एक अधूरी कहानी…

मनोहर पर्रिकर जी को हम सभी सादगीपूर्ण परंतु तेजतर्रार और हमेशा कार्यमग्न व्यक्ति के रूप में जानते हैं। उनका यह स्वभाव कैसे बना ये उन्होने ही अपने एक आलेख के माध्यम से प्रस्तुत किया था।

राजभवन का हॉल कार्यकर्ताओं से भर गया था। गोवा में भाजपा पहली बार सत्ता में आ रही है, यह देखकर सारे कार्यकर्ताओं में अति उत्साह था। मेरे इष्ट मित्र, गोवा के विभिन्न भागों से आये हुए कार्यकर्ता, शपथग्रहण कार्यक्रम में दिख रहे थे। मेरे मुख्यमंत्री बनने के कारण ये सारे लोग राजभवन में जमा थे। जिनके साथ मैंने राजनीति में प्रवेश किया वे मेरे सहयोगी, मेरे हितचिन्तक, पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ साथ मेरे दोनों पुत्र, बहन-भाई नजर आ रहे थे। फिर भी सामने दिखाई देने वाला चित्र अधूरा था। मेरी पत्नी और माता-पिता इनमें से कोई वहां नहीं था। उनकी मुझे तब बहुत याद आ रही थी। जिसकी मैंने कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी वह सत्य होते देखकर आनंदित तो मैं था ही परन्तु उस आनंद में भी एक दु:ख की छाया थी।

भाग्य का खेल कितना अजीब है। एक वर्ष में थोड़ी-थोड़ी कालावधि में मेरे पास के ये व्यक्ति मुझसे हमेशा के लिए दूर चले गए। जिनके कारण मुझे बल मिलता था, प्रेरणा मिलती थी, ऐसे मेरे इन स्वजनों की कमी कोई भी पूरी नहीं कर सकता था। एक तरफ भारतीय जनता पार्टी पहली बार गोवा में सत्ता संभाल रही थी, उसका आनंद तो दूसरी तरफ मेरे माता-पिता एवं मेरी पत्नी की अनुपस्थिति मुझे दु:ख पहुंचा रही थी। यदि आज वे जीवित होते तो सबसे ज्यादा आनंद इन्हीं तीनों को होता। सामने की भीड़ में मुझे इन तीनों की अनुपस्थिति बेहद खल रही थी। इतने दिनों मेरे संघ की जिम्मेदारियों के काल में ये तीनों मेरे साथ थे। राजनीति में अचानक प्रवेश हुआ, नई जिम्मेदारियों को मैं अच्छी तरह से निभा सका क्योंकि ये तीनों मेरे साथ थे। मुख्यमंत्री की शपथ लेते समय आज वे मेरे साथ यहां होने चाहिये थे। अब वास्तव में सच्चे अर्थो में मेरी राजनीतिक यात्रा प्रारम्भ हुई थी। इस महत्वपूर्ण काल में मेरे साथ जो मेरे अपने थे, होना चाहिए थे, परंतु वे नहीं थे।

कई बार हम अपने पास के व्यक्तियों के लिए यह मानकर ही चलते हैं कि वे तो अपने ही हैं और हमें छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। हमेशा हमारे पास ही रहेंगे। परन्तु ऐसा होता नहीं है। घटनाक्रम इतनी तेजी से बदलता है कि कुछ सूझता ही नहीं कि क्या करें। शायद हमारे पास कुछ करने को भी शेष नहीं बचता। मेरी पत्नी मेधा के बारे में भी यही हुआ। उसकी बीमारी तेजी से बढ़ती गई। इलाज के लिए पूरा समय न देकर ही उसकी बीमारी उसे हमसे बहुत दूर ले गई। सब कुछ इतना व्यवस्थित चल रहा था कि ऐसा कुछ हो जायेगा, यह भूलकर भी कभी मन में नहीं आया। मुझे वे दिन आज भी स्मरण आते है। हमारी शादी को पंद्रह वर्ष पूर्ण हो गए थे। एक तरफ फैक्ट्री का काम बढ़ता जा रहा था तो दूसरी ओर नई राजनीतिक जिम्मेदारी के कारण मेरा दिन बहुत व्यस्त चलने लगा। सत्ता में आने का मार्ग पास दिख रहा था, इस कारण मैं हड़बड़ी में था। मेधा को कुछ दिनों से बीच-बीच में बुखार आ रहा था। वह यह सब सहन कर रही थी और मेरे पास उसे डॉक्टर के पास ले जाने का भी समय नहीं मिल रहा था। मैंने उसे कहा कि घर में से किसी सदस्य को साथ लेकर डॉक्टर के पास हो आओ और वह डॉक्टर के पास हो आई। उसके रिपोर्ट्स आने बाकी थे। अत्यंत महत्वपूर्ण बैठक के लिए हम सब पार्टी कार्यालय में इकठ्ठा हुए थे। बैठक शुरू होते ही डॉ. शेखर सालकर का मुझे बार-बार फोन आ रहा था, मैंने फोन रिसीव किया। मेधा के रिपोर्ट ठीक नहीं थी। आगे चेकअप के लिए मेधा को तुरंत मुंबई ले जाना होगा, ऐसा डॉक्टर कह रहे थे। उस क्षण कुछ सूझ नहीं रहा था। दूसरे दिन हम उसे मुंबई ले गए। अभिजात छोटा था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि मां को क्यों ले जा रहें है। मुंबई ले जाने पर यह स्पष्ट हो गया कि उसे ब्लड कैंसर है। पैर की नीचे की जमीन खिसकाना क्या होता है, यह मुझे उस दिन समझ में आया। उसका इलाज तुरंत वहीं प्रारंभ हो गया। परन्तु एक माह के अन्दर ही उसका निधन हो गया। वह थी तो मुझे बच्चों की बिलकुल भी चिंता नहीं थी। उसके जाने के बाद अचानक बच्चों की चिंता ने मुझे घेर लिया। उत्पल तो फिर भी इस उम्र में था की वह कुछ समझ सके परन्तु अभिजात! उसे कैसे बताऊं यह समझ में नहीं आ रहा था। उसे अपनी मां की ही आदत थी। मेधा के जाने का सबसे अधिक धक्का उसे लगा। मां को इलाज के लिए हवाई जहाज से ले जाते उसने देखा था परन्तु वापस उसका शव आया। इसका परिणाम अभिजात पर ऐसा हुआ कि वह मुझे उस समय हवाई जहाज से यात्रा नहीं करने देता था। हवाई जहाज से गया हुआ व्यक्ति जिन्दा वापिस नहीं आता, ऐसी उसकी धारणा बन गई थी। उसे संभालना बहुत कठिन था। जिस समय मेधा की मुझे सबसे अधिक आवश्यकता थी और उसी समय वह चली गई। ऊपरी तौर पर मजबूत दिखने वाला मैं अन्दर से पूरी तरह टूट गया था। परन्तु उसी समय कुछ राजनीतिक जिम्मेदारियां ऐसी आईं कि मैं उनमें स्वयं को व्यस्त रखने लगा।

मेधा का और मेरा प्रेम विवाह हुआ था। मेधा मेरी बहन की ननद थी। इसके कारण बहन की शादी के समय से ही मैं उसे पहचानता था। आईआईटी की पढाई के लिए मैं मुंबई गया, पढाई के लिए कुछ साल वहीं रहना हुआ। बहन मुंबई में ही थी। आईआईटी में सप्ताह कैसे बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था परन्तु इतवार को घर के खाने की याद आती थी। फिर कई बार बहन के यहां जाना होता था। मैं आने वाला हूं यह जानकार वह भी मेरी पसंद का खाना बनाती थी। कभी खाना खाने के बहाने या कभी हफ्ते भर के कपड़े धोने के बहाने बहन के यहां आना-जाना बढ़ गया। उसी समय से सीधीसादी लम्बे बालों की वेणी बनाने वाली और अत्यंत आकर्षक आंखों वाली मेधा ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। उसे पढ़ने का बहुत शौक था इसलिए पहले इसी पर हमारी चर्चा हुआ करती थी। धीरे-धीरे हम दोनों में अच्छी मित्रता हो गई। इसी बीच शायद सभी को यह पता चल गया किया कि हम दोनों एक दूसरे से प्रेम करते है। मेरे निकट के मित्रों को तो आश्चर्यजनक धक्का ही लगा। एक मित्र ने तो यह भी कहा कि ‘मनोहर तुम भी किसी के प्रेमजाल में फंस सकते हो! सहीं नहीं लगता।’ रिश्ते में होने के कारण घर से विरोध होने का प्रश्न ही नहीं था।

मुंबई से आईआईटी करने के बाद मैंने मुंबई में कुछ दिन नौकरी की। वह नौकरी छोड़ते समय ही मैंने मेधा से शादी करने का निर्णय लिया। सभी को आश्चर्य हुआ कि पढाई के बाद नौकरी में स्थिरता आने पर लड़के शादी का विचार करते हैं, परन्तु मैं तो नौकरी छोड़ने के बाद शादी कर रहा हूं। इस समय मां मेरे साथ थी। मां ने कहा कि ‘तूने निश्चय किया है तो निश्चित ही तूने कुछ न कुछ विचार किया होगा’। फिर हमारी शादी सादगी के साथ मुंबई में संपन्न हुई। गोवा जाकर मैंने स्वयं की एक फैक्टरी शुरू करने का निश्चय किया था और इसलिए मुंबई की नौकरी मैंने छोड़ दी थी। मेरे इस निर्णय को मेधा का भी समर्थन प्राप्त था। उसके कारण ही मैं यह कदम उठा पाया। मुंबई के गतिशील जीवन में पली बढ़ी मेधा हमारे म्हापसा के घर के वातावरण में रम गई। मुंबई के मुकाबले में म्हापसा का वातावरण थोडा शांत व धीमा था। धीरे-धीरे म्हापसा के विभिन्न सामाजिक उपक्रमों का वह हिस्सा बनने लगी। उत्पल व अभिजात की स्कूल शुरु थी। हमारे एकत्रित परिवार में उसका समय कैसे बीत जाता था, यह उसे पता भी नहीं चलता था। अन्य दम्पतियों के समान हमारा सहजीवन नहीं था। जानबूझ कर समय निकाल कर पिक्चर देखने जाना या कहीं घूमने जाना संभव नहीं होता था। म्हापसा के पास जो मैंने फैक्टरी शुरू की थी, वह भी अच्छे से चल रहीं थी। सुबह और शाम के कुछ घंटे फैक्टरी में जाना पड़ता था। संघ के संघचालक की जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी। इन सब में स्वयं के लिए समय निकलता ही नहीं था। बच्चों की पढाई, उनके स्कूल में संपर्क, उनकी बीमारी आदि सब कुछ मेधा ही देखती थी। उस समय ऐसा लग रहा था कि जिन्दगी अब कुछ स्थिर हो चली है।

गोवा में आने के बाद मुझे ‘संघचालक’ का दायित्व दिया गया। घर के सभी लोग ‘संघ’ कार्य में सक्रीय थे ही। परन्तु मैं राजनीति में जाऊंगा, ऐसा मात्र किसी को भी नहीं लगा था। 1994 में भाजपा की ओर से उम्मीदवार खोजे जा रहे थे। उस समय उम्मीदवार के रूप में मेरा ही नाम आगे किया गया। मेरे लिए यह अनपेक्षित था। राजनीति में सक्रीय होने का मैंने कभी गंभीरतापूर्वक विचार ही नहीं किया था। 1994 में मैंने पहली बार चुनाव लड़ा। मेरे लिए पणजी सीट चुनी गई। महाराष्ट्रवादी गोमान्तक दल के साथ भाजपा का गठबंधन था। महाराष्ट्रवादी गोमान्तक पार्टी पणजी से कभी भी नहीं जीत पाई थी। इसलिए पणजी हारनेवाली सीट जानी जाती थी। ऐसी सीट से मुझे टिकट दिया गया। मां, पिताजी, मेधा इन सभी ने मेरे प्रचार में स्वयं को पूरी तरह झोंक दिया। राज्य की राजधानी का मैं जनप्रतिनिधि चुना गया। सबके चेहरों पर खुशियां दौड़ रही थीं। मेधा, मां, पिताजी ने मेरे लिए चुनाव प्रचार किया, ऐसा पहली और अंतिम बार हुआ। एक तरफ मेरे राजनीतिक जीवन की शुरुआत थी, दूसरी ओर मेरा व्यक्तिगत जीवन किसी और मोड़ पर खड़ा था।

मैं एक प्रकार से राजनीति में घसीटा गया था। सब कुछ इतनी तेजी से घट रहा था कि मुझे सोचने का समय ही नहीं मिल रहा था। राजनीति में मेरे प्रवेश के संबंध में मैंने मेधा से बातचीत की थी। वह भी इस निर्णय से थोड़ी अस्वस्थ थी। फैक्टरी शुरू करना व उसका व्यवसायिय रूप से सफल होना, यह मेरा स्वप्न था और मेरे स्वप्न में मेधा भी उतनी ही सहभागी थी। फैक्टरी शुरू हो गई थी परन्तु अब राजनीति में सक्रीय होने के बाद फैक्टरी पर कितना ध्यान दे पाऊंगा, इसकी चिंता उसे थी। मुझे भी पूरे समय राजनीति नहीं करनी थी। बाद में विचार करने के बाद मैंने निर्णय किया कि आने वाले दो टर्म अर्थात दस वर्ष तक ही मैं राजनीति में रहूंगा। मैंने मेधा को ऐसा वचन भी दिया। उसके बाद मैं राजनीति छोड़कर अपनी फैक्टरी पर ही ध्यान दूंगा, यह बात भी मैंने मेधा को बताई थी। लेकिन समस्याएं कभी बता कर नहीं आती। मेरे राजनीतिक जीवन में प्रवेश करने के कुछ दिनों बाद ही ह्रदय रोग के कारण पिताजी का निधन हो गया। घर का एक आधार समाप्त हो गया। पीछे-पीछे मां भी चल बसी। दोनों की मृत्यु से मुझे सदमा लगा था। इस दु:ख से बाहर निकला ही था कि मेधा की बीमारी पता चली थी। एक के बाद एक संकटों का क्रम चालू था। राजनीतिक जीवन में सफलता की एक-एक सीढ़ी मैं चढ़ रहा था लेकिन मेरे साथ रहने वाले मेरे अपने सब मुझसे दूर जा रहे थे।

यदि मेधा होती तो शायद उसको दिए गए वचन के अनुसार मैंने राजनीति छोड़ दी होती। शायद मेरा जीवन कुछ अलग होता। कई लोग पूछते है कि आप 24 घंटे कार्यरत रहते हैं, इसके पीछे क्या कारण है? मैं मन में सोचत हूं जिसके लिए मैं राजनीति छोड़ने वाला था, अब वही नहीं रही। लेकिन इस दौरान मैंने फैक्टरी को कभी नजरअंदाज नहीं किया। एक टाइम टेबल बनाकर दिन के कुछ घंटे मैं फैक्टरी को देने लगा। मैं चाहे कितना भी व्यस्त रहूं, फैक्टरी का काम मैं स्वयं देखता था। मैं यदि राजनीति में नहीं होता तो फैक्टरी के लिए अनेक काम मैं कर सकता था।

मेधा की मुझे बिलकुल परवाह नहीं थी, ऐसा नहीं था, परंतु फिर भी जब यह मालूम हो कि व्यक्ति कभी वापस नहीं आएगा, तब उसकी सच्ची कीमत पता चलती है। बहुत ही कम सहजीवन हमें प्राप्त हुआ। मुझे और बच्चों को उसकी आवश्यकता थी। रक्षामंत्री बनने के बाद मेरे 60 वर्ष पूर्ण करने के निमित्त सभी कार्यकर्ताओं ने पणजी में एक कार्यक्रम आयोजित किया था। इस कार्यक्रम में केन्द्रीय स्तर के भी अनेक कार्यकर्ता शामिल हुए थे। उसमें से एक को पता नहीं था कि मेधा अब इस संसार में नहीं है। अपनी शुभकामना प्रकट करते हुए भाषण में उन्होंने कहा ‘पर्रीकर जी आपने भी ये गाना गुनगुनाया होगा -जब हम होंगे साठ साल के और तुम होगी पचपन की।’ यह शब्द सुनते ही मन में थोड़ा दुःख हुआ। उस बिचारे को मेधा जीवित नहीं है, यह तक पता नहीं था। अगले ही क्षण मेधा का चेहरा आखों के सामने आ गया। मैं तो साठ वर्ष का हो गया लेकिन जो पचपन की होनी थी, वह मात्र पहले ही चली गई। इस विचार से ही मैं व्याकुल हो गया। अपने भाषण में मैंने इस बात का उल्लेख किया परन्तु इसके आगे मुझसे कुछ बोलते ही नहीं बन रहा था। जीवन के इस मोड़ पर जो मेरे साथ उतनी ही ताकत से खड़ी रहती थी, एक अच्छा और सुन्दर जीवन जिसने जिया था, अब वही नहीं थी। मेरे पास आज सब कुछ है लेकिन जिसका साथ मिलना था वही नहीं थी।

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