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मायानगरी के फिल्मी किस्से

मायानगरी के फिल्मी किस्से

by विकास पाटील
in कहानी, प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७
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मुंबई की मायानगरी के ङ्गिल्मी किस्से सिने रसिकों की चर्चा का विषय होते हैं| फिल्मी गॉसिप और वहां की हलचलें चहेतों को चटपटा मसाला देती हैं| आज भी पुराने जमाने के किस्सों की जुगाली होती है| लेकिन सच तो यही है कि, ‘गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा|’

बॉलीवुड का जादू आज युवावर्ग के सर चढकर बोल रहा है, यह आज की वास्तविकता है| बॉलीवुड में प्रवेश पाने, यहां ब्रेक मिलने के लिये घर से भागकर युवावर्ग आता है परंतु सभी सफल होते हैं, ऐसा नहीं है| एक समय था जब सिनेमा में काम करना अच्छा नहीं, माना जाता था| भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फालके ने जब अपनी फिल्म ‘राजा हरिश्‍चन्द्र‘ के लिये कलाकारों की खोज प्रारंभ की तब स्त्री भूमिका के लिये वारांगनाओं ने भी उन्हे इंकार कर दिया था| अंत में काम करने वाले एक युवक को अधिक पैसे देकर तारामती की स्त्री भूमिका के लिए तैयार किया गया| उस समय यदि कहीं रोजगार नहीं मिल रहा हो तो ही लोग सिनेसृष्टि की ओर कदम बढ़ाते थे| फिर भी बहुत से लोगों को इसमें बहुत प्रसिद्धि एवं पैसा मिला| परंतु कुछ लोग इस पैसे का योग्य उपयोग नही कर सके| अचानक कमाए हुए इन बहुत सारे पैसो का विनियोग कैसे करें यह उन्हें समझ में नहीं आया| अनेक अल्पशिक्षित लोग शराब,सट्टा,जूआ इत्यादि व्यसनों में फंस गये एवं अपना सर्वस्व गवां बैठे|

इसके बावजूद भी कभी कभी पुराने सफल सिने कलाकारों के विषय में कहना होगा कि तू क्या से क्या हो गया| बस कंडक्टर की नौकरी करने काला जॉनी वॉवर, जिसके नाम से एक सिनेमा भी बनाया गया, उत्कृष्ट कॉमेडियन के रुप में जाना जाता था| बस कंडक्टर की ही नौकरी करने वाला मूलत: मराठी कलाकार रजनीकांत गायकवाड दक्षिण का सुपरस्टार है जो हिंन्दी फिल्मजगत के महानायक अमिताब बच्चन से भी अधिक मेहनताना लेता है| आकाशवाणी उद्घोषक सुनील दत्त एवं  उनका मित्र राजेन्द्र कुमार दोनों ही बांद्रा की झोपड़पट्टी में रहते थे| परंतु सिनेमा में अपना डंका बजाने के बाद सफलता-धन दौलत उनके चरण चूमने लगी| सुनील दत्त अपनी उस बांद्रा की झोपड़पट्टी को कभी नहीं भूले| बांद्रा की ‘नर्गिस दत्त‘ बसाहट की झोपड़पट्टी की सहायता में वे हमेशा अग्रणी रहते थे| सिनेसृष्टि का महानायक दिलीपकुमार देवलाली में फल विक्रेता था| रुवाबदार परंतु सनकी स्वभाव वाला राजकुमार माहिम पुलिस स्टेशन में इंस्पेक्टर था| प्रसिद्ध खलनायक प्राण पहले लाहौर में उत्कृष्ट फोटोग्राफर के रुप में जाने जाते थे| उन्होंने खलनायकी के रोल को एक नया आयाम दिया| अपने अभिनय से सिनेमा प्रेमियों की आंखों में आंसू लाने वाली मशहूर अदाकारा मीनाकुमारी दादर पूर्व के रुचतारा स्टूडियो के पास एक छोटे से कमरे में रहकर अपना गुजर-बसर करती थी| कला फिल्मों की नायिका, अपनी भूमिका के साथ एकरूप होकर उसको न्याय देने वाली प्रसिद्ध कला अभिनेत्री स्मिता पाटिल दूरदर्शन पर उद्घोषिका थी| अपनी सुन्दरता से संपूर्ण चित्रपट सृष्टि को मोहित करने वाली हंसमुख ने दिल्ली की झोपड़पट्टी में अपना बचपन व्यतीत किया| मोतीलाल का नाम किसने नहीं सुना| नौसेना में भरती होने की चाह से मुम्बई आया यह कलाकर सहज रूप से एक दिन सागर स्ट्रडियो में गया एवं भविष्य में प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में सिनेजगत में स्थापित हो गया| स्वत: का हवाई जहाज रखने वाला यह व्यक्ति आगे चलकर जुए की लत में ऐसा फंसा कि सारा धन गंवा बैठा एवं अंत में ‘छोटी छोटी बातें‘ फिल्म का निर्माण कर सर्वस्व गंवा बैठा| ‘चली चली रे पतंग मेरी चली रे‘ ‘भाभी’ फिल्म का यह प्रसिद्ध गीत कौन भूल सकता है| परदेे पर इसे साकार करने वाला हास्य आभिनेता जगदीप बचपन में फुटपाथ पर रहकर तीन रुपये में फिल्मों में एक्स्ट्रा का काम करता था| आगे चलकर सिनेसृष्टि में यह सूरमा भोपाली के नाम से नाम कमाकर गया एवं स्वयं के आलीशान बंगले में रहा| मर्द मराठा कलाकार  भगवान दादा अलबेला फिल्म के निर्माण से धनवान व्यक्ति हो गया| इतना धनवान कि चेंबूर में स्वत: का जागृति बंगला, बंगले में ६-६ मोटर गाड़िया एवं रूपतारा स्टुडियो का मालिक कहलाया| परंतु आगे चलकर लावेली, अमला, रंगीली,हल्लागुल्ला फिल्में फ्लॉप होने के बाद अपना सबकुछ गंवा बैठा एवं बाद में दादर पूर्व की लल्लूभाई मेंशन की चाल में रहकर एवं फिल्मों में छोटी मोटी भूमिकाएं कर अपना गुजारा करता था| वर्तमान डांसिंग स्टार गोविदा के पिता अरुण आहूजा १९४० के आसपास फिल्म जगत में नायक के रूप में अवतरित हुए| स्वयं का बंगला,अलीशान गाड़ी, ऐसा वैभव १९५० तक रहा| आखिरी भूमिका ‘हरियाली और रास्ता’ फिल्म में शशिकला के पिता के रूप में थी|अंत में सब कुछ गंवाकर विरार की वूडलैंड टाकीज में डोरकीपर की नौकरी करने की नौबत आई| आज गोविंदा पिता से भी अधिक वैभव में रह रहा है, यह अलग बात है| अति सामान्य चेहरा एवं मजबूत शरीर का धनी शेख मुख्तार| फिल्मों मे नाम एवं पैसा कमाने के बाद पानी के समान पैसा खर्चकर नूरजहां नामक भव्य ऐतिहासिक फिल्म का निर्माण किया| फिल्म बाक्स ऑफिस पर बुरी  तरह असफल रही| लेनदारों के तगादों से तंग कारण शेख मुख्तार फिल्म की प्रिंट लेकर चुपचाप पाकिस्तान भाग गया| वहां उसकी मृत्यु के बाद नूरजहां प्रदर्शित हुई और वहां अत्यंत सफल रही | फिल्म से वहां अथाह पैसा बटोरा परंतु शेख मुख्तार निर्धन अवस्था में ही अल्लाह को प्यारा हो गया|

बे भरोसे के इस चित्रपट जगत में नामचीन कलाकारों के आपस में संबध, एक दूसरे के प्रति उनकी भावनायें-विचार, उनके बीच की शत्रुता,स्पर्धात्मक जुगलबंदी, उनको क्या अच्छा-बुरा लगता है, उनके शौक, नायिकाओं के साथ उनके प्रेम संबध, विवाह, विवाहबाह्य संबध सरीखे विषय गौसिप पत्र पत्रिकाओं में सिने रसिकों के गले बड़े ही स्वाद के साथ उतारे जाते हैं| सिने रसिक भी उन्हें उतने ही चटखारे लेकर पढ़ता है| मायानगरी मुम्बई की सिनेसृष्टि को लगा हुआ यह एक शाप ही है, ऐसा कहना पड़ेगा| इस सिने जगत के मान्यवर कलाकारों के ऐसे ही अनोखे रिश्ते-नातों पर प्रकाश डालने वाली कुछ बातों का एक आलेख सिने रसिकों को निश्‍चित ही पसंद आएगा|

दादामुनी अर्थात अशोक कुमार भारतीय सिने जगत का एक भारी नाम| सिनेजगत के अनेक कलाकार दादामुनी की देन| नये कलाकारों को मौका देना, उनके कार्य को बढ़ावा देना, उनमें आत्मविश्‍वास जागृत करना यह दादामुनी की स्वभावगत विशेषता| सिने जगत में जब देव आनंद सफल नहीं हो रहे थे वापस पंजाब जाने की सोच रहे थे तब दादामुनी ने उन्हे बाम्बे टाकीज की फिल्म ‘जिद्दी‘ में काम दिलाकर सिने जगत में उनका प्रवेश कराया| उसी फिल्म में लाहौर से आये हुए प्राण को खलनायक की भूमिका दिलवाकर मुम्बई फिल्म जगत के द्वार उनके लिये खोले| अशोक कुमार ने अपनी बढ़ती उम्र के साथ नायक का रोल छोड़कर चरित्र भूमिकायें करनी प्रारंभ की| परंतु फिर भी फिल्म की श्रेम- नामावली में उनका नाम सर्वप्रथम लिखा जाता था| अमिताभ बच्चन ने सुपरस्टार बनने के बाद अपना नाम दादामुनी के पहले करने का कभी आग्रह नहीं किया| ऐसा महान था, दादामुनी अर्थात अशोक कुमार का व्यक्तित्व|

अशोक कुमार पुरानी कारों के शौकीन थे| बड़ौदा के महाराज गायकवाड़ के पास एक रोल्स राईस कार थी जो अशोक कुमार को पसंद आ गई थी| जब यह पता चला कि महाराज वह गाड़ी बेचना चाहते हैं तब अशोक कुमार ने महाराज को संदेश भेजा, ‘उन्हें वह कार चाहिये|‘ गाड़ी की बिक्री कीमत ४९०००/- (उनचास हचार) तय हुई परंतु बड़ौदा महारानी ने अशोक कुमार को वह कार २५०००/- (पच्चीस हजार) में बेच दी| बाद में जब रोल्स राईस कम्पनी ने उस मॉडल का उत्पादन बंद कर दिया तब अशोक कुामर को ऑफर दिया कि वे दो करोड़ रुपए में कार कंपनी को बेच दें परंतु विंटेज कारों के शौकीन अशोक कुमार ने कंपनी का ऑफर ठुकरा दिया|

दिलीप कुमार, राजकपूर, देवआनंद इस त्रिमूर्ति का सिक्का सिनेजगत में चलता था| प्रत्येक के अभिनय में उनकी अपनी अलग-अलग विशेषता थी, छाप थी| ट्रेजेडी किंग के नाम से मशहूर दिलीप कुमार प्रत्यक्ष जीवन में भी निराशा (डिप्रेशन) के शिकार हो गए एवं उन्हें लंदन के मनोरोग विशेषज्ञ से अपना उपचार कराना पड़ा| डाक्टरों की सलाह से दिलीप कुमार ने आन, आजाद,कोहिनूर सरीखी हलकी-फुलकी फिल्मों में तलवारबाजी के जौहर दिखाये एवं उससे वे निराशा की गतर्र् से बाहर आए|

कभी कभी सिनेजगत के कलाकार एक ही नायिका से प्रेम करने लगते हैं एवं इस कारण उनके आपस के संबंध खराब हो जाते हैं| दिलीप कुमार एवं प्रेमनाथ एक ही नायिका मधुबाला पर डोरे डाल रहे थे| परंतु जब प्रेमनाथ के ध्यान में आया कि मधुबाला दिलीप कुमार के साथ भी प्रेम की लुकाछिपी का खेल खेल रही है तब उन्होंने निराश होकर अपने प्रेम की बलि दे दी| अभिनेत्री बीना राय के साथ शादी करने के बाद प्रेमनाथ की कटुता सामने आई| उन्होंने कहा, ‘‘दिलीप कुमार की दोस्ती की खातिर मैने मधुबाला को छोड़ दिया परंतु वह मुर्ख उससे शादी भी नहीं कर सका| ‘‘आगे चलकर प्रेमनाथ के संबध दिलीप कुमार के साथ और कटु हो गये| ‘गोसलकोंडा का कैरी‘ फिल्म के प्रचार-प्रसार के दौरान वह ध्यान रखकर यह कहना नहीं भूलते थे कि मेरी अगली फिल्म होगी, ‘दिलीप द डांकी‘| पर, इस नाम की कोई फिल्म प्रेमनाथ ने नहीं बनाई|

मेहबूब खान की फिल्म ‘अंदाज’ की सफलता के बाद जिसमें- दिलीप कुमार – नर्गिस-राज कपूर की भूमिकाएं थीं, राजकपूर ने ‘घरौंदा’ नामक फिल्म बनाने की घोषणा की| उसमें दो चरित्र थे- सुंदर एवं गोपाल| राज कपूर ने दिलीप कुमार को इनमें से कोई भी एक भूमिका करने का प्रस्ताव दिया| इस पर दिलीप कुमार ने धूर्तता से उत्तर दिया कि मुझे कोई भी भूमिका चलेगी- फिल्म के डायरेक्टर तुम नहीं रहोगे| दिलीप कुमार जानते थे कि डायरेक्टर ही यह निश्‍चित करता है कि फिल्म में कौन सी भूमिका महत्वपूर्ण रखना| बाद में यह फिल्म ‘संगम’ नाम से प्रदर्शित हुई जिसमें सुंदर की भूमिका राजेन्द्र कुमार ने की जो लोकप्रिय हुई|

कुलभूषण पंडित उर्फ राजकुमार किशोर कुमार जैसा ही सनकी था| सहकलाकारों के विषय में उसके कमेंट्स सुनने के बाद यह कहना पड़ेगा कि अपने व्यक्तित्व पर प्रेम करने वाले अपने-आप में मस्त लोगों का वह शहंशाह था| उसने कह दिया था कि सिर्फ आर.के. ही फिल्म बनाते हैं एवं बाकी क्या फर्नीचर बनाते हैं? इस तरह उसने राज कपूर जैसे बड़े एवं श्रेष्ठ कलाकार को आहत किया था| ‘धरमकांटा’ इस फिल्म में राजेश खन्ना एवं जितेन्द्र राजकुमार के सहकलाकार थे| राजकुमार ने उन्हें जूनियर आर्टिस्ट कह कर संबोधित किया| इससे वे दोनों नाराज हो गए| इस पर भोलेपन से राजकुमार ने कहा, ‘‘आप दोनों स्वत: को आर्टिस्ट समझते हैं और आप मुझ से जूनियर हैं, इसमें मेरी क्या गलती है?’’ दोनों को ही यह अपमान चुपचाप सहन करा पड़ा|

राजकुमार एक बार राजेन्द्र कुमार के डिम्पल स्टुडियो में डबिंग के लिए गए थे| अंदर प्रवेश करते ही बाहर के दालान में राजेन्द्र कुमार की एक बड़ी सी तस्वीर दीवार पर लगी थी| उस फोटो के सामने राजकुमार हाथ जोड़ कर खड़े हो गए एवं पूछा, ‘अरे! ये कब चल बसे? अर्थात- डबिंग समाप्त कर उनके बाहर आने के पूर्व वह तस्वीर दीवार से हटा दी गई थी, यह बताने की आवश्यकता नहीं है| एक बार ये महाशय दोपहर के खाने के वक्त अभिनेत्री साधना के यहां पहुंचे| शिष्टाचारवश साधना ने भोजन का आग्रह किया| इस पर राजकुमार ने फिल्मी डॉयलॉग में उत्तर दिया, ‘‘हम खाना जरूर खाते हैं जानी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम कहीं भी और कुछ भी खाते हैं|’’ बिचारी साधना…

मनोज कुमार दिलीप कुमार के बहुत बड़े प्रशंसक थे| शबनम फिल्म में दिलीप कुमार की भूमिका भी एवं फिल्म में उनका नाम मनोज था| अत: मनोज कुमार ने यह नाम धारण किया| स्वर्गीय प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नारे ‘जय जवान, जय किसान’ को पर्दे पर साकार करने वाली मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ खलनायक की भूमिका अदा करने वाले प्राण के अभिनय को अलग दिशा देने वाली फिल्म साबित हुई| दो बहनें, शहीद, फिल्मों से दोनों की मैत्री प्रगाढ़ हुई| मनोज कुमार ने निश्‍चित किया कि ‘उपकार’ फिल्म में ‘कसमें वादे प्यार वफा’ यह गाना प्राण पर फिल्माया जाएगा| संगीतकार कल्याणजी आनंदजी एवं गीतकार इंदीवर ने इसका विरोध किया| खलनायक के रूप में प्रसिद्ध प्राण इस संवेदनशील गाने का सत्यानाश कर देगा ऐसी उनकी धारणा थी| राज कपूर भी ‘आह’ फिल्म में प्राण से सज्जन व्यक्ति की भूमिका नहीं करवा पाए थे| किशोर कुमार ने भी इस गाने को गाने से मना कर दिया| परंतु मनोज कुमार अपनी भूमिका पर अडिग रहे| मन्ना डे द्वारा गाए गए इस गाने पर प्राण ने चेहरे पर दर्द भरे भाव अत्यंत प्रभावी रूप से लाकर गाने के साथ न्याय किया|

कोलकाता से अच्छे वेतन की नौकरी छोड़ कर अमिताभ मुंबई की मायानगरी में आए| वहां महमूद एवं उनके भाई अन्वर अली के साथ उनके आत्मीय संबध स्थापित हो गए| अमिताभ की फिल्में फ्लॉप होती रही उसी समय महमूद ने उन्हें अपनी फिल्म बॉम्बे टु गोवा में नायक की भूमिका दी| उस फिल्म के फायरिंग शॉट्स देख कर पटकथा लेखक जावेद अख्तर को फिल्म ‘जंजीर’ में अमिताभ को नायक की भूमिका देने की प्रेरणा मिली|

इस भूमिका के कारण आगे चल कर अमिताभ ने राजेश खन्ना से सुपर स्टार का खिताब छीन लिया| फिल्म के निर्माता प्रकाश मेहरा दिल से चाहते थे कि फिल्म ‘जंजीर’ में नायक की भूमिका देवानंद निभाए, परंतु जैसे ही देवानंद को यह पता चला कि फिल्म में नायक के रूप में इन्स्पेक्टर पर एक भी गाना नहीं फिल्माया जाना है, उन्होंने यह भूमिका नकार दी| राजकुमार ने भी यह भूमिका नकारते हुए कहा, आपके बालों से सरसों के तेल की बू आती है| परंतु इस भूमिका ने अमिताभ के लिए संजीवनी का काम किया|

कॉमेडियन महमूद अपने अभिनय के बल पर फिल्म में ऐसी कुछ बाजी मारते थे कि आगे चल कर नायक उनके साथ फिल्म करने से कतराने लगे| उस समय महमूद, धुमाल, शोभा खोटे यह तिकड़ी फिल्म में ऐसी कुछ मजा ला देती थी कि नायक की अपेक्षा इस तिकड़ी को ही लोग अधिक पसंद करते थे| फिल्म ‘घराना’ में राजेन्द्र कुमार ने मेहमूद का पत्ता काट दिया था| ‘दिल तेरा दीवाना’ फिल्म में शम्मी कपूर एवं मेहमूद दोनों थे| महमूद की नई एवं प्रभावशाली भूमिका के कारण उसे इस फिल्म के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का अवार्ड मिला| महमूद की अनोखी भूमिका के कारण शम्मी कपूर की भूमिका पर परिणाम होने लगा| फिल्म पूरी होने पर शम्मी कपूर ने निर्णय लिया कि वह अब महमूद के साथ काम नहीं करेगा| इसके कारण फिल्म ‘राजकुमार’ में उसने महमूद की जगह राजेन्द्र नाथ को लेने के लिए निर्देशक को बाध्य किया| कई वर्षों के मतभेदों के बाद दोनों पुन: प्रमोद चक्रवर्ती की फिल्म ‘तुमसे अच्छा कौन है’ के लिए साथ में काम करने एकत्रित हुए| परंतु इसके लिए भी शम्मी कपूर की कुछ शर्तें थीं, परंतु इस बार भी महमूद ने बाजी मारी|

मनोज कुमार एवं प्राण दोनों ही महमूद को फिल्म ‘गुमनाम’ में लेने के विरूद्ध थे| परंतु निर्माता एन.एन. सिप्पी को किसी भी स्थिति में महमूद चाहिए था| इस फिल्म का गाना ‘हम काले हैं तो क्या हुआ दिल वाले हैं’ महमूद एवं हेलन पर फिल्माया गया था, इसे भी फिल्म से निकालने हेतु मनोज कुमार ने कहा| परंतु सिप्पी ने मनोज कुमार एवं निर्देशक राज खोसला के आग्रह को ठुकरा कर इस गाने सहित फिल्म को प्रदर्शित किया| इस गाने ने फिल्म को काफी लोकप्रियता दिलाई|

एक बार दादामुनी अशोक कुमार महमूद के साथ एक फिल्म में काम कर रहे थे| काम करते हुए उनका ध्यान सतत महमूद के ललाट पर था| ज्योतिष शास्त्र में पारंगत दादामुनी ने महमूद से कहा, ‘तुम्हारे ललाट पर त्रिशूल है जो भगवान शंकर का अस्त्र है| इसके कारण तुम पर भगवान शिव का वरद्हस्त है| दादामुनी की बात महमूद को जंच गई| जिन फिल्मों में उसका नाम महेश (भगवान शंकर का एक नाम) था उन फिल्मों ने रजत जयंती मनाई जैसे छोटी बहन, लव इन टोकियो, जिद्दी, दो कलियां, तुमसे अच्छा कौन है, नया जमाना एवं कुंवारा बाप| धर्म से मुसलमान होते हुए भी महमूद ने शिव आराधना प्रारंभ की| उसने अपने बंगलुरु के फार्म हाउस पर शंकर मंदिर का निर्माण किया| प्रमोद चक्रवर्ती ने उसे शंकर की मूर्ति दी| महमूद के ‘कुंवारा बाप’ इस फिल्म का गीत ‘जय भोलेनाथ जय हो प्रभु’ इसी मंदिर में फिल्माया गया है|

नृत्य की शास्त्रोक्त शिक्षा प्राप्त गुरुदत्त इस फिल्मी दुनिया में निर्देशक बने| ‘हम एक हैं’ इस फिल्म में देवानंद नायक थे एवं फिल्म का निर्देशन पी. एल. संतोषी कह रहे थे| उनके साथ गुरुदत्त सहायक निर्देशक थे| फिल्म की शूटिंग के समय निर्देशक संतोषी की एक गलती गुरूदत्त द्वारा ध्यान में लाई गई और उन्होंने कुछ बदलाव सुझाए| इस कारण देवानंद प्रभावित हुए और उन्होंने गुरूदत्त को वचन दिया कि यदि भविष्य में मैं फिल्म निर्माता बना तो निर्देशन की जिम्मेदारी आपको दूंगा| उसके पांच वर्षों बाद सन १९५१ में नवकेतन की ‘बाजी’ फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी देवानंद ने  गुरुदत्त को देकर अपने वचन का पालन किया|

वहिदा रहमान देवानंद को अपना भाई मानती थी| ‘गाईड’ फिल्म के निर्माण के दौरान निर्देशक चेतन आनंद को नायिका की भूमिका के लिए प्रिया राजवंश चाहिए थी| परंतु देवानंद इस बात पर अड़े रहे कि फिल्म में रोजी के किरदार को वहिदा रहमान के अलावा अन्य कोई भी अभिनेत्री न्याय नहीं दे सकती| देव ने ‘गाईड’ का निर्देशन विजय आनंद को सौंप दिया एवं वहिदा रहमान फिल्म की नायिका बनी|

देवानंद का सचिनदेव बर्मन पर दृढ़ विश्वास था| ‘गाईड’ के निर्माण के समय सचिनदा बीमार थे| उन्होंने देव को ‘गाईड’ का संगीत पुत्र राहुल को सौंपने हेतु कहा| परंतु देवानंद ने कहा, ‘‘आपके लिए मैं बरसों रूकने को तैयार हूं|’’ इस फिल्म का गीत ‘‘यहां कौन है तेरा, मुझाफिर जाएगा कहां’’ गाने हेतु मुकेश को चुना गया था परंतु देवानंद ने सचिनदा की आवाज का ही आग्रह रखा| सचिनदा की आवाज के इस गीत ने इतिहास रचा|

बी.आर. चोपड़ा ने जब ‘नया दौर’ फिल्म बनाने की घोषणा की तब निर्माता-निर्देशक मेहबूब खान ने चोपड़ाजी को टांगेवाले की कथा पर आधारित फिल्म न बनाने की चेतावनी दी थी| उन्होंने और राजकपूर ने इस डाक्यूमेंट्री टाइप कथानक पर फिल्म नकार दी| परंतु चोपड़ाजी ने इस सलाह पर कोई ध्यान नहीं दिया और इस पर फिल्म बना कर स्वतंत्र भारत को एक संदेश दिया| मानव विरुद्ध यंत्र यह शाप या वरदान यह विषय उन्होंने इस फिल्म के माध्यम से रखा| फिल्म सुपरहिट हुई| उस समय फिल्मों के रजत जयंती समारोह के निमंत्रण पत्र पर मुख्य अतिथि की नाम छापने की परंपरा नहीं थी| कार्यक्रम के समय उपस्थित किसी भी महत्वपूर्ण व्यक्ति को यह सम्मान दिया जाता था| मेहबूब खान को ‘नया दौर’ के रजत जयंती समारोह का आमंत्रण मिलने पर उन्होंने बी.आर. चोपड़ा को फोन कर कहा कि इस समारोह का चीफ गेस्ट मैं रहूंगा| चोपड़ा ने सानंद उनकी बात मानी| समारोह के आयोजन स्थल ताजमहल होटल में प्रवेश करते समय उन्होने ऊंची आवाज में यह ‘शेर’ कहा, ‘मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है, वही होता है जो मंजुरे खुदा होता है|’ सब की उपस्थिति में मेहबूब खान ने ‘नया दौर’ के संदर्भ में उनका जजमेंट कैसे गलत साबित हुआ  यह बताया और कहा कि चोपड़ा साहब ने इस कथा का सही उपयोग किया|

केवल ३०/- लेकर बलसाड़ से मुंबई आए मेहबूब खान ने जो अशिक्षित थे, सन् १९५२ में ‘आन’ नामक रंगीन फिल्म को ‘लिबर्टी’ जैसे आलीशान सिनेमाघर में प्रदर्शित कर फिल्मी दुनिया को अचंभित किया|

राज कपूर भगवान दादा की फिल्मों का चहेता था| दोनों की  फिल्में एक ही जगह एडिट होती थीं, इसलिए राज कपूर चोरीछिपे भगवान दादा की फिल्मों के दृश्य देख लिया करते थे| एक बार राजकपूर ने भगवान दादा को कुत्सित रूप से पूछा, ‘कब तक तुम पीला हाउस के (रेड लाइट एरिया) के किंग रहोगे| पीला हाउस छोड़ कर लैमिंग्टन रोड आ जाना| उस समय राजकपूर भगवान दादा को अपना प्रतिद्वंद्वी मानते थे| इसलिए भगवान दादा को राज कपूर की फिल्मों में भूमिका नहीं मिली| परंतु राज कपूर के वे कुत्सित बोल ‘अलबेला’ फिल्म के निर्माण का कारण बने| दादा के परम मित्र श्री सी. रामचन्द्र ने भी दादा को सामाजिक फिल्म बनाने की प्रेरणा दी| भगवान दादा ने गीताबाली को फिल्म में नायिका की भूमिका के लिए ऑफर दिया| परंतु इमेज खराब होने के भय से गीताबाली भूमिका नहीं करना चाहती थी| भगवान दादा स्टंट फिल्मों के नायक थे| अत: गीताबाली ने भगवान दादा से अधिक पैसों की मांग की| भगवान दादा ने पैसों की चिंता न करते हुए गीताबाली की मांग को मंजूर कर लिया| फिल्म सुपरहिट होने के बाद गीताबाली ने स्वयं यह बात बताई| आगे चल कर भगवान दादा ने एक बहुत बड़ी गलती कर दी| उन्होंने फिल्म के सारे अधिकार रणजित बुधकर को रु. अस्सी हजार में बेच दिए| सन् १९७५ में ‘शोले’ फिल्म के साथ ही यह फिल्म फिर से सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई| तब ‘शोले’ को टक्कर देते हुए इस फिल्म ने भी जम कर धन बटोरा और इससे रणजित बुधकर मालामाल हो गए|

फिल्म महर्षि वी. शांताराम जब पुणे रहने गए तब उन्हें पता चला कि १९३७ के ‘गंगावतरण’ फिल्म के बाद दादासाहब फालके विपन्नावस्था में जीवन व्यतीत कर रहे हैं| तब शांतारामजी ने उन्हें ‘प्रभात फिल्म कंपनी’ की ओर से एक सौ पच्चीस रु. प्रति माह की पेंशन दी| शांतारामजी ने अपने पिता के निधन पर अपना स्टुडिओ बंद नहीं रखा परंतु राज कपूर की मृत्यु पर न केवल स्टुडियो वरन् दादर का प्लाजा सिनेमा भी बंद रखा| उनका कहना था कि मां बाप की मृत्यु उनका व्यक्तिगत दु:ख था परंतु राज कपूर का निधन संपूर्ण सिनेसृष्टि का दु:ख है|

‘जिस देश में गंगा बहती है’ फिल्म को छायालेखक श्री तारू दत्त को विश्वास था कि उन्हें इस फिल्म के छायालेखन के लिए अवार्ड मिलेगा| परंतु फिल्म फेयर अवार्ड उन्हें नहीं मिला| काम की कद्र नहीं होती इस कारण वे नाराज थे| उनकी नाराजगी समझते ही राज कपूर ने उन्हें एक कार भेंट की| अपने साथी कलाकारों, सहकर्मियों के गुणों की कद्र करना राज कपूर की विशेषता थी|

दिलीप कुमार एवं हास्य अभिनेता मुकरी दोनों ही अंजुमन इस्लाम शाला के मित्र थे| दोनों बॉम्बे टाकिज में मासिक वेतन पर नौकरी करते थे| १९४५ की ‘प्रतिमा’ फिल्म में दोनों ही सहकलाकार थे| उस समय मुकरी का वेतन ७५०|- था तो दिलीप कुमार को ५००|- प्रति माह मिलते थे| अभिनय में भले ही न हो परंतु वेतन में एक समय इस शहंशाह को मात दी थी| यह बात मुकरी सभी को बड़े अभिमान के साथ बताता था| दिलीप कुमार अपनी बहुत सी फिल्मों में मुकरी की सिफारिश करते थे| आखिर-आखिर में जब मुकरी से पूछा जाता कि आजकल फिल्मों में ज्यादा नजर नहीं आते तो वह कहता दिलीप कुमार भी कहां नजर आता है|

निर्माता सुबोध मुखर्जी और नासिर हुसैन की फिल्मी दुनिया में आपस में क्या दुश्मनी थी, भगवान जाने| सुबोध मुखर्जी की फिल्मों में जो गधा दिखाया जाता उसका नाम नासिर हुसैन होता था एवं नासिर हुसैन की फिल्मों में जो गधा दिखाया जाता उसका नाम सुबोध मुखर्जी होता था| सुबोध मुखर्जी की फिल्म ‘मुनीमजी’ से शुरू हुआ यह सिलसिला उनके पेईंग गेस्ट, लव मेरेज, जंगली, शागिर्द जैसी फिल्मों तक शुरू था| उनकी फिल्मों में नायक बदले परंतु गधे का नाम नहीं बदला| निर्माता नासिर हुसैन ने भी इसका अनुसरण किया| ‘तुमसा नहीं देखा’ फिल्म में पहली बार शम्मी कपूर के साथ सुबोध मुखर्जी नाम का गधा एक सीन में दिखाया गया| उनकी फिल्मों में भी नायक बदले परंतु तीसरी मंजील, जब प्यार किसी से होता है, फिर वही दिल लाया हूं, कारवां, यादों की बारात फिल्मों में सुबोध मुखर्जी नामक गधा अमर रहा|

फिल्म वितरक गुलशन राय भृगु संहिता के कारण निर्माता बने| होशियारपुर में भृगु संहिता द्वारा भविष्य बताया जाता था| ऐसा कहा जाता था कि वहां के ज्ञानी पंडितों के पास प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली लिखी होती थी| गुलशन राय ने होशियारपुर जाकर भृगु संहिता के द्वारा अपना भविष्य जानते समय फिल्म निर्माण का प्रश्न पूछा| तब उन्हें बताया गया कि गोल्डी (विजय आनंद का घरेलू नाम) नामक व्यक्ति से यदि फिल्म बनवाई तो तुम सफल निर्माता कहलाओगे| गुलशन राय का भृगु संहिता पर बहुत विश्वास था| गोल्डी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘जानी मेरा नाम’ जबरदस्त हिट हुई| गुलशन राय की इसके बाद की सभी फिल्मों में त्रिमूर्ति प्रतीक चिह्न के पूर्व भृगु महर्षि का फोटो दिखाया जाता है| ‘जानी मेरा नाम’ फिल्म के बाबत गोल्डी को मानसिक तकलीफ पहुंचे, ऐसी एक घटना घटित हुई| जब यह फिल्म रिलीज हुई उस समय फिल्म के प्रारंभ में ‘विजय आनंद प्रेजेन्ट्स गुलशन राय’ ये शब्द रूपहले पर्दे पर झलकते थे परंतु साल डेढ़ साल बाद फिल्म की जब नए सिरे से पब्लिसिटी की गई तो नए प्रिंट में ‘विजय आनंद प्रेजेन्ट्स’ ये शब्द गायब थे| परंतु विजय आनंद ने इसकी परवाह नहीं की| फिल्म हिट होने के बावजूद गुलशन राय ने विजय आनंद को योग्य पारिश्रमिक नहीं दिया|

अभिनेता बनने आए खय्याम संगीतकार बन गए| जुहू-पार्ले के उनके दक्षिणा अपार्टमेंट कें दीवानखाने में लक्ष्मी, गणेश, नानक की सुंदर मूर्तियां हैं एवं भृगु ऋषि की तस्वीर भी लगी है| खय्याम साहब को भी भृगु संहिता में उनका संदर्भ मिला था| उनके पुत्र की जन्मपत्री मिली| इसलिए भृगु ऋषि की तस्वीर उनके यहां लगी है| उनके आचरण से विश्वबंधुत्व की प्रेरणा प्राप्त होती है|

संगीत जाति-धर्म की दीवारों को किस प्रकार तोड़ देता है इसका ज्वलंत उदाहरण याने ‘बैजू बाबरा’ ङ्गिल्म का नौशाद द्वारा संगीतबद्ध ‘‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’’ शक्तिगीत है| काशी विश्वनाथ के मंदिर में प्रति दिन प्रात:काल यह गीत बजता था| इस भक्तिगीत के गायक मुहम्मद रङ्गी, गीतकार शकील बदायुनी एवं संगीतकार नौशाद तीनों धर्म से मुसलमान थे, परंतु उनके द्वारा निर्मित इस गीत से जाति-धर्म के बंधन टूूट गए|

कलामहर्षि वी. शांताराम द्वारा निर्मित ङ्गिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ में गीतकार प्रदीप द्वारा लिखा गया एवं संगीतकार वसंत देसाई द्वारा संगीतबद्ध प्रार्थना गीत ‘ऐ मालिक तेरे बंदे हम’ पाकिस्तान की शालाओं में भी गाया जाता था| इस प्रार्थना गीत ने देश की सीमाओं से परे जाकर भी प्रसिद्धि पाई|

सचिनदेव बर्मन के सहायक जयदेव को नवकेतन के ‘हम दोनों’ ङ्गिल्म में संगीत देने का मौका मिला| इस ङ्गिल्म के सभी गाने हिट होने के बाद देवानंद ने निर्णय किया कि आगे से एक ङ्गिल्म का संगीत जयदेव देंगे तो दूसरी ङ्गिल्म का सचिनदेव बर्मन| परंतु बर्मन दा द्वारा संगीतबद्ध ‘तेरे घर के सामने’ बॉक्स ऑङ्गिस पर पिट गई| इसके बाद ‘गाईड’ में संगीत देने की बारी जयदेव की थी परंतु सचिन दा के दुराग्रह के कारण ‘गाईड’ एवं तीन देवियां’ का संगीत भी सचिन दा ने ही दिया| परंतु दिलदार देवानंद ने १९५१ से १९६५ तक जयदेव को वेतन दिया| ‘हम दोनों’ ङ्गिल्म के गीत ‘ना मैं धन चाहू बना रतन चाहू’ यह धुन बनाने वाले जयदेव निर्धन ही रहे|

‘शोले’ ङ्गिल्म में गब्बर सिंह की भूमिका का निभाने वाले अमजद खान की आवाज पतली है इसलिए सलीम-जावेद ने उनकी आवाज डब कराने की सिप्पी को सूचना की| यदि ऐसा होता तो अमजद खान का करिअर समाप्त हो जाता| परंतु वैसा हुआ नहीं| इसके विपरीत अमजद खान के डायलॉग बहुत लोकप्रिय हुए| इसके बाद सलीम खान को लेकर अमजद खान ने उनके साथ न बोलने का शीतयुद्घ जारी रखा|

इसी ङ्गिल्म की सूरमा भोपाली की भूमिका जगदीप ने नकार दी थी क्योंकि जी.पी. सिप्पी ने ‘बह्मचारी’ ङ्गिल्म में उसकी भूमिका का योग्य पारिश्रमिक उसे नहीं दिया था| परंतु सलीम-जावेद के आग्रह के खातिर जगदीप ने यह भूमिका स्वीकार की एवं सिनेमा प्रेमी उसे सूरमा भोपाली के नाम से ही जानने लगे|

सिनेसृष्टि में कहानी कब मोड़ लेगी और कब उसका अंत बदल जाएगा यह निश्चित नहीं होता| ङ्गिल्म में मृत नायक का अंत बाद में बदल कर नायक को जीवित करने देने के कुछ उदाहरण हैं|

१९५३ की राज कपूर की आर.के. ङ्गिल्म्स के बैनर तले बनी ङ्गिल्म ‘आह’ में नायक राज कपूर की मृत्यु दिखाई गई थी| परंतु ङ्गिल्म पिट गई| शायद नायक की मृत्यु वाला अंत प्रेक्षकों को रास न आया होगा यह समझ कर राज ने ङ्गिल्म का अंत बदल कर नायक को जीवित किया|

निर्माता नासिर हुसैन ने १९६७ में निर्मित ‘बहारों के सपने’ में नायक राजेश खन्ना की न केवल मृत्यु ही दिखाई वरन उनकी अंत्ययात्रा भी दिखाई| दर्शकों को यह रास नहीं आया यह जान कर नासिर हुसैन ने जल्दीजल्दी में ङ्गिल्म का अंत बदल कर नायक को जिंदा किया परंतु तब तक देर हो चुकी थी| ङ्गिल्म फ्लॉप रही|

हृषिकेश मुखर्जी का अमिताभ अभिनीत ‘आलाप’ १९७७ में प्रदर्शित हुआ| उसमें भी अंत में अमिताभ की मृत्यु का चित्रण था| इसका भी हाल ऊपर बताई गई दोनों ङ्गिल्मों जैसा हुआ| इन तीनों ङ्गिल्मों में पुनर्जीवित नायक ङ्गिल्मों को संजीवनी नहीं दे सका|

‘आराधना’ ङ्गिल्म से राजेश खन्ना ने सङ्गलता का पहला स्वाद चखा| डबल रोल की इस ङ्गिल्म में पिता के रोल में उसकी मृत्यु दिखाई गई परंतु पुत्र रूप में उसका पुनर्जन्म दिखाया गया| यह कहानी लोगों को बहुत पसंद आई| राजेश खन्ना ने आगे चल कर आनंद, खामोशी, सङ्गर, अंदाज (मेहमान कलाकार) सरीखी ङ्गिल्मों में मृत्यु का आलिंगन कर के भी रसिक प्रेक्षकों के दिल में अमरत्व प्राप्त किया एवं ‘सुपरस्टार’ का खिताब हासिल किया|

मुंबई की मायानगरी के ङ्गिल्मी किस्से सिने रसिकों की चर्चा का विषय होते हैं, इसमें आश्चर्य नहीं| परंतु पुराने जमाने में मनोरंजन के साधन कम होने के कारण रसिकों को इस प्रकार की घटनाओं के विषय में विशेष उत्सुकता रहती थी| आज भी पुराने जमाने के किस्से बड़े ही चाव से चर्चित होते हैं| पुराने गानों की मेलोडी की चर्चा होती है| कथानुरूप गीतकारों द्वारा गीत रचना की चर्चा होती है| और अंत में सिने रसिकों का निष्कर्ष होता है, ‘गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा|’

 

Tags: arthindi vivekhindi vivek magazineinspirationlifelovemotivationquotesreadingstorywriting

विकास पाटील

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