बिखेरता एक पल्लवित वृक्ष है, लेकिन बुढ़ापा ऐसा ठूंठ है जो पल-पल गिरने का इंतजार करता है। जिस अवस्था में शरीर ही साथ न दे तो और कौन देगा?
सांझ से घर में अकेला पड़ा हूं। बेटा-बहू नौकरी कर आठ बजे तक आते हैं। लेटे-लेटे अपने दुर्भाग्य को कोस रहा हूं। कुछ पल आंखें मूंदीं तो जाने किस लोक में चला गया। आंखें खोलीं तो सामने एक आकृति देखकर हैरान रह गया। काली छाया-सी यह आकृति मुझे स्पष्ट तो नहीं दिखाई दी, पर निश्चय ही कोई तो था? मैंने चीखकर पूछा, ‘‘तुम कौन हो?’’

पहले तो उसने इधर-उधर छुपने का प्रयास किया, फिर जाने क्या सोच कर सम्मुख होकर बोला, ‘‘मैं दुःख हूं। तुम्हारी याद आई अतः पुनः तुम्हारे समीप चला आया।’’ उसकी तेज आवाज से कमरा गूंज उठा।

‘‘तुम फिर चले आए? तुम्हें क्या मैं ही दिखता हूं? कितनी बार मैंने तुम्हें मार-मार कर भगाया, पर तुम हो कि हर बार पतली गली से चले आते हो! समय-असमय कुछ नहीं देखते। इतना उपहास, धिक्कार एवं दुत्कार मिलने पर भी कोई क्या किसी के यहां पुनः आता है? इतना ही नहीं, तुम आकर चाती की तरह चिपक जाते हो। दुनिया में और भी तो हैं?’’ बिना सांस रोके मैं बोलता गया।

‘‘आप तो खामख्वाह नाराज हो गए। मैं तो सर्वत्र समान रूप से विचरता हूं। आप जैसे विद्वान तो फिर भी मेरे प्रभाव को दर्शन, चिंतन एवं अध्यात्म के बल से क्षीण कर देते हैं। अन्यत्र तो मेरे प्रवेश करते ही त्राहिमाम् हो जाता है। खैर! अब कोसो मत। आया हूं तो कुछ समय तो रहूंगा।’’

‘‘अरे! तू गया कब था? मुझे तो सम्पूर्ण जीवन यात्रा में तूं दांये-बांये नजर आया। बचपन में मां चल बसी, कुछ बड़ा हुआ तो पिता चले गए। उसके बाद नौकरी प्राप्त करने में कितनी मशक्कत हुई! विवाह कौन-सा आराम से हो गया? अनाथ को कोई लड़की देता है क्या? वो तो भला हो सुमित्रा के पिता का, जिन्हें मुझ पर दया आ गई। वह थी तब तक मुझसे लड़ भी लेता था, लेकिन तेरी कृपा से वह भी पांच साल पहले स्वर्ग सिधार गई। अब तो निपट अकेला हूं। तुझे क्या पता है पत्नी के साथ तेरा प्रभाव आधा एवं उसके बिना दस गुना हो जाता है। बेटे-बहू सेवा करते हुए ऐसे देखते हैं जैसे कह रहे हों-‘‘अब और कितना जिओगे? मम्मी ऊपर अकेली है, आप भी चले क्यों नहीं जाते!’’
‘‘आप तो लट्ठ लेकर पीछे पड़ गए। ऐसे कह रहे हो जैसे मेरा भाई सुख कभी आपके यहां आया ही नहीं?’’

‘‘उसका आना तुझे कब सुहाया दुर्मुख! वह तो घड़ी भर सावन की फुहार की तरह कभी-कभी आता था। उसे तूने टिकने कब दिया? उसके साथ क्षणभर सांस लेता उसके पहले तो तू आ जाता। इतना ही नहीं, जब भी आता, पसर कर बैठ जाता। मुझे तो लगता है तेरी सुख से सांठ-गांठ है। घड़ी भर उसको भेजकर तूं हरी-हरी चरवाता है फिर हाथ में कटार लिए ऐसे आता है जैसे बकरा काटने कसाई!’’

‘‘इतना भी नाराज क्यों होते हो? माना कि मैं जीवन भर आपके इर्द-गिर्द रहा, लेकिन क्षणभर ठण्डे दिमाग से सोचकर देखो कि अगर मैं न होता ता तो क्या आप इतना संघर्ष करते? मैं न होता तो क्या आपके भीतर आस्था का प्रादुर्भाव होता? क्या आप प्रभु को तहे दिल से पुकार पाते? क्या आपके अनुभव इतने विलक्षण होते? मुझे इतना न कोसो! चिंतन की मथनी में मथकर मैंने आपके कितने विकारों को बाहर किया। मैं न होता तो आप घमंडी, आततायी एवं दुराचारी बन जाते! यह मेरा ही अंकुश एवं भय था जिससे सहमे आप सदैव सत्पथ पर रहे। मेरी वजह से ही आपमें गांभीर्य का प्रादुर्भाव हुआ। मेरे कारण ही आप में युक्तियुक्त बोलने की कला आई, आपके कर्मबंधनों का विमोचन हुआ। मेरी वजह से ही आपकी आत्मा उच्चतर सोपानों पर चढ़ी। मैंने ही विटामिन की तरह आपकी आत्मा का पोषण किया। मैं न होता तो इस भौमनरक से आत्मोत्सर्ग की दुर्लभ यात्रा आपको कौन करवाता? मेरे त्याग का सिला आप यूं धिक्कार से दे रहे हैं?’’

उसके गूढ़ वचन सुनकर क्षणभर के लिए मैं सहम गया। वह और कुपित न हो जाए, अतः ठण्डे होकर प्रश्न किया, ‘‘यह भौमनरक क्या है भाई?’’

‘‘भौमनरक यानि यह पृथ्वी, भू-लोक नरक है। यहां वे आत्माएं ही गिरती हैं जिनके पुण्य क्षीण हो गए हों। भांति-भांति की यातनाएं देकर मैं ही उनके पापों को काटता हूं। मेरे बिना कोई भी पुण्यरथ पर चढ़ ही नहीं सकता……..’’
उसकी बात पूरी भी न हुई थी कि मेरे पांव में पुनः दर्द हुआ। शायद बातों-बातों में एक पांव पर दूसरा पांव आ गया। दर्द से कराहते हुए मैंने उसे पुनः आड़े हाथों लिया, ‘‘अब बस कर! ज्यादा ज्ञान मत बघार! कुछ बताना ही चाहता है तो सिर्फ यह बता कि तुमसे निजात कैसे सम्भव है?’’
मेरी बात सुनकर उसने पहले तो अट्टहास किया फिर रुककर बोला, ‘‘मुझसे निजात तो तुम्हें मेरी मां ही दिला सकती है। तुम कहो तो उसे बुलाऊं?’’

‘‘हां-हां, तुरंत बुलाओ।‘‘ मैं अधीर होकर बोला।
तभी एक और काली आकृति कमरे में प्रविष्ट हुई। वह दुःख की काली आकृति से कई गुना विकराल एवं भयानक थी। उसे देखते ही दुःख ने चरणस्पर्श किए तो उसने कंधों से पकड़ कर उसे प्रेमपूर्वक उठाया, उसका माथा सूंघा, फिर आशीष देते हुए बोली, ‘‘पुत्र! अपनी मां के लिए तुमसे अधिक त्याग करने वाला कोई पैदा नहीं हुआ। तभी तो मैंने तुम्हें चिरंजीवी होने का आशीर्वाद दिया है। जाओ! तुम अजर रहोगे, अमर रहोगे!’’

मातृ आशीर्वाद से उपकृत दुःख मुस्कुराता हुआ कमरे से निकल गया। लेकिन मेरी गति तो सांप-छछूंदर वाली थी। एक आकृति ने छोड़ा तो दूसरी सामने आ गई। मैं विह्वल होकर बोला, ‘‘अब तुम कौन हो?’’
‘‘मृत्यु!’’ इतना कहकर उसने मुझे अपने आगोश में ले लिया।

Tags: arthindi vivekhindi vivek magazineinspirationlifelovemotivationquotesreadingstorywriting

हरिप्रकाश राठी

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