ओबामा को बड़ा झटका

अमेरिका में हाल में हुए सीनेट के चुनाव में राष्ट्रपति ओबामा को बड़ा झटका लगा है। उनकी डेमोक्रेट पार्टी वहां अल्पमत में आ गई है। वरिष्ठ सदन प्रतिनिधि सभा में यह पार्टी पहले से ही अल्पमत में है। इस तरह ओबामा की अल्पमत सरकार है। इससे ओबामा की लोकप्रियता घटी यह सिद्ध होता है। लेकिन सरकार और नीतियों पर विशेष असर नहीं होगा।

अमेरिका में लाखों भारतीय मूल के लोग रहते हैं। वहां के चुनाव में वे उत्साह के साथ हिस्सा भी लेते हैं। कोई भी पार्टी भारतीय मूल के इन मतदाताओं को अनदेखी नहीं कर सकती। इस मध्यावधि चुनाव में भी 15 राज्यों में 20 भारतीय अमेरिकी विधायिका के लिए उम्मीदवार थे। इसमें 10 डेमोक्रेटिक पार्टी से, 9 रिपब्लिकन पार्टी से तथा एक निर्दलीय उम्मीदवार था। रिपब्लिकन पार्टी की निक्की हेली उर्फ निम्रता रंधावा लगातार दूसरी बार साउथ कैरोलिना की गवर्नर निर्वाचित हुईं। डेमोक्रेट प्रत्याशी कमला हैरिस दूसरी बार चार वर्षों की अवधि के लिए कैलिफोर्निया की एटर्नी जनरल चुनी गईं। कई भारतीय मूल के प्रत्याशी राज्य विधायिकाओं तथा स्थानीय निकायों के लिए चुने गए। इनमें 23 वर्षीय रिपब्लिकन नीरज अंतानी का भी समावेश है। वे ओहियो राज्य की विधायिका के लिए निर्वाचित हुए हैं। नीरज अमेरिका की किसी राज्य विधायिका के सबसे युवा सदस्य हैं। दुर्भाग्य से अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव के लिए एकमात्र भारतीय मूल के डेमोक्रेट प्रत्याशी अमी बेरा चुनाव हार गए। वे 2012 के चुनाव में विजयी रहे थे। बेरा अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव के लिए निर्वाचित होने वाले भारतीय मूल के तीसरे व्यक्ति थे। उनसे पूर्व दलीप सिंह और बॉबी जिंदल को यह श्रेय हासिल हुआ था। अमेरिकी कांग्रेस की एकमात्र हिंदू सदस्य तुलसी गैब्बर्ड हवाई सीट से दूसरी बार चुनाव में विजयी हुई हैं। तुलसी अमेरिकी मूल की हैं। स्वेच्छा से उन्होंने हिंदू धर्म स्वीकार किया है।
अमेरिका में मध्यावधि चुनाव में बड़ी जीत दर्ज कर विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी ने अमेरिकी संसद के उच्च सदन सीनेट में भी बहुमत हासिल कर लिया। सौ सदस्यीय सीनेट में रिपब्लिकन सदस्यों की संख्या अब 52 हो गई है; जबकि ओबामा की डेमोक्रेट पार्टी के सदस्यों की संख्या 43 है। निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव (प्रतिनिधि सभा) में रिपब्लिकन पार्टी पहले से ही बहुमत में थी। अब उसने अपने इस बहुमत में 13 सीटों का इजाफा कर लिया है। हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में रिपब्लिकन सदस्यों की संख्या 233 और डेमोक्रेट की संख्या 199 हो गई है। इस तरह सन 2006 के बाद पहली बार ऐसा हुआ है जबकि अमेरिकी कांग्रेस के दोनों सदनों में रिपब्लिकन पार्टी का बहुमत हो गया है।
अमेरिकी संसद (कांग्रेस) के दो सदन हैं- सीनेट तथा हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव। हर दूसरे साल हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव के सभी 435 सदस्यों का तथा 100 सदस्यीय सीनेट के एक तिहाई सदस्यों का चुनाव होता है। सीनेट के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्षों का होता है। अमेरिकी में कांग्रेस के इस चुनाव को मध्यावधि चुनाव कहा जाता है क्योंकि यह चुनाव राष्ट्रपति के चार वर्षों के कार्यकाल के मध्य में होता है। मध्यावधी चुनाव मे रिपब्लिकन पार्टी की यह जीत डेमोक्रेट नेता और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के लिए बड़ा झटका है क्योंकि उनके पास राष्ट्रपति के कार्यकाल के दो साल ही बचे हैं। ऐसे में उनकी कई नीतियों को बदलने की क्षमता विपक्ष के पास आ गई है और हो सकता है कि बचे हुए कार्यकाल में ओबामा को अपनी कई नीतियों पर समझौता करने को मजबूर होना पड़े।

इस चुनाव को राष्ट्रपति ओबामा के कामकाज पर जनमत संग्रह कहा जा रहा है। चुनाव परिणाम इस बात की ओर साफ संकेत करते हैं कि राष्ट्रपति ओबामा की नीतियों को जनता ने नकार दिया है। अमेरिकी जनता के ओबामा के प्रति बदलते रुख के संकेत कुछ समय पहले से ही मिलने लगे थे। कई सर्वेक्षणों से यह बात उभर कर सामने आने लगी थी कि ओबामा की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिर रहा है। इस रूझान से घबराकर लगभग सभी डेमोक्रेट उम्मीदवारों ने उनसे चुनाव प्रचार से दूर रहने का अनुरोध किया था।

दरअसल, इराक में आईएसआईएस आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई में हुई देरी, नाइजीरिया में बोको हरम की गतिविधियों के प्रति समुचित संवेदनशीलता के अभाव और देश की अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए कारगर कदम न उठाने के लिए ओबामा की एक अरसे से आलोचना हो रही थी।

अब बचे-खुचे दो साल का कार्यकाल ओबामा के लिए बेहद कठिन होनेवाला है। वैसे अमेरिकी प्रशासन की प्रणाली भारतीय संसदीय प्रणाली से काफी अलग है। भारत में लोकसभा मे बहुमत वाली पार्टी मंत्रिमंडल गठित करती है। मंत्री पद के लिए जरूरी होता है कि व्यक्ति लोकसभा या राज्य सभा का या तो सदस्य हो, अन्यथा छह महीने के भीतर दोनों मे से किसी एक सदन की सदस्यता हासिल करे। परंतु अमेरिका में मंत्री के लिए कांग्रेस (संसद) का सदस्य होना अनिवार्य नहीं है। राष्ट्रपति किसी भी व्यक्ति को मंत्री बना सकते हैं। अमेरिका में प्रशासन और हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में अलग-अलग पार्टियों का नियंत्रण हो सकता है। भारत की राज्य सभा की ही तरह अमेरिकी सीनेट, हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव जितनी शक्तिशाली तो नहीं है लेकिन राष्ट्रपति के सभी नामांकनों की पुष्टि सीनेट द्वारा जरूरी है। इससे सीनेट को प्रशासन में भारी शक्ति मिल जाती है।

अब व्हाइट हाउस पर डेमोक्रेट का नियंत्रण है; जबकि विधायिका में रिपब्लिकन पार्टी का नियंत्रण है। स्वाभाविक है कि इससे न्यायिक और राजनीतिक नियुक्तियों में राष्ट्रपति ओबामा को रिपब्लिकन पार्टी की अनदेखी कर पाना संभव नहीं होगा। अगर अमेरिकी संसद ने ओबामा का साथ नहीं दिया तो उन्हें ठोस फैसला लेने में कठिनाई होगी। जाहिर है, इसका असर सिर्फ अमेरिका पर नहीं, पूरी दुनिया पर पड़ेगा। यह पहली बार नहीं हुआ है कि व्हाइट हाउस और कांग्रेस पर परस्पर विरोधी दलों का नियंत्रण है। बल्कि, अमेरिका में तो यह परंपरा सी बन गई है कि राष्ट्रपति की पार्टी संसदीय चुनाव में हारती ही है। यह बात गौरतलब है कि अमेरिकी राष्ट्रपति को वीटो पॉवर के साथ-साथ एक्जिक्यूटिव ऑर्डर पास करने का भी अधिकार प्राप्त है। इस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति संसद के विरोध के बावजूद कई तरह के कदम उठा पाने की शक्ति रखते हैं।

आज की तारीख में ओबामा एकतरफ इबोला तो दूसरी तरफ पश्चिम एशियाई आंतकियों के बढ़ते असर से जूझ रहे हैं। इसके साथ ही उन्हें अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में भी भारी मशक्कत करनी पड़ रही है। रिपब्लिकन्स अर्थव्यवस्था के मसले पर ओबामा से अलग राय रखते हैं। ऐसे में ओबामा के लिए सरकारी खर्चे के दम पर बाजार में गर्मी बनाए रखना आसान नहीं होगा। अगर इस मुद्दे पर असहमति गहराई तो उसका बुरा असर अमेरिका के अलावा विश्व की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ सकता है। कुछ ऐसी ही स्थिति विदेश नीति के मोर्चे पर भी दिख रही है। उदाहरण के लिए अफगानिस्तान से फौज वापसी और उसके बाद की स्थितियों से निपटने की तैयारी के मसले पर ओबामा और रिपब्लिकन्स की राय एक जैसी नहीं है।

इमिग्रेशन पॉलिसी (आप्रवासन नीति) पर भी ओबामा का टकराव रिपब्लिकन पार्टी से हो सकता है। ओबामा अमेरिका में गैर कानूनी तौर से रहने वाले लाखों आप्रवासियों को ग्रीनकार्ड देने की प्रक्रिया शुरू करना चाहते थे। कांग्रेस के चुनाव के मद्देनजर उन्होंने अपना यह कार्यक्रम टाल दिया था। अब इस बात की संभावना व्यक्त की जा रही है कि वे इस दिशा में कारगर पहल करेंगे।

उधर यूक्रेन के मसले को लेकर रूस के खिलाफ प्रतिबंध से यूरोपीय देशों में अमेरिका के प्रति नाराजगी बढ़ती जा रही है। जिस तरह क्रीमिया प्रायद्वीप को रूस में मिलाया गया और यूक्रेन के पूर्वी इलाकों को अलगाववादी ताकतों को रूस ने सैन्य समर्थन दिया, उसके जवाबी कदम के रूप में वाशिंगटन ने रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतीन को सबक सिखाने के लिए कई आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा की। अमेरिका ने यूरोपियन यूनियन तथा नाटो के सदस्य देशों को भी रूस पर शिकंजा कसने को कहा। लेकिन अमेरिका का यह दांव उल्टा पड़ गया। रूस ने यूरोपियन यूनियन और अन्य प्रतिबंध समर्थक देशों से खाद्य पदार्थों, कृषि उपजों और कुछ अन्य सामानों के आयात पर रोक लगा दी। रूस की यह जवाबी रोक यूरोपियन किसानों को भारी पड़ने लगी है। सोवियत संघ टूटने के बाद से यूरोपीय समाज में रूस ने एक प्रमुख साथी और सहयोगी की छवि बनाई है। लाखों रूसी पर्यटकों ने यूरोप के पर्यटन उद्योग की समृद्धि में अपना योगदान दिया है। उन्हीं के कारण इटली, स्पेन, ग्रीस, पुर्तगाल जैसे देशों में रीयल एस्टेट और प्रॉपर्टी मार्केट का विकास हुआ। इटली, फ्रांस आदि देश नए रूसी तेल मालिकों के लिए लग्जरी सामानों की सप्लाई करते हैं। पर अमेरिकी प्रतिबंधों ने इस प्रक्रिया को चोट पहुंचाई है। इन सबसे यूरोपीय देशों में अमेरिका के प्रति असंतोष बढ़ता जा रहा है।

पाकिस्तान को लेकर भी ओबामा को रुख तय करने की जरूरत है। हाल ही में पेंटागन ने अमेरिकी कांग्रेस को जो अपनी छमाही रिपोर्ट सौंपी है, उसमें कहा गया है कि पाकिस्तान भारतीय सेना का मुकाबला करने के लिए आतंकी समूहों का इस्तेमाल कर रहा है। पेंटागन के मुताबिक भारत के अलावा अफगानिस्तान और खुद अमेरिका भी इन आतंकी ग्रुपों के निशाने पर है।

भारत के लिए यह सौभाग्य की बात है कि उसे अमेरिका की दोनों प्रमुख पार्टियों के नीति निर्माताओं में बड़े पैमाने पर समर्थन और सहानुभूति हासिल है। चुनाव में किसी भी पाटी की हार-जीत से भारत-अमेरिका संबंधों पर कोई बड़ा असर पड़ने की संभावना नहीं है।
विदेश नीति के मोर्चे पर आमतौर पर विपक्ष भी अमेरिकी राष्ट्रपति का साथ देता आया है। पर फिलहाल रिपब्लिकन्स की नजर 2016 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव पर है। ऐसे में वे बराक ओबामा को घेरने की हर संभव कोशिश करेंगे और उनकी अलोकप्रियता का ग्राफ और नीचे झुकाने में लगे रहेंगे। देखना है कि ओबामा इन चुनौतियों का सामना किस तरह करते हैं।
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