फिर लौट आएगा भारतीय शिल्पकला का स्वर्णयुग – उत्तम पाचारणे,

ललित कला अकादमी के अध्यक्ष प्रसिद्ध शिल्पकार उत्तम पाचारणे नष्ट होती जा रहीं हमारी प्राचीन महान शिल्पकला के प्रति चिंतित हैं। इस धरोहर को बचाने के लिए प्राचीन शिल्पकला पर आधारित पाठ्यक्रम हमारी शिक्षा में शामिल किए जाने का उनका आग्रह है। इससे शिल्पकला को समाज का संरक्षण प्राप्त होगा और देश-दुनिया को भी इस कला के महान विश्वकर्मा मिलेंगे। हमारा स्वर्णयुग फिर लौट आएगा। उनसे कला क्षेत्र के विभिन्न पहलुओं पर हुई बातचीत के कुछ महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत हैं-

कला के संदर्भ में आपका क्या दृष्टिकोण है?

कोई भी कला जीवन का प्रतिबिंब है। कलाकार जो संस्कार समाज में पाता है उसे अपनी कल्पनाशीलता के आधार पर आकर्षक बना कर दुबारा प्रस्तुत करता है। गद्य हो, पद्य हो, काव्य हो, सिनेमा या नाटक हो, सभी का एक ही उद्देश्य होता है। कहीं ना कहीं वह समाज सेवा से जुड़ा होता है। जो कलाकृतियां केवल कला के लिए होती हैं उन्हें अमूर्त  कहा जाता है। समाज के साथ ही कला और कलाकार का विचार भी बदलता रहता है। समाज के अनुभवों से कला बाहर आती है। कला समाज के एहसास को मजबूती प्रदान करती है। समाज से जुड़ा सृजन ही सच्ची कला है। कला समाज का दर्पण है।

आपके भीतर के कलाकार का जन्म कब और कैसे हुआ? 

वैसे तो कला के उभार की कोई तारीख नहीं होती, पर मोटे तर पर कहूं तो स्कूल के दिनों से ही मेरी कला का प्रकटीकरण होने लगा था। जब स्कूल के हेड मास्टर ने मेरी ड्रॉइंग देखी तब उन्होंने मुझे प्रोत्साहित किया। वे मुझे भारत का, महाराष्ट्र का नक्शा बनाने के लिए कहते। उसमें पहाड़, नदी, झरने, जंगल दर्शाने के लिए कहते। उनके अनुसार मैं चित्र बनाता था। उन्होंने मेरी खूब तारीफ की और कहा कि तुम बहुत सुंदर व अच्छी ड्रॉइंग करते हो। जब मैं आठवीं कक्षा में था, तब मैंने पहली बार ड्रॉइंग के लिए ब्रश हाथ में पकड़ा था। मुझे लगता है वही मेरी शुरुआत थी। धीरे-धीरे जब मैं अपने विचारों एवं कल्पना के आधार पर कलाकृतियां बनाने लगा, तो वे मुझे अपनी सी लगने लगीं।

आपने कला की बारीकियां कैसे सीखीं?

उस समय मुझे कोई तकनीक और कला की बारीकियां सिखाने वाला नहीं था। पाठ्यक्रम नहीं था। जब कोई तस्वीर देखता तो उसे ही देख कर चित्र बनाने लगता। एकलव्य की तर्ज पर ब्रश और कलर के सहारे मैं प्रैक्टिस करने लगा। जब हमें सिखाने वाला कोई नहीं होता तो हम स्वयं के शिक्षक स्वयं ही बन जाते हैं। इस दौरान मैंने छत्रपति शिवाजी महाराज, संत गाडगे बाबा, दिलीप कुमार आदि की  कलाकृतियां बनाईं और सतत अभ्यास के आधार पर सीखता चला गया।

उस दौर में जब आप ब्रश और कलर के सहारे चित्र बना रहे थे, तब क्या आपको कभी लगा कि कला के क्षेत्र में एक दिन आप इस मुकाम तक पहुंचेंगे?

नहीं, मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा था, कभी मन में ऐसा खयाल तक नहीं आया; क्योंकि मैं तो स्वयं के मनोरंजन और ड्रॉइंग मेंं अच्छे मार्क्स लाने के इरादे से ये सब करता था। हमारे ड्रॉइंग टीचर थे श्री तारे जी। उनका ड्रॉइंग पर विशेषाधिकार था। बेहद अच्छे शिक्षक थे। उन्होंने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि केवल एक घंटे अभ्यास करने वाला लड़का भी अच्छा चित्रकार बन सकता है, ड्रॉइंग की परीक्षा के काबिल हो सकता है तथा आगे जाकर शिक्षक बन सकता है। मैंने भी वही किया। दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद ड्रॉइंग टीचर बनने के लिए मैं पुणे में अभिनव कला महाविद्यालय में दाखिल हुआ।

क्या आप सचमुच ड्रॉइंग टीचर बनना चाहते थे?

स्कूल के दिनों में मेरे सहपाठी टीचर बनना चाहते थे। कोई गणित का टीचर बनना चाहता था, तो कोई इंग्लिश का टीचर बनना चाहता था। मेरी ड्रॉइंग अच्छी थी, तो मैंने ड्रॉइंग टीचर बनना चाहा। इसलिए उस दिशा में मैंने प्रयास किया। फाउंडेशन कोर्स पूरा होते ही पुणे में ही टीचर डिप्लोमा में मैं महाराष्ट्र में प्रथम क्रमांक से पास हुआ और आगे की पढ़ाई के लिए जे. जे.स्कूल ऑफ आर्ट्स में आ गया।

ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्र में आने के बाद आपकी संघर्ष यात्रा कैसी रही?

शहरों में जिस तरह की सुविधाएं होती हैं उस तरह की कोई सुविधा ग्रामीण क्षेत्र में नहीं होती। उस समय ग्रामीण क्षेत्र बहुत पिछड़ा हुआ था। सुविधाओं के अभाव में संघर्षरत रह कर मैंने स्कूली पढ़ाई पूरी की। मैं होस्टल में रहता था। खाने-पीने, जेब खर्च और पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए मैंने कठोर परिश्रम भी किए। मन में दृढ़ विश्वास और सकारात्मक दृष्ट्किोण के चलते सामने आने वाली हर चुनौती का मैंने डट कर सामना किया और राह में आने वाली हर बाधा को पार करते हुए अपनी संघर्ष यात्रा पूरी की।

आप चित्रकार से शिल्पकार कैसे बने?

यह मेरे जीवन का बहुत रोचक टर्निंग पॉइंट रहा। चित्रकला में मैंने सिद्धता प्राप्त कर ली थी। मुंबई में एक दिन मुझे शिल्पकला की क्लास में जाने का मौका मिला। शिल्पकला की गहराइयों को देख कर उसमें मेरी रुचि बढ़ने लगी। इसके बाद मैंने शिल्पकला सीखने का निर्णय किया। इसका मुख्य कारण यह था कि मेरे पिता भी पत्थरों से शिवलिंग और नंदी बनाते थे। यह काम मैंने भी बचपन से उनके साथ किया था। मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि गलती से मैं चित्रकला के क्षेत्र में चला गया जबकि मेरी असली राह शिल्पकला है। फिर मैं पूरी लगन से शिल्पकला सीखने लगा। धुले में आयोजित एक कला प्रदर्शनी में मैंने अपनी एक कलाकृति भिजवा दी, जिसके लिए मुझे कांस्य पदक मिला। यही मेरा टर्निग पॉइंट था। यहां से मेरी दिशा ही बदल गई।

कलाकृति बनाते समय स्वयं की कल्पना शक्ति और विचार की क्या भूमिका होती है?

शिल्पकला में आधुनिक के साथ पारंपारिक कलाओं का मिश्रण होता है। किसी भी कलाकृति को बेहतर बनाने के लिए स्वयं के विचार और कल्पना शक्ति की ही सबसे अधिक आवश्यकता होती है। उसी से कलाकृति में नयापन और विभिन्नता आती है। किसी भी कलाकार की नकल करना तो आसान होता है परंतु अपने विचारों के आधार पर कलाकृति बनाना चुनौतीपूर्ण होता है। शिल्प कलाकार की कल्पना किसी कवि से कम नहीं होती। जिस तरह एक कवि अपनी रचना को बनाते समय कल्पना के गहरे सागर में गोते लगाता हुआ कविता का सृजन करता है, ठीक उसी तरह एक शिल्पकार भी अपनी कला की गहराई में जाकर ही कलाकृति को आकार देता है। ऐसा हो तभी कलाकृतियां सजीव हो उठती हैं, ऐसा लगता है मानो उनमें जान आ गई हो, कलाकृतियां बस अभी बोल उठेंगी।

भारतीय शिल्पकला हमारी धरोहर है। क्या उसकी खोज, उसका संरक्षण, अध्ययन और उसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए?

जी, बिल्कुल। हमें हमारी राष्ट्रीय धरोहर को हमें संजो कर रखना चाहिए। भारतीय शिल्पकला के संरक्षण और उसे बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन की अत्यधिक आवश्यकता है। मैं मानता हूं कि भारतीय पौराणिक कथाओं के कई ऐसे अंग हैं जो कला के पूरक हैं। हमारे जो मंदिर शिल्प हैं, वे दुनिया का अद्भुत कला खजाना है, जिसकी ठीक से खोज होनी चाहिए। शिल्पकला के क्षेत्र में भारत में इतना खजाना भरा पड़ा हुआ है कि यदि सरकार इसे प्रोत्साहित करें तो दुनिया में हमें बेहद ऊंची प्रतिष्ठा प्राप्त होगी और आर्थिक लाभ भी होगा।

हमारी भारतीय शिल्पकला की क्या खासियत व विशेषताएं हैं, जो दुनिया में हमें सर्वश्रेष्ठ बनाती हैं?

मैं दक्षिण भारत की यात्रा पर गया था। उस दौरान कन्याकुमारी भी गया। मदुरै स्थित एक मंदिर में देखा कि सहस्र स्तंभों के आधार पर एक विशालकाय हॉल बनाया गया है। हर पत्थर की ध्वनि अलग है, हर पत्थर की साइज अलग है, हर पत्थर का नाद अलग है। यह हमारी शिल्पकला की अद्भुत देन है। वहां पर वराह, वायु, अग्नि, जल आदि के शिल्प देखे तो आपको आश्चर्य होगा कि ये दुनिया के सर्वश्रेष्ठ शिल्प हैं, जो दुनिया के किसी भी देश में किसी भी कोने में देखने को नहीं मिलेंगे। ये सारे शिल्प अनोखे और अप्रतिम, अतुलनीय हैं। यह हमारी सबसे प्राचीन संस्कृति की अनमोल धरोहर है। और यही भारतीय शिल्पकला की खासियत एवं विशेषताएं हमें दुनिया में सर्वश्रेष्ठ बनाती हैं तथा गौरवान्वित करती हैं।

क्या हमारी शिक्षा में शिल्पकला से संबधित पाठ्यक्रम को शामिल करना चाहिए?

समय के साथ हमारी शिल्पकला नष्ट होती जा रही है, शिल्पकारों की संख्या धीरे-धीरे घटती जा रही है। पहले जैसे कलाकर अब रहे नहीं। यदि प्राचीन शिल्पकला पर आधारित पाठ्यक्रम हमारी शिक्षा में शामिल किए जाएंगे तो निश्चित रूप से पुनर्जागरण होगा। इससे शिल्पकला के प्रति आकर्षण भी बढ़ेगा, साथ ही देश-दुनिया को शिल्पकला के महान विश्वकर्मा भी मिलेंगे। जैसे दक्षिण भारत में हम प्राचीन शिल्पकृति देखते हैं वैसी ही कलाकृतियां हमें फिर से देखने को मिलेंगी। महाबलिपुरम में शिल्पकृतियों के वर्कशॉप देखते हैं तो ध्यान में आता है कि अभी भी लोग बड़ी संख्या में कलाकृतियां बनाते हैं। यह हमारी पारंपारिक धरोहर है और इसे बचाए रखना बेहद जरूरी है।

भारतीय शिल्पकला के उत्कर्ष हेतु कौन से महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने की आवश्यकता है?

प्राचीन और आधुनिक कला के क्षेत्र में भारतीयों में आज भी बहुत प्रतिभाशाली हुनरबाज कलाकार मौजूद हैं। आवश्यकता है उनके सम्मान, मान को बढ़ाने तथा उन्हें प्रोत्साहित करने हेतु पुरस्कृत करने की। उनकी कलाकृतियां आदर, सम्मान की हकदार हैं। यदि सरकार इस विषय पर कार्य करती है, लाखों के पुरस्कार रखती है तो फिर से गौरवशाली शिल्प कलाकृतियां बननी शुरू हो जाएंगी। केवल भारतीय पत्थरों और भारतीय स्टाइल में, राष्ट्रीय स्टाइल में राष्ट्रीय स्तर पर कार्यशालाओं का आयोजन लगातार होता रहे तो हमारा स्वर्णयुग लौट आएगा और भारतीय शिल्पकला का उत्कर्ष हमें दिखाई देने लगेगा।

क्या हमारी शिल्पकलाओं पर पश्चीमीकरण हावी होता जा रहा है और हम दिशाहीन हो गए हैं?

यह कड़वी सच्चाई है कि हम आज जो कलाकृतियां बना रहे हैं उन पर पाश्चात्य संस्कृति के संस्कार हैं। हमारी जो भी शिक्षा प्रणाली है वह वेस्टरनाइज है। इसलिए हम दिशाहीनता का शिकार हुए हैं और गलत दिशा में जा रहे हैं। हमें यही बताया गया कि हमारी कला तुच्छ है, आधुनिक विदेशी कला ही सर्वश्रेष्ठ है। हम इसे ही सत्य मान कर पाश्चात्यीकरण का अंधानुकरण करने लगे हैं, जिसका खामियाजा हमें भुगतना पड़ा। परिणामत: हमारी सर्वश्रेष्ठ भारतीय कला ही पतन के कगार पर आ गई।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आने के बाद क्या शिल्पकला क्षेत्र मेंं परिवर्तन हुआ है?

कुछ समय पूर्व यह पूछा जाता था कि शिल्पकला में भारतीयत्व कहां है? इंडियनाइजेशन कहा है? आप भारतीय हैं, आपके भारतीय होने के कुछ प्रतीक तो मिले, आपके भारतीय कलाकार होने का कुछ नाता तो बताइए? जमीन से जुड़ा आपका जो संबंध है, उसकी जो गंध आपकी कलाकृति से आनी चाहिए, भारतीयता के जो रंग दिखाई देने चाहिए वे तो दिखाइए। आपकी कलाकृति से भारत का कोई संबंध दिखाई नहीं देता, जैसे अनेक सवाल किए जाते थे। क्योंकि हमारी कलाकृति पूरी तरह से वेस्टर्न हो चली थी। उसमें किंचित भी भारतीयता दिखाई नहीं देती थी और न ही कहीं से भी उसमें भारतीय संस्कृति की झलक ही मिलती थी। लेकिन नरेंद्र मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शिल्पकला के क्षेत्र में बुनियादी परिवर्तन हुए और उनके विचारों से कला जगत में एक नया उत्साह आया है। आज की कलाकृति में भारत के गौरवशाली इतिहास और भारतीय संस्कृति, संस्कार, सभ्यता के चिह्न साफ दिखाई देते हैं। मोदी के बदलाव की ही बयार है कि वर्तमान समय में बड़ी संख्या में गौतम बुद्ध, राधा-कृष्ण और महापुरुषों की कलाकृतियां बन रही हैं। पहले जो पश्चिमी झुकाव की जो कथित आधुनिकता थी, वह अब चली गई है और हर कलाकार भारतीय स्टाइल को खोज रहा है। मुझे लगता है कि मोदी जी के आने के बाद बहुत बड़ा बदलाव हुआ है।

भारतीय शिल्पकला की कुछ रोचक बातें बताएं?

अब केवल मंदिरों में ही भारतीय शैली की शिल्पकला देखने को मिलती है। उसकी जो रचना है, उसके जो मूल्य हैं, विचार हैं, संदेश हैं वे किताबों में विस्तार से लिखे पाए जाते हैं जैसे मूर्तियों की मुद्राएं कैसी हैं? मुद्रा का भाव क्या है? उसका एक्सप्रेशन क्या है? भारतीय शिल्पकलाओं की सबसे रोचक बात यही है कि मूर्तियां अपनी मुद्राओं से भाव-भंगिमाओं को प्रकट करती हैं। जैसे नटराज की मूर्ति यह संदेश देती है कि मानव के लिए नृत्य एक वरदान की तरह है। वह रोगों को नष्ट करता है और शरीर को स्वस्थ रखता है। शिव के तांडव नृत्य को देखें तो आप पाएंगे कि उसमें विभिन्न योग मुद्राएं शामिल हैं। उसमें योग के आसन समाहित हैं। मेरा मानना है कि हमारी भारतीय शिल्पकला मानवता के साथ जुड़ी हुई है। यदि आप पाश्चात्य शिल्पकलाओं को देखेंगे तो आपको ध्यान में आएगा कि उसमें नग्नता- अश्लीलता की भरमार है। वे नग्नता को ही सबसे अधिक प्राथमिकता देते हैं।

कला क्षेत्र के उभार और उसे बढ़ावा देने के लिए सरकार से आपकी क्या अपेक्षा है?

ललित कला अकादमी का लक्ष्य है कला को बढ़ावा देना। आने वाली पीढ़ी में कला की बारीकियां प्रसृत करना। इसके लिए  महाराष्ट्र में 250 से अधिक कॉलेज हैं। हम चाहते हैं कि अलग-अलग क्षेत्रों में नए-नए सेंटर खुले। इसलिए बीते 4 दशकों से ललित कला सेंटर की स्थापना हेतु हमने महाराष्ट्र सरकार से गुहार लगाई है और हम लगातार प्रयास कर रहे हैं। महाराष्ट्र सरकार से हमने कई बार इस संदर्भ में वार्ता की है, महाराष्ट्र सरकार ने आश्वासन तो दिया है; लेकिन उसे अमल में लाने के लिए हमें अभी तक जमीन मुहैया नहीं कराई है। मुझे ऐसा लगता है कि कला के प्रति सरकार की उदासीनता के चलते लापरवाही और लेटलतीफी की जा रही है। बावजूद इसके मैं प्रयासरत हूं। मुझे उम्मीद है कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस कला के रसिक हैं इसलिए वे ललित कला की आवश्यकताओं को समझेंगे और हमारे प्रस्ताव को मान्यता प्रदान करेंगे। आरे में एक जमीन आबंटित की गई है लेकिन उसका कब्जा हमें नहीं दिया गया है। सरकार से मेरी यही अपेक्षा है कि जल्द से जल्द इस समस्या का हल करें।

ललित कला अकादमी के द्वारा कौन-कौन से कार्य पूरे देश में किए जा रहे हैं?

राष्ट्रीय स्तर पर अनेक कार्यक्रम अकादमी द्वारा सतत किए जाते हैं। कलाकारों को प्रोत्साहित करने और उन्हें बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय प्रदर्शनी लगाई जाती है। देश के अनेक राज्यों में शिविर लगाए जाते हैं। ललित कला का अर्थ है जो ललित है, सभी को पसंद है, सभी की मान्यता है, सभी को स्वीकार्य है। दुनिया में कही भी ललित कला को प्रस्तुत किया जा सकता है। यह देशों की सीमाओं से परे है, कोई भी सरहद इसे रोक नहीं सकती। चित्र, शिल्प, काव्य, नृत्य, सिनेमा आदि ललित कला के अंग हैं। शिक्षा के रूप में भी ललित कला का बहुत महत्व है। व्यक्ति के अंदर का जो भाव है वह ललित है, यही भाव वह प्रकट करती है। यही सृजन है। हर माह 2-3 शिविर देश के किसी न किसी हिस्से में होते रहते हैं। देश में 6 बड़े विकसित सेंटर हैं। और 4 सेंटर बनाने का हमने लक्ष्य रखा है।

ललित कला अकादमी के आप अध्यक्ष हैं, कला क्षेत्रों में उत्साहपूर्ण माहौल बनने के लिए आप क्या करना चाहते हैं?

अभी ललित कला अकादमी द्वारा 10,000 रुपये की स्कॉलरशिप दी जाती है। मेंरा यह प्रयास है कि छात्रों को 25,000 रुपये स्कॉलरशिप मिले। क्योंकि देश के कई हिस्सों से छात्र पढ़ने के लिए आते हैं। शहर में रहना, रुकना सब कुछ महंगा होता है। इसलिए 10 हजार रुपये छात्रों के लिए पर्याप्त नहीं है। आर्थिक रूप से कमजोर छात्र स्कालरशिप छोड़ देते हैं और अपने घर चले जाते हैं, जिससे उनका सपना अधूरा रह जाता है। ऐसे लोगों के सपने पूरे करने के लिए मैं चाहता हूं कि उन्हें 25 हजार रु. स्कालरशिप मिले जिससे वे आर्थिक परेशानी में न पड़े और मन लगा कर शिक्षा ग्रहण करें। इस तरह का सकारात्मक और उत्साहजनक माहौल बनाने के लिए मेरा यह आश्वासन है कि छात्रों को बहुत ही जल्द 25 हजार रु. स्कालरशिप मिलेगी।

व्यावसायिक और रोजगार की दृष्टि से कला क्षेत्र में कौन से बदलाव अपेक्षित हैं?

दुनिया भर में तकनीक बहुत विकसित हुई है। सीएनसी और सीएनजी तकनीक नई आई है। ग्लास सिरामिक्स, ग्राफिक मशीनरी, लेटेस्ट आर्किटेक्ट डिजाइन आदि अनेकानेक मशीनीकृत तकनीकें आ रही हैं, जिससे बडी संख्या में प्रोडक्शन हो रहा है। हमारी स्थिति यह है कि अब भी हम पुरानी पद्धति अनुसार ही बच्चों को पढ़ाए जा रहे हैं। छात्रों के द्वारा ही कलाकृतियां बनाई जा रही हैं। हस्तकला का उपयोग होना चाहिए लेकिन उसके आगे जाकर अत्याधुनिक मशीनरी के इस्तेमाल से प्रोडेक्टेविटी को हमें बढ़ावा देना होगा। अफ्रीकी आर्ट, चीनी आर्ट बड़ी तेजी से दुनियाभर में फैल रही हैं। यहां तक कि हमारे आराध्य भगवान और महापुरूषों की कलाकृतियां चीन से बन कर आ रही हैं। कला के क्षेत्र में अरबों रुपयों का जो व्यापार है वह विदेशियों के हाथों में आज भी है। इसलिए हमें भी नई अत्याधुनिक मशीनरी एवं शिक्षा पद्धति को हमारे यहां लाकर प्रोडक्शन पर बल देना चाहिए, जिससे हम कला क्षेत्र के आरबों रुपये के बाजार में खिलाड़ी बन सके। इसमें व्यवसाय और रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। यदि हम ऐसा बदलाव हमारे यहां ला पाए तो निश्चित रूप से हमारे देश के नौजवानों को व्यवसाय, स्वयं व्यवसाय और रोजगार मिलेगा। कला के क्षेत्र में बहुत बड़ा बदलाव अपेक्षित है। इसके साथ ही कला की दिशा में, कला के आनंद की दिशा में और कला की प्रगति के लिए समाज में जागरूकता की आवश्यकता है। कला देश की अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान दे सकती है और व्यवसाय -स्वरोजगार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। ललित कला अकादमी और सांस्कृतिक मंत्रालय मिल कर बदलाव की दिशा में काम कर रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि बहुत जल्द ही कला क्षेत्र में आमूलचूल बदलाव दिखाई देगा।

अंडमान और निकोबार द्वीप की सेल्युलर जेल में काला पानी की सजा पाए देशभक्त क्रांतिकारियों की प्रतिमाएं आप लगाने वाले हैं। उसके पीछे आपकी क्या सोच है और क्या योजना है?

सेल्युलर जेल में स्वतंत्रता सेनानियों का सम्मान करने के लिए ‘स्वतंत्रता ज्योति’ लगाई गई थी और इसके बाद ‘सावरकर ज्योति’ लगाई गई थी। हाल ही में मैं सेल्युलर जेल गया था। उसका निरीक्षण करने के दौरान मेंरे मन मेंं यह विचार आया कि इस जेल में जिन-जिन स्वतंत्रता सेनानियों को कठोर यातनाएं दी गईं और फांसी की सजा दी गई, उन सभी महान लोगों की याद में उन सभी की प्रतिमाएं लगाई जानी चाहिए ताकि देशवासियों को आजादी के दीवानों की बलिदानी गाथा का पता चलें और लोग वहां पर उनके प्रति सम्मान व्यक्त कर सकें। जिन क्रांतिकारियों ने भारत की आजादी के लिए अपना घरबार, अपनी जवानी और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उन महात्माओं का सदा स्मरण रखने और राष्ट्रभक्ति के प्रेरक पुरूषों का अभिवादन करने के लिए मैंने यह पवित्र संकल्प किया है। आने वाले समय में हम सेल्युलर जेल में 2 शिविरों का आयोजन करने वाले हैं। स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनियों पर आधारित हम चित्र बनाएंगे; ताकि यहां आने वाले पर्यटक समझ सकें कि ये कौन थे जो हमारे लिए मरे। यदि हम उनका ज्वलंत प्रेरणादायी इतिहास वहां पर पढ़ेंगे तथा राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत क्रांतिकारियों के विचार पढ़ेंगे तो हमें पता चलेगा कि हमारे लिए जिन्होंने आपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, अपने प्राणों का बलिदान कर दिया, वे कितने महान थे। मेरा मानना है कि ललित कला अकादमी के लिए यह कार्य सबसे गौरवशाली व ऐतिहासिक होगा।

आपने परमवीर चक्र से सम्मानित, हुतात्माओं और महापुरूषों -राष्ट्रपुरूषों की अप्रतिम प्रतिमाएं बनाई हैं, वें कौन कौन सी हैं?

अपने शौर्य, पराक्रम से दुश्मनों के दांत खट्टे करने वाले भारतीय सेना के बहादुर योद्धाओं- परमवीर चक्र से सम्मानीत यदुवंश सिंह, वीर अब्दुल हमीद और मंगल पांडे की भव्य प्रतिमाएं मैंने लखनऊ में बनाई थीं। इसके अलावा गोरखपुर यूनिवर्सिटी में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 12 फुट ऊंची प्रतिमा, रायबरेली यूनिवर्सिटी में महात्मा ज्योतिबा फुले की 12 फुट ऊंची प्रतिमा, मेरठ में स्वामी विवेकानंद की भव्य प्रतिमा, लखनऊ यूनिवर्सिटी में छत्रपति शिवाजी महाराज की आकर्षक 14 फुट की प्रतिमा आदि प्रतिमाएं बनाई हैं। मुझे ऐसा लगता है कि देश के महापुरुषों के प्रति देश ऋणी है इसलिए उनकी विशालकाय प्रतिमाएं देश में बनती रहनी चाहिए ताकि देशभक्ति की प्रेरणा युवाओं को मिलती रहे।

प्रतिमाओं की भाव-भंगिमा, मुद्रा दर्शन के लिए आप के मन में किस तरह के विचार होते हैं? और प्रतिमाओं को आप किस तरह से आकार देते हैं?

यदि हमें शिवाजी महाराज की प्रतिमा बनानी है तो सबसे पहले यह बात ध्यान में आती है कि एक योद्धा कैसा हो? उसका जीवन चरित्र कैसा था, व्यक्तित्व कैसा था, समाज उसे किस रूप में जानता है, मानता है आदि विषयों का आकलन करने के बाद उसी अनुरूप प्रतिमाओं को आकार दिया जाता है। गांधीजी की प्रतिमा हम शांतिदूत के रूप में बनाते हैं और गौतम बौद्ध की प्रतिमा बहुत ही नूतन भाव समाधि ध्यान मुद्रा में बनाते हैं। भाव दर्शन, मुद्रा दर्शन आदि खूबियां कलाकार के स्वयं के गुणों को भी दर्शाती हैं। कलाकार से ज्यादा समाज उससे प्रेरणा लेता है। समाज द्वारा सराही गई कलाकृतियों को ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

कला के प्रति समाज में आकर्षण निर्माण करने हेतु ललित कला अकादमी द्वारा कौन से ठोस कदम उठाए गए हैं?

राष्ट्रीय ललित कला अकादमी द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर कार्यक्रम किए जाते हैं, जिनमें समाज के लोगों को भी बुलाया जाता है। समाज द्वारा कलाकारों को सराहा भी जाता है, जिससे कलाकारों में नई ऊर्जा उत्साह का संचार होता है। समाज द्वारा कलाकारों का सम्मान करने पर एक सुखद दृश्य हमें दिखाई दता है। खास बात यह है कि कलाकारों द्वारा समाज के लोगों के साथ संवाद और कला के बारे में बारीकियां व कला की गहराइयां बताने पर समाज और कलाकार का मजबूत संबंध स्थापित हो रहा है। समाज को भी आगे आकर कला को प्रोत्साहित करना चाहिए तथा समाज में इस संबंध में जागरूकता आनी जरूरी है।

क्या कुछ कलाकार अपनी कला का दुरुपयोग भी करते हैं?

जी हां, हमारे देश में कुछ ऐसे भी कलाकार हैं जो अपनी कला की अभिव्यक्ति का दुरुपयोग करते हैं और अपनी समाज, देश विरोधी मानसिकता का परिचय देते हैं। वे जानबूझकर ऐसी तस्वीर और कलाकृति बनाते हैं जिससे देश में बवाल मचता है और समाज में गलत संदेश जाता है। मंदिर में जाने से हमारे मन में क्या भाव आता है? भगवान की मूर्ति देखने से क्या भाव होता है? अच्छी सृजनात्मक प्रदर्शनी देखने से हमारे मन में कैसे भाव आते हैं? जब कोई कलाकार भगवान की मूर्ति का अपमान करते हुए उसे नग्न अवस्था या अश्लील रूप में प्रस्तुत करता है तो धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचती है। तब ऐसे कलाकारों का विरोध होता है। समाज द्वारा उसका धिक्कार किया जाता है। ऐसे घृणित समाज विरोधी मानसिकता के कलाकारों के खिलाफ कठोर कार्रवाई होनी चाहिए।

बॉम्बे आर्ट सोसायटी से आपकी यादें जुड़ी हुई हैं, इस बारे में कुछ बताएं?

1980 के दौरान मैं सोसायटी से जुड़ा। गोपालराव आंबेडकर मेंरे गुरू थे। वे एक महान चित्रकार थे। जब मुझे गोल्ड मेडल मिला तब उन्होंने पीठ पर शाबासी में जोर से धमाका जड़ा था और कहा था कि याद रहे यह दिमाग पर हावी नहीं होना चाहिए यानि कला के प्रति प्रेम कभी कम नहीं होना चाहिए। जब वे सोसायटी से हट गए तो उन्होंने मुझे चेयरमैन में रूप में प्रस्थापित किया। मैं लगभग 22 वर्षों तक सोसायटी में 3 बार चेयरमैन के रूप में रहा। मैं रोज स्टूडियो से निकलने के बाद जहांगीर आर्ट गैलरी में बैठता था। आज मैं कभी-कभी वहां पर जाता हूं तो पता चलता है कि वहां पर कोई आता नहीं है, बैठता नहीं है। एक दिन की बात है जब मैं गैलरी में गया तो वहां पर बैठने वाले बुजुर्ग ने कहा कि, “आप पर मुझे गुस्सा आता है, क्यों आप छोड़ गए? क्यों इलेक्शन हार गए? बॉम्बे आर्ट सोसायटी को छोड़ कर क्या मिला आपको? देखो, अब यहां पर कोई नहीं आता है।” इस बात ने मुझे पूरी तरह से झकझोर दिया। अब कोई यहां नए कलाकारों का मार्गदर्शन नहीं करता है। यह बड़े ही दुख की बात है। सोसायटी का आफिस फिर से शुरू होना चाहिए। बांद्रा में बॉम्बे आर्ट सोसायटी का जो सेंटर बनाया गया है, चुन कर आने के बाद भी वहां पर लोग नहीं जाते हैं। यह मैंने स्वयं देखा है। इस संदर्भ में बहुत लोगों ने शिकायतें की हैं। मुझे उनसे इतना ही कहना है कि यदि आप सेंटर को समय नहीं दे सकते हैं तो फिर आप चुनाव क्यों लड़ते हैं? काम करने वालो को काम क्यों नहीं करने देते हैं? क्यों पद पर डटे हैं? काम करने वालों को वहां पर भेजिए। बता दूं कि पश्चिम महाराष्ट्र, मुंबई और कला जगत में बॉम्बे आर्ट सोसायटी का बहुत योगदान रहा है। अमृता शेरगिल चित्रकला क्षेत्र में एक चमकता सितारा मानी जाती थीं। तब के समय में उसे गोल्ड मेडल मिला था। धनी अंग्रेजों ने यह शुरू किया था। फिर भारतीय विचारकों ने इसे स्वीकार किया। यह कला जगत का बहुत बड़ा सेंटर है। इसे सही तरीके से आगे भी चलाना चाहिए। सरकार को भी इसमें आगे आना चाहिए। सेंटर की क्या समस्याएं हैं, उसका हल करने के लिए सरकार को भी सहायता प्रदान करनी चाहिए।

आपकी सबसे बेहतरीन कौन सी कलाकृति है जिसे आप सर्वाधिक पसंद करते हैं?

मेरे ही टाइप की बनी कलाकृतियां मुझे बेहद पसंद हैं। मेरी आधुनिक शैली की ‘बर्निग हुमन थर्ड’ नामक कलाकृति मुझे बेहद पसंद है। इसमें मुझे नेशनल अवॉर्ड मिला था। इसमें वास्तववादी शैली में बनी सावरकर ज्योति और स्वातंत्र्य ज्योति मेरी सबसे अधिक पसंदीदा कलाकृतियां हैं; क्योंकि यह मुझे देश के लिए सर्वस्व त्योछावर करने वाले महान क्रांतिकारियों व देशभक्तों की याद दिलाती हैं। इससे मेरा भावनात्मक लगाव सबसे अधिक है।

नेशनल अवॉर्ड के अलावा आप को कौन-कौन से पुरस्कार मिले है?

मुझे 1985 में नेशनल अवॉर्ड मिला था। उसके उपरांत महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार से मुझे सम्मानित किया गया। प्रफुल्ल डहाणुकर फाउंडेशन द्वारा 1 लाख रू. का पुरस्कार मुझे दिया गया। हाल ही में पुणे के तिलक विद्यापीठ ने डाक्टरेट की उपाधि देकर मुझे सम्मानित किया है।

कलाकारों को प्रोत्साहित करने के लिए क्या आप उन्हें पुरस्कार देकर सम्मानित करते हैं?

मुझे जब पुरस्कार मिले उसके बाद मेरे मन में यह भाव आया कि मुझे तो बहुत पुरस्कार मिल चुका है, अब नए कलाकारों को अवसर मिलने चाहिए। इसलिए मैंने स्पर्धा में भाग लेना छोड़ दिया और नए कलाकारों के मनोबल को ऊंचा उठाने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए मैंने स्वयं उन्हें अवॉर्ड के रूप में पुरस्कार देना शुरू किया। यह बहुत बड़ी बात नहीं है। बस शुद्ध भाव से उन्हें कला से जोड़ने का यह एक तरीका व माध्यम है।

कलाकारों के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार क्या होता है?

मेरा मानना है कि कलाकारों को पुरस्कार मिलना यह कोई मापदंड तो नहीं है। लेकिन कलाकर की आइडेंटी दिखाने के तरीके हैं। मुझे ऐसा लगता है कि कलाकार का कलाकार होना ही सबसे बड़ा अवॉर्ड है और कलाकार की कलाकृति ही उसका सबसे बड़ा पुरस्कार है। हम अच्छी से अच्छी कलाकृतियां बना कर समाज को सकारात्मक संदेश दें, उसे बदलें। कला के माध्यम से समाज को हम रसिक बनाए। यदि समाज को हम कला की तरफ मोड़ सके तो समाज ध्वंस से बच जाएगा और आनंद से रहने लगेगा। मुझे लगता है कि इसमें सरकार का सबसे बड़ा योगदान हो सकता है। क्योंकि कोई भी काम धन के बिना नहीं हो सकता। उसके लिए सरकार योजनाएं बनाए और उन्हें अमल में लाने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध कराए।

त्रैवार्षिक भारत प्रदर्शनी बंद हो चुकी है। उसे फिर से शुरू करने के लिए आपने क्या पहल की है?

जी हां, राष्ट्रीय स्तर की सबसे बड़ी प्रदर्शनी फिर से शुरू करने की पहल मैंने की है। सरकार से मुझे सकारात्मक आश्वासन मिला है। इसके लिए समिति का गठन कर भव्य आयोजन किया जाएगा। हम चाहते हैं कि इस प्रदर्शनी को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाया जाए और इसमें 100 से अधिक देश भाग ले। इसके साथ ही देश के जाने माने 500 कलाकार शामिल हो। इस प्रदर्शनी में 10 लाख रू. का अवॉर्ड दिया जाएगा। इसलिए मैं कलाकारों को आवाहन करता हूं कि वह लगन व मेहनत से ऐसी अतुलनीय सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियां बनाए, जिससे भारत की कलाकृतियां पूरे विश्व में सराही जाए। इसके अलावा अगले माह हम राष्ट्रपति भवन में वरिष्ठ कलाकारों का एक शिविर भी लगाने जा रहे हैं।

प्रधानमंत्री कार्यालय और राष्ट्रपति भवन में आपने कितनी पेंटिंग्ज व कलाकृतियां लगाई हैं?

मेरे ही कार्यकाल में ललित कला अकादमी द्वारा 70 पेंटिंग राष्ट्रपति भवन और 70 पेटिंग प्रधानमंत्री कार्यालय में लगवाई गई हैं। कुछ शिल्पाकृतियां भी हम भेजने वाले हैं। विदेशों से आने वाले मेहमानों, प्रतिनिधियों, नेताओं आदि को भी पता चलें कि भारत की कितनी स्तरीय, उत्तम, अतुलनीय कलाकृतियां व पेंटिंग्ज हैं।

आपके मन की बात बताएं?

मैं यह चाहता हूं कि अंडमान के सेल्युलर जेल की जो कालकोठरी हुतात्माओं, क्रांतिकारियों के अस्तित्व की निशानी है। वहां उनके नाम से स्थायी रूप से चित्र प्रदर्शनी लगाई जाए। ताकि हमारी आने वाली पी़ढियों को राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा मिलती रहे।

कला के प्रति रूचि निर्माण करने के लिए आप हमारे हिंदी विवेक पाठकों को क्या कहना चाहेंगे?

जैसे हम लिखने के लिए कलम उठाते हैं, ठीक वैसे ही हाथ में ब्रश लीजिए और पेंटिग बनाए। विश्वास कीजिए ये रंग आपके जीवन में रंग भर देंगे और आपके जीवन को रंगीला, आशावान, उत्साहित बना देंगे। ब्रश और रंग के साथ आप खेल कर तो देखिए, यह आपको कितना आनंदित करेगा, जिसके बारे में आप सोच भी नहीं सकते।

 

 

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