अब परिवर्तन की गति भी तेज हो गई है। पहले जहां 10-15-20 सालों में परिवर्तन होते थे, वहीं आज हर दिन कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है और अच्छी बात यह है कि अब भारतीय समाज का मानस भी परिवर्तनों को सहज स्वीकार करने का आदी होने लगा है। भारत ने परिवर्तन को स्वीकार करके उसके अनुरूप ढलना तो सीख लिया है। अब इसके आगे उसे स्वयं को परिवर्तित करके दुनिया के परिवर्तन का शिल्पकार बनने की ओर बढ़ना होगा।
परिवर्तन संसार का नियम है। परिवर्तन को छोडकर अन्य सब परिवर्तनशील है। ये जुमले, ये कहावतें, ये लोकोक्तियां हम सभी ने सुनी हैं, पढी हैं। परंतु सुनना, पढना अलग बात है और परिवर्तन को महसूस करके उसके अनुरूप ढलना अलग बात है। वस्तुत: परिवर्तन कभी भी सम्पूर्ण समाज के द्वारा एक साथ स्वीकृत नहीं होता। सबसे पहले उसे अस्वीकृति के लंबे दौर से गुजरना पडता है। इस अस्वीकृति के कई कारण होते हैं। कभी-कभी यह अस्वीकृति भविष्य के गर्भ में क्या है इस डर से होती है, कभी-कभी लीक से हटकर कुछ न कर पाने की कमजोरी को छिपाने के लिए होती है, कभी-कभी किसी समाज विशेष की मानसिकता के कारण होती है, कभी राजनीतिक स्वार्थ के कारण होती है और कभी केवल इसलिए होती है क्योंकि जो परिवर्तन लाना चाहते हैं उनके विचार अन्यों के विचारों से मेल नहीं खाते। इतनी सारी अस्वीकृतियों के बाद भी अगर वह परिवर्तन कुछ हद तक भी समाज के लिए लाभदायक होता है तो वह समाज के एक तबके के द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है। फिर वह तबका बाकी समाज को इसके लिए तैयार करता है और फिर धीरे-धीरे सम्पूर्ण समाज में यह परिवर्तन दिखाई देने लगता है।
परिवर्तन की स्वीकार्यता की इस यात्रा को कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। इसका ताजातरीन उदाहरण है कोरोना से बचने के लिए किया जानेवाला टीकाकरण। जिस टीके की दुनिया भर के लोग बांट जोह रहे थे, उसे जब भारत में बना लिया गया तो कई लोगों ने इस टीके को लगवाने का विरोध किया। विरोध करने वालों के पास मोदी विरोध, भाजपा कार्यकाल में टीके का अनुसंधान, हिंदुत्व प्रणित राजनैतिक पार्टी का सत्ता में होना, भारत में निर्मित होने के कारण अनुसंधान तथा दवा पर अविश्वास जैसे कई कारण थे। ये कारण एक अलग आलेख के विषय हो सकते हैं, परंतु यहां मुद्दा यह है कि समाज के एक तबके के द्वारा जहां इसका विरोध किया गया वहीं दूसरे तबके ने इसके सुपरिणाम देखे, अनुभव किए और अन्य लोगों को भी समझाए। आज की तारीख में लोग इसलिए रो रहे हैं कि टीके लगवाने वालों की संख्या ज्यादा है और टीके कम पड रहे हैं। टीके की अस्वीकार्यता से कमी तक का सफर इसी बात का द्योतक है कि परिवर्तन को समाज में स्वीकृत होने में समय लगता ही है, परंतु जब वह स्वीकृत हो जाता है तो अपने आप स्थापित भी हो जाता है।
परिवर्तन का स्वरूप अमूर्त और अदृष्य है। इसे मूर्त स्वरूप देने वाले कहलाते हैं ‘परिवर्तन के शिल्पकार।’ वास्तव में परिवर्तन की अस्वीकार्यता का परिणाम इन्हें ही भुगतना पडता है। भारतीय समाज में ऐसे कई ‘परिवर्तन के शिल्पकार’ हैं जिन्होंने आज का भारत रचा है। आज का भारत जैसा है इन्हीं शिल्पकारों के कारण है। भारत जैसे विस्तृत राष्ट्र में अगर परिवर्तन और परिवर्तन के शिल्पकारों की व्याख्या करनी हो तो सामाजिक, राजनैतिक, औद्योगिक, कला व संस्कृति, शिक्षा, तकनीक, कृषि आदि जैसे विविध आयामों पर करनी होगी क्योंकि इन सभी से मिलकर ही भारत राष्ट्र का निर्माण हुआ है और इन सभी आयामों पर आज तक भारत में निरंतर परिवर्तन होते ही रहे हैं।
सम्पूर्ण विश्व में भारत जैसा शायद ही कोई समाज हो जिसमें इतनी विविधता है। यहां कई प्रथाएं-कुप्रथाएं चली आ रही हैं। कुप्रथाओं को अनावश्यक और समाज विघातक समझनेवाले लोगों ने इनका पुरजोर विरोध किया था जिसके कारण उन्हें तत्कालीन समाज का रोष भी सहना पडा था। सती प्रथा को बंद कराने वाले राजा राममोहन राय, महिलाओं की शिक्षा की पैरवी करने वाले फुले दम्पति, दलितों के लिए समानता की मांग करनेवाले डॉ. बाबा साहब आंबेडकर आदि लोगों ने जब समाज में परिवर्तन लाने के प्रयास शुरू किए थे तब उन्हें समाज के विरोध का सामना करना पडा था, परंतु चुंकि ये परिवर्तन समाज के हित में थे अत: धीरे-धीरे समाज को स्वीकार्य होते गए। आज सती प्रथा का नामोनिशान नहीं है, महिलाओं की शिक्षा का अनुपात तथा स्तर कई गुना उन्नत हो चुका है। जातीयता भी केवल राजनीति और चुनाव तक ही सीमित रह गई है अन्यथा दैनंदिन जीवन में मिलने वाले दो अजनबी भी एक दूसरे से जाति नहीं पूछते।
भारतीय समाज का चेहरा तब भी परिवर्तित हुआ था जब भारत में हरित क्रांति, श्वेत क्रांति और फिर औद्योगिक क्रांति हुई थी। हरित और श्वेत क्रांति को पचाना भारतीय समाज के लिए उतना कठिन नहीं रहा क्योंकि यह भारतीय समाज के मूल से मेल खाने वाली थीं, परंतु औद्योगिक क्रांति ने भारतीय समाज को हिला दिया था। इसे पचाने में भारतीय समाज को इसलिए समय लगा क्योंकि भारतीय समाज मनुष्य के मानसिक और शारीरिक बल को आधार मानकर निर्माण करने में विश्वास रखता था। औद्योगिक क्रांति में मशीनों के आने से मनुष्य के शारीरिक बल का उपयोग कम होने लगा। कई लोगों ने इसका विरोध किया क्योंकि इससे शारीरिक बल पर रोजगार करने वाले लोग बेरोजगार होने लगे थे।
हालांकि इस सत्य से इनकार भी नहीं किया जा सकता परंतु मशीनों के कारण काम करने में लगने वाला कम समय, उत्पादन तथा गुणवत्ता में जो वृद्धि हुई है उसके सामने यह समस्या बहुत बडी नहीं थी। अत: भारत में बडे पैमाने पर मशीनों का उपयोग शुरू हो गया।
इसके बाद तकनीक, इंफरमेशन टेक्नॉलजी ने भारतीय समाज को पूरी तरह से परिवर्तित कर दिया। भारत में कम्प्यूटर, मोबाइल, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आने से पहले का समाज और आज के समाज में जमीन-आसमान का अंतर है। उस समय इन सब का भी पुरजोर विरोध किया गया था, पर जरा सोचिए अगर भारत में कम्प्यूटर या न होता तो आज के हालात क्या होते? अगर मोबाइल तकनीक न होती तो क्या इस लॉकडाउन में एक दूसरे के सम्पर्क में रहना संभव हो पाता? क्या वर्क फ्रॉम होम या स्कूल फ्रॉम होम इतना आसान हो पाता? नहीं! बिलकुल नहीं। इन परिवर्तनों से कोई हानि नहीं हुई है ऐसा नहीं कहा जा सकता परंतु जब लाभ और हानि को तराजू के दो पलडों में रखकर नापा जाता है तो हानि वाला पलडा बहुत हलका दिखाई देता है। तकनीक के क्षेत्र में कार्यरत लोग, संस्थाएं तथा कंपनियां निश्चित ही बधाई के पात्र हैं। अगर ये लोग परिवर्तन नहीं लाते तो इसरो मंगलयान, चंद्रयान नहीं बना पाता। डीआरडीओ सुरक्षा यंत्र तथा हथियार बनाने में सक्षम न हुआ होता। भारत के गांव-गांव तक 4जी मोबाइल की सुविधा नहीं पहुंचती और भारत वैश्विक संजाल का अहम हिस्सा न होता। यह सब संभव हुआ क्योंकि भारतीय समाज ने समय पर परिवर्तन को स्वीकार किया।
सन 2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाला राजग केंद्र की सत्ता में आया तब दुनिया भर की मीडिया में इसकी खबरें थी। भारतीय राजनीति के सबसे बडे परिवर्तन के रूप में इसे चिन्हित किया गया था। हालांकि राजग इसके पहले भी सत्ता में आया था, परंतु उसे भारतीय समाज की वैसी स्वीकार्यता नहीं मिली थी जैसी 2014 में मिली। उसने भारतीय राजनीति की परिवार केंद्रित पारंपरिक प्रतिमा को तोड दिया था, जिसकी भारतीय समाज को लंबे समय से दरकार थी। इसे भारतीय इतिहास का सबसे बडा राजनीतिक परिवर्तन कहा जा सकता है, क्योंकि सम्पूर्ण देश ने इस परिवर्तन ने अहम भूमिका निभाई थी।
कोई भी समाज या देश प्रगत या विकसित तब कहलाता है जब वह आधारभूत सुविधाएं, चिकित्सा, शिक्षा, सामाजिक सौहार्द्र आदि मानकों पर खरा उतरता है। दुनिया के अन्य राष्ट्रों की तुलना में भारत अभी विकासशील देश है। अर्थात भारत में अभी भी बहुत से परिवर्तन होने बाकी है। कोरोना महामारी के बाद तो सम्पूर्ण विश्व एक अलग ही प्रकार के परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। इस महामारी में भी भारत ने अवसरों को पहचानकर जिस तरह अन्य देशों की मदद की है उससे यह सिद्ध हो गया है कि अब भारतीय समाज में न सिर्फ परिवर्तन पचाने की वरन परिवर्तन करने की क्षमता भी विकसित हो चुकी है। अभी तक वैश्विक परिवर्तनों के परिणाम भारत पर दिखाई देते थे, परंतु अब भारत में हो रहे परिवर्तनों के वैश्विक परिणाम भी दिखाई दे रहे हैं। भारत ने कोरोना कालखंड में जिस तरह मास्क, किट और वैक्सीन की कई खेपें दुनिया के अलग-अलग देशों में भिजवाईं उससे वे सभी देश अभिभूत हैं और आवश्यकता पडने पर भारत को हर संभव मदद करने का न केवल आश्वासन दे रहे हैं बल्कि मदद कर भी रहे हैं। दुनिया के कद्दावर देश यह भी समझ रहे हैं कि भारत का एक-एक राज्य विश्व के किसी न किसी देश के बराबर है और इतने बडे देश को एक ऐसी महामारी से बचाना जिसका रूप हर पल बदल रहा हो, आसान नहीं है। परंतु जिस तरह भारतीय समाज इस महामारी से लड रहा है, वह उसका मानस परिवर्तित होने का ही लक्षण है, क्योंकि इसके पहले जब भी भारत में महामारियां फैली थीं तो भारतीय जनता ने उसे अपनी अशिक्षा और अंधविश्वास के कारण दैवीय प्रकोप समझ लिया था। परंतु आज का भारतीय समाज ऐसा नहीं है। वह बीमारियों और दैवीय प्रकोप के अंतर को समझ रहा है और आगे बढ रहा है।
कोरोना के बाद भविष्य का विश्व कैसा होगा इसका अंदाजा अभी लगाना कठिन है परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अगर भारत को इस परिवर्तन के दौर में सक्षम रूप से खडा होना है तो पुन: हर क्षेत्र के शिल्पकारों को आगे आना होगा और अपना दायित्व निभाना होगा। आने वाला भविष्य स्वास्थ्य सुविधाओं की दृष्टि से अधिक कठिन होगा अत: इस क्षेत्र से जुडे अनुसंधानकर्ताओं, चिकित्सकों आदि को सगज रहना होगा। जैसा कि कहा जा रहा है कि यह एक प्रकार का बायोवॉर है, अगर यह सही है तो हमारे रक्षा क्षेत्र में काम कर रहे लोगों को भी तैयार रहना होगा। इस महामारी के कारण सबसे बडा नुकसान अर्थव्यवस्था को हुआ है, अत: भारतीय उद्योगपतियों को भी कुछ अलग प्रयोग करने होंगे जिससे देश की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाया जा सके।
अब परिवर्तन की गति भी तेज हो गई है। पहले जहां 10-15-20 सालों में परिवर्तन होते थे, वहीं आज हर दिन कुछ न कुछ नया देखने को मिलता है। और अच्छी बात यह है कि अब भारतीय समाज का मानस भी परिवर्तनों को सहज स्वीकार करने का आदी होने लगा है। भारत ने परिवर्तन को स्वीकार करके उसके अनुरूप ढलना तो सीख लिया है अब इसके आगे उसे स्वयं को परिवर्तित करके दुनिया के परिवर्तन का शिल्पकार बनने की ओर बढना होगा। विश्व भी भारत की ओर अपेक्षापूर्ण दृष्टि से देख रहा है। यही अवसर है जब आपसी मतभेद भुलाकर हम सक्षम राष्ट्र के रूप में खडे हो सकते हैं, अत: एकत्रित प्रयास करना अत्यंत आवश्यक है।