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दर्द का रिश्ता

दर्द का रिश्ता

by लता अग्रवाल
in कहानी, प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७
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 ‘रणवीर नहीं है तो उनकी जगह उसे ही लेनी होगी| नीलू और उसके बेटे की जिम्मेदारी आखिर उसकी तो है| वह नहीं चाहती जिस हादसे से वह गुजरी उससे नीलू भी गुजरे|       

आखिर दर्द का ही सही रिश्ता तो है उसका इस घर से|’’

लंदन से इंडिया की ओर आने वाला विमान, विमान तल पर उतरने को तैयार था| परिचारिका घोषणा कर रही थी- ‘‘कृपया! सभी यात्री गण अपनी कुर्सी की पेटी बांध लें…’’ अचानक रोमी की तन्द्रा भंग हुई| उसका दिल जोरों से धड़क रहा था| गोद में सोती अपनी नन्हीं परी पर नजर गई| मासूम! कितनी बेखबर है जिंदगी में हुए इस हादसे से… नहीं जानती नियति ने उससे जीवन की धूप से बचाने वाला वो छायादार  दरख़्त छीन लिया है| हाय! नन्हीं सी मेरी बच्ची कैसे जान पाएगी पिता का साया क्या होता है| इस दूधमुंही बच्ची पर भी तरस नहीं आया ईश्वर को|

लंदन का सफर उसने अपने पति कुंवर रणवीर के साथ शुरू किया था| कितनी मीठी यादें थीं उसकी रणवीर के साथ| एक समझदार, प्यार करने वाले पति साबित हुए रणवीर| उसे वह वक्त भी याद है जब रणवीर के साथ ब्याह तय हुआ था| कितना डर गई थी वो… एक तो रईस ठाकुर खानदान… ऊपर से लड़का विदेश में रहता है…जाने कितना रंग चढ़ा होगा वहां का… न चाहते हुए शराब के नशे में झूमते रणवीर की तस्वीर उसके आंखों में उभर आई… आसपास मंडराती तितलियों की कल्पना मात्र से कांप जाती थी वह|

कहां वह राजस्थान के एक छोटे से गांव जडवता के मध्यम परिवार की ग्रेज्युएट पास… कैसे निबाह कर पाएगी?

मगर उसकी खुशी का ठिकाना न रहा जब उसकी ये सारी कल्पनाएं थोथी साबित हुईं| रणवीर ने न केवल ऊंची पढ़ाई हासिल की थी बल्कि उनके व्यवहार में भी वही ऊंचाइयां थीं| लंदन में उन्होंने हमेशा ध्यान रखा कि रोमी को कभी अकेलापन महसूस न हो| भारतीय परिवारों से उसका परिचय करा दिया| इससे पराई जमीन पर भी उसे अपनेपन का अहसास दिया|

फिर बेटी परी का आना… जश्न था उनके लिए| कितनी धूमधाम से पार्टी की थी रणवीर ने| मिलने-जुलने वालों ने ढेर शुभकामनाओं से नवाजा था; मगर किसी की शुभकामना काम नहीं आई| परी अभी दस माह की ही हुई थी कि रणवीर की कार सड़क हादसे की शिकार हो गई| हादसा इतना भयानक था कि रोमी की जिंदगी के सारे रंग छीन ले गया और कभी न खत्म होने वाला इंतजार दे गया मां बेटी को|

बेटा सात समंदर पार ही सही, उसकी सलामती तसल्ली देती थी एक मां के दिल को, मगर इस हादसे ने ठकुराइन को जिंदा लाश बना दिया| उसकी सारी ताकत मानो बेटे के साथ चली गई| वह हाथ पैरों के साथ-साथ बोलने की शक्ति भी खो बैठी| बस बिस्तर पर पड़ी-पड़ी आंखों से आंसू बहाती|

रणवीर के दोस्तों ने अंतिम संस्कार तो वहीं कर दिया; मगर ठाकुर साहब का कहना था कि बाकी कर्मकांड विधि विधान से भारत में हो ताकि बेटे की आत्मा को शांति मिले| आज रोमी इसी क्रिया को सम्पन्न करने हेतु भारत आई है|

विमान हवाई अड्डे के जैसे-जैसे करीब आता, रोमी खुद को सम्हाल नहीं पा रही थी| कैसे जाएगी परिवार वालों के सामने… स्वयं को अपराधी महसूस कर रही थी| कभी सोलह श्रृंगार कर इसी हवाई अड्डे से अपना नया संसार रचने निकली थी| पराई जमीन पर आज अपना सारा सौभाग्य उस धरती पर लुटा कर तमाम उदासियों को अपने दामन में समेटे लौट रही है| जैसे ही विमान ने लैंडिंग किया बाहर सभी बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे थे| एक हाथ में नन्हीं बेटी को तो दूसरे हाथ में रणवीर का अस्थि कलश थामे रोमी विमान से बाहर निकली… मां के आंसू न थमते थे, कैसे ढाढ़स बंधाए बेटी को… शब्द और हिम्मत दोनों हार गए थे| पलकों पर बैठाए रखने वाले पापा का भी बुरा हाल था| कैसे … उनकी मासूम बच्ची… सात समंदर पार… अकेली इतने बड़े संकट से जूझती रही| धिक्कार है पिता होकर भी वे बेटी की इस दुःख की घड़ी में उसके साथ नहीं थे|

रणवीर के छोटे भाई कुंवर प्रताप ने दौड़ कर उसके हाथ से अस्थि कलश ले लिया तो रोमी के भाई ने परी को| रोमी दौड़ कर मां पापा के सीने से लिपट गई| आखिर पिछले पांच दिनों से चट्टान बनी रोमी माता पिता के प्यार की आंच पा पिघल गई| अपनों को देख उसका सारा गुबार आंसू में बह गया|

मां…!

हाय! मेरी बच्ची! कैसे इतनी दूर… अकेली इतना बड़ा दुःख सहती रही| हे भगवान! मेरी फूल सी बच्ची पर जरा रहम न किया… अरे! इस नन्हीं बच्ची ने क्या बिगाड़ा था किसी का जो होते ही सर से बाप का साया छीन लिया|

उजड़ी मांग लिए रोमी ससुराल पहुंची, सासू को निष्प्राण सा देख भी मन भर आया| हवेली में रणवीर का क्रियाकर्म विधि विधान से हुआ| ठकुराइन बिस्तर पर पड़े-पड़े कभी बहू का बेरंग लिबास देखती, कभी पोती को| उसके आंसू ही उसकी व्यथा कहते और कर भी क्या सकती थी वह| अपने और परी के प्रति घर वालों का स्नेह देख रोमी को तसल्ली हुई, आखिर अपनी जमीन, अपने लोगों के बीच लौट आई, अच्छा किया| अब भला विदेश जाकर क्या करेगी? लिख देगी विदेशी साथियों को उसका सभी सामान सेल कर दें| अब वह यहीं रहेगी|

अपनी ओर से रोमी पूरी कोशिश करती सब से घुलने-मिलने की| कुंवर प्रताप के बेटे को भी बहुत भाती थी परी| दोनों बच्चों के बीच प्यार देख रोमी कुछ राहत महसूस करती… यह रिश्ता यूं ही बना रहे आखिर यही तो चाहती है वह| देवरानी नीलू भी उसका बहुत मान करती है| बात-बात में जीजी ऐसा, जीजी वैसा… सवा महीना होते रोमी की मैके देहरी छुड़ाने की रस्म छुड़ाने हेतु पिताजी आ गए| आठ दिन रह कर रोमी लौट आई| किन्तु देहरी छुड़ा कर लौटी रोमी ने महसूस किया घर की हवा कुछ बदली बदली सी है| हवाओं में उलझे जाल नजर आ रहे हैं, कभी लगता ये जाल उसी के लिए तैयार किए गए हैं| दीवारों में दरार सी लगती| ठाकुर साहब, उसके सामने आने पर वह स्नेह नहीं नजर आता उनकी आंखों में… कुंवर प्रताप, उससे तो वह वैसे ही दूर रहती| रणवीर से सुन चुकी थी लंगोट का कुछ कच्चा है| किंतु मन को समझाती उसका भ्रम हो शायद|

उस दिन नीलू के मायके से फोन आया कि बप्पा की तबीयत खराब है| ठाकुर साहब बोले- बेटा नीलू! कुंवर को तो कुछ काम है, चल मैं लिवा ले जाता हूं| कल तक लौट आऊंगा |

नीलू रोमी से बोली- दीदी! साल भर हो गया मां बापू से मिले| आप कहें तो हो जाऊं …?

हां! हां!, क्यों नहीं, एक-दो दिन की ही तो बात है मैं मैनेज कर लूंगी|

रात रसोई के काम से निवृत्त हो रोमी सासू मां के पास आकर लेटी ही थी कि कुंवर प्रताप के कराहने की आवाज आई, ओह! मर गया … मां लगता है अब नहीं बचूंगा| मेरा सर … जोरों से दर्द कर रहा है कुछ मिल जाता लगाने को|

लाइए मैं बाम लगा दूं | झट रोमी बाम की शीशी ले आई|

भ्रातृत्व भाव से रोमी कुंवर प्रताप के सर पर बाम मल रही थी, हां! ये यहां … और जोर से| कहते हुए उसका हाथ रोमी की हथेली से होता हुआ कंधे पर गया तो रोमी को संदेह हुआ, वह सम्हलती उससे पहले ही कुंवर प्रताप ने उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया| रोमी बहुत चीखी, चिल्लाई, मांजी बचाइए मुझे…. प्रताप भैया छोड़ दो मुझे मैं तुम्हारे भाई की ब्याहता हूं…. मगर कुंवर पर हवस का नशा चढ़ा था| उसकी आवाज रात के अंधेरे में थपेड़े खाकर कोठी की दीवार में गम हो गई| कुंवर प्रताप की अय्याशी के छींटे से उसका दामन दागदार हो चुका था|

जैसे-तैसे खुद को समेटे सासू मां के सीने पर जा गिरी, देखिए न मां जी क्या हुआ आपके बेटे की इस अमानत के साथ….|

ठकुराइन मन ही मन सोच रही थी आज वह बेबस है मगर तब …? जब वह बोल और चल फिर सकती थी… उसकी आंखों के सामने ठाकुर ने न जाने कितनी अबलाओं को अपने बिस्तर की सलवटों में रौंदा है… क्या कर पाई थी वह … कुछ भी तो नहीं, जाने कितनी चीखें दफन हैं हवेली की मोटी दीवारों में…? हम ठकुराइनों की हुकूमत तो बस नौकर चाकरों तक ही रहती है| पति के आगे हमारा कोई निजत्व नहीं| आज उन्हीं चीखों की हाय लगी कि अपनी बहू की अस्मत लूटने से नहीं रोक सकी| उसकी पीड़ा तो देखिए प्यार से बहू के सर पर हाथ भी न फेर सकी|

रोमी सिसक-सिसक कर रो रही थी| सारी रात रोती रही रोमी| आज रणवीर बहुत याद आ रहे थे| कितना अंतर है दोनों भाइयों में| ठाकुर साहब के आते ही फरियाद करेगी, वे जरूर सजा देंगे उसे| सुबह ठाकुर साहब के आते ही रोमी ने सारी व्यथा कह दी|

सुनते ही कितना गरजे वे कि क्या क्या नहीं कहा उन्होंने कुंवर प्रताप को| रोमी डर गई थी, कहीं यह मसला कोई खतरनाक मोड़ न ले लें|

अब तू ही बता बेटी क्या करूं इस नामुराद का… बुढ़ापे का अब एक ही सहारा, तू कहे तो घर से निकाल दूं इसे|

ठाकुर गुस्से में कोई कठोर कदम न उठा लें वरना लोग कहेंगे एक बेटे को खा गई तिस पर चैन नहीं आया तो दूसरे को भी छीन लिया| सो चुप रह गई| रोमी मन ही मन खुद को नीलू की गुनाहगार समझ रही थी| सो वह खुद ही बोली, मैं जानती हूं जीजी आप निर्दोष हैं|रोमी अवाक रह गई|

अब रोमी के लिए एक ही छत के नीचे कुंवर प्रताप के साथ रहना त्रासद था| मन कर रहा था उसी पल घर छोड़ दूं| इससे तो अच्छा हो वह लंदन ही चली जाय| इन कुटिल यादों से दूर रहेगी|

अनचाही दिशा में ही सही, वक्त का दरिया बह रहा था| एक सप्ताह भी न बीता कि रात मांजी की तबीयत ज्यादा खराब हो गई| सोचा ठाकुर साहब को बुला लूं| जैसे ही कमरे के नजदीक पहुंची किसी की आवाज सुनाई दी| उसने घड़ी देखी रात के सवा दो बजे हैं| इस समय बाबूजी किससे बात कर रहे हैं! लौट रही रोमी के कदम ठिठक गए| की होल से झांक कर देखा तो बाबूजी और कुंवर प्रताप थे| आवाज टकराई, क्या करता साली मानती ही न थी, बड़ी सावित्री बन रही थी, तुम्हारे भाई की ब्याहता हूं, छोड़ दो …

एक पल रोमी पत्थर हो गई| लगा कोई भारी चीज उसके सर पर दे मारी हो, ये तो उसी को लेकर चर्चा हो रही है|

अरे! नालायक तुझे किसने कहा था पहली ही बार में मांस नोचने को, जानता नहीं परदेस रह कर आई है, नजाकत दिखाएगी, उसके मिजाज को देख कर पासा फेंकता| पहले उसे प्यार से गिरफ्त में लेता, बहलाता -फुसलाता, पहली बार में जवानी का जोर दिखाने को किसने कहा था| सारा किया गुड़ गोबर कर दिया| अब कोई और उपाय खोजना होगा|

तो आप ही बताओ कोई उपाय ?

मुझे तो शक हो रहा है तुझ पर, तू ठाकुरों की ही औलाद है न ..? एक औरत काबू में नहीं होती तुझ से… प्यार से प्यार से, वरना धिक्कार से काबू में कर उसे| समझ गया न, अरे एक विधवा को काबू में करने के लिए इतना सोच मत| मोम को पिघलने में ज्यादा वक्त नहीं लगता| विदेश में रह आई है तो ज्यादा विचार वह भी नहीं करेगी| अगर निकल गई चिड़िया हाथ से तो समझ लियो गई आधी प्रापर्टी| नाग फन फैलाए उससे पहले कुचल दे सुसरी को| पड़ी रहेगी रखेल बन कर| कहीं और मुंह मारे इससे ये घर क्या बुरा है|

तुमको क्या लगता है बापू, मानेगी?

अरे माने क्यों नहीं| तू उसे नीलू समझे है कि दो हाथ जमाए और मनवा लिया, ये चार जमात पढ़ी है सो नखरा तो करेगी| रणवीर ने इस पांव की जूती को सर जो चढ़ा रखा है|

और जो फिर भी हाथ न आई तो …?

तो क्या- घर के पीछे जमीन की कमी नहीं| दोनों मां बेटी को… एक तो वैसे ही बेटी जनी, कोई नाम लेवा भी न रहा रणवीर का|

लोग पूछेंगे नहीं कहां गई ..?

कह देंगे विदेश में कई आशिक पाल रखे थे, भाग गई|

छी! कितनी गंदी सोच… वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी| जिसे वटवृक्ष मान छाह की तलाश में आई थी वह तो नागफनी निकला| दौलत की खातिर अपनी मासूम पोती को भी मारने से नहीं चूकेंगे ये लोग| उसे तो दौलत की कोई भूख नहीं थी| बस बेटी की खातिर सुरक्षित भविष्य चाहा था उसने|

सुबह उसने अपना थोड़ा सामान बांधा और परी को गोद में ले घोषणा कर दी कि वह मायके जा रही है वहीं से लंदन के लिए निकल जाएगी|

ठाकुर और कुंवर प्रताप सकते में थे| ये स्क्रिप्ट तो थी नहीं उनके खेल में…! ठाकुर ने कुंवर की और घूर कर देखा फिर कोई जल्दबाजी कर गया… वहीं कुंवर अपनी बेगुनाही आंखों से साबित कर रहा था| अचानक कैसे हो गया, चिड़िया जाल से उड़ जाना चाहती है| वे कुछ कहते उससे पहले रोमी सामान और परी को लेकर बाहर निकल चुकी थी|

ठाकुर बोले, बहु! जब तूने सोच ही लिया है तो चल मैं तुझे मायके छोड़ आता हूं|

रोमी के कानों में रात ठाकुर के कहे शब्द गूंज रहे थे… पीछे जमीन की कोई कमी नहीं|

कोई जरूरत नहीं मैं खुद चली जाऊंगी| कहते हुए रोमी ऑटो में सवार हो गई|

ठाकुर की आंखें अंगार बरस रही थीं| एक मामूली औरत मात दे गई|

अरे कुंवर प्रताप चल गाड़ी निकाल| बहुत हो गया, समय आ गया| अब किस्सा खत्म करें|

जैसे-जैसे उनकी जीप ऑटो के करीब होती, रोमी भगवान को याद कर रही थी और ऑटो वाले से प्रार्थना करती, भैया जरा तेज चलाओ न…वह जीप हमें ओवरटेक न कर पाए, प्लीज़ भैया!

कोशिश करता हूं, मैडम जी|

आज ठाकुर और कुंवर प्रताप रोमी को साक्षात् यमदूत लग रहे थे| ऑटो चालक ने रफ्तार तेज की ही थी कि सामने एक ट्रक आ गया| ऑटो चालक ने जोरदार ब्रेक लगाते हुए ऑटो को टर्न किया तो ऑटो सड़क के दूसरी और जा गिरी| तेज रफ्तार से आती जीप ट्रक से टकरा गई| एक जोरदार धमाका हुआ|

लोग इकट्ठे हो गए|

ओह! कितनी बुरी तरह से कुचल गए दोनों|

कोठी पर जमावड़ा लगा था, लोग अफ़सोस कर रहे थे|

इस घर का दुर्भाग्य देखिए- कोई मर्द नहीं बचा, तीन-तीन विधवाएं, मानो तीनों अभिशापित … कैसे सम्हालेंगी खुद को..?

कैसे समझाए रोमी इन्हें कि इनके सबसे बड़े भक्षक तो यही थे|

सभी इस हादसे के लिए ईश्वर को दोषी ठहरा रहे थे| घर की किसी भी महिला से हादसे का कारण छिपा नहीं था| आखिर बरसों से वे इस नर्क को झेल रही थीं| मगर घर की बिखरती लाज के कारण खामोश थीं|

दोनों का अंतिम संस्कार हो चुका था| कोठी में भयानक सन्नाटा पसरा था| जैसे एक तूफान आया और सब कुछ बहाकर ले गया| रात कमरे में बैठी रोमी लंदन के मित्रों को पत्र लिख रही थी, वह अपनी प्रापर्टी सेल करना चाहती है, अब उसे यहीं रहना है इंडिया में| मां के हालात किसी से छिपे नहीं… फिर इस हादसे के बाद कितने दिन निकल पाए…बची नीलू… जो आज तक पति का विरोध न कर सकी… वह जमाने की हवस भरी निगाहों का विरोध कैसे कर पाएगी…?  रणवीर नहीं है तो उनकी जगह उसे ही लेनी होगी| नीलू और उसके बेटे की जिम्मेदारी आखिर उसकी तो है| वह नहीं चाहती जिस हादसे से वह गुजरी उससे नीलू भी गुजरे|

आखिर दर्द का ही सही रिश्ता तो है उसका इस घर से|

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