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मध्यप्रदेश में फिर खिलेगा कमल

मध्यप्रदेश में फिर खिलेगा कमल

by प्रमोद भार्गव
in अप्रैल २०२०, देश-विदेश, राजनीति, सामाजिक
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कांग्रेस की कमलनाथ सरकार के इस्तीफे से ज्योतिरादित्य सिंधिया, शिवराज सिंह चौहान और भाजपा की बल्ले-बल्ले है। अब वहां कमल खिलने के आसार हैं। इसका प्रभाव कांग्रेस शासित अन्य राज्यों पर भी पड़ सकता है।

आखिरकार मुख्यमंत्री कमलनाथ की सरकार बनने के 15 माह के भीतर ही गिर गई। उन्होंने विधान सभा में शक्ति-परीक्षण का मुकाबला करने की बजाय पत्रकार वार्ता के बाद राज्यपाल लालजी टंडन को शालीनतापूर्वक इस्तीफा सौंप दिया। विधायकों की खरीद-फरोख्त और बंधक बनाए रखने की अलोकतांत्रिक प्रक्रिया के चलते कांग्रेस सरकार गिर गई। भारतीय लोकतंत्र में यह बड़ी विडंबना बनी हुई है कि जो नेता जिस चुनाव चिह्न और एजेंडे के बूते चुन कर विधायक बनते हैं, वहीं अपने स्वार्थ के लिए मूल दलों के साथ विश्वासघात कर बैठते हैं। यही वजह है कि मूल्यों और विचारधारा की राजनीति इतनी पेशेवर एवं महत्वाकांक्षी हो गई है कि जब किसी नेता को ऐसा लगता है कि उसकी स्वार्थ सिद्धि नहीं हो पा रही है तो वह नैतिकता की सभी मान-मर्यादाएं लांघने को तत्पर हो जाता है। वैसे तो जोड़-तोड़ की इस राजनीति का इतिहास बहुत लंबा है, लेकिन पिछले कुछ समय से निरंतर दिखाई दे रही है।

बहरहाल तात्कालिक स्थिति में इस परिवर्तन की धुरी रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और भाजपा की तो बल्ले-बल्ले है, लेकिन कांग्रेस जिस खालीपन का अनुभव करेगी, उसकी भरपाई लंबे समय तक आसान नहीं है।

मध्य-प्रदेश में कमलनाथ सरकार का गिरना तो उसी दिन तय हो गया था, जिस दिन सिंधिया ने भाजपा का दामन थाम लिया था और छह मंत्रियों सहित कांग्रेस के 22 विधायक बंधक बना लिए गए थे। बाद में इन सभी ने अपने इस्तीफे भी विधान सभा अध्यक्ष एन पी प्रजापति को भेज दिए थे। इनमें से छह इस्तीफे तो अध्यक्ष ने तत्काल स्वीकार कर लिए थे, लेकिन 16 को लटका कर रखा हुआ था। जिससे कमलनाथ इनमें से कुछ विधायकों को वापस लाने में सफल हो जाएं। इस मकसदपूर्ति के लिए जीतू पटवारी और फिर दिग्विजय सिंह बेंगलुरु भी गए, लेकिन परिणाम शून्य रहा। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने 19 मार्च को इस आशय का आदेश पारित कर दिया कि 20 मार्च 2020 को शाम पांच बजे तक विधान सभा में बहुमत साबित किया जाए। गोया, विधानसभा में बहुमत का गणित कमलनाथ भली-भांति जानते थे, इसलिए उन्होंने शक्ति-परीक्षण की बजाय इस्तीफा देना मुनासिब समझा। कालांतर में इसका असर राजस्थान, झारखंड और महाराष्ट्र में भी दिख सकता है।

कांग्रेस को राज्यों में सफलता मिलने के बाद सरकारें इस तरह गिरने लग जाएंगी और केंद्रीय नेतृत्व के प्रति कार्यकताओं का विश्वास इतनी जल्दी टूटने लग जाएगा, यह किसीने नहीं सोचा था। अब इसकी भरपाई सोनिया, प्रियंका और राहुल को करना मुश्किल होगा। सिंधिया की बगावत से स्वयं सिंधिया, शिवराज सिंह चौहान और भारतीय जनता पार्टी बड़े लाभ में हैं। लेकिन सिंधियानिष्ठ बागी विधायकों के इस्तीफे मंजूर होने के बाद उनका क्या हश्र होगा यह वक्त ही तय करेगा। सिंधिया का राज्यसभा सदस्य और फिर केंद्रीय मंत्री बनना तय है। सवा साल से निर्वासित शिवराज एक बार फिर से मुख्यमंत्री लगभग बन जाएंगे। हालांकि ऐसी अटकलें भी हैं कि मुख्यमंत्री का चेहरा बदला भी जा सकता है। नरेंद्र सिंह तोमर या नरोत्तम मिश्रा अचानक मुख्यमंत्री बनाए जा सकते हैं। हालांकि बदलाव की इस राजनीति में शिवराज की भूमिका अहम् रही है।   गोया, केंद्रीय नेतृत्व शिवराज को किनारे कर देगा ऐसी आशंका कम हैं। यह भी ध्यान रखना होगा कि मध्य-प्रदेश में भाजपा को जिन 114 विधान सभा सीटों पर जीत मिली थी, वे शिवराज के कामकाज से मतदाता की संतुष्टि का ही परिणाम थी। शिवराज के साथ इस रणनीति में नरेंद्र सिंह तोमर, धर्मेंद्र प्रधान, वी डी शर्मा, नरोत्तम मिश्रा और गोपाल भार्गव भी सक्रिय रहे हैं। इस लोटस ऑपरेशन में मैदानी भूमिका में अरविंद भदौरिया, विश्वास सरांग, उमाशंकर गुप्ता, संजय पाठक, आशुतोष तिवारी, राजेंद्र सिंह और विजेश लूनावल अहम् रहे हैं। एक समय प्रदेश की राजनीति और शिवराज के सलाहकार रहे प्रभात झा, उमा भारती, कैलाश विजयवर्गीय और राकेश सिंह को इस रणनीति से दूर रखा गया।

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भी इस आने वाले सत्ता परिवर्तन से बल मिलेगा। सिंधिया भाजपा में आने से पहले धर्म-निरपेक्षता के प्रखर पैरोकार रहे हैं। अब उनका भाजपा की शरण में आने का मतलब है, नरेंद्र मोदी सरकार ने जो नीतिगत बड़े बदलाव किए हैं, उन्हें कांग्रेस का एक धड़ा देश की अखंडता और संप्रभुता के लिए संविधान सम्मत मानने लग जाएगा। हालांकि सिंधिया के भाजपा में जाने का यह अर्थ लगाना गलत होगा कि वे संवैधानिक लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और जनसेवा के लिए भाजपा में गए हैं। दरअसल लोकसभा चुनाव में हार के बाद सिंधिया और उनके परिवारिक शुभचिंतक यह ताड़ गए थे कि कांग्रेस का अब कोई भविष्य नहीं है, इसलिए डूबते जहाज से उड़ान भरना ही सार्थक है। इस मकसद पूर्ति के लिए उनके ससुराल पक्ष (बडौदा राजघराना) और डॉ कर्ण सिंह की भी प्रेरणा रही है। कर्ण सिंह के बेटे से ज्योतिरादित्य की बहन की शादी हुई है। अब ऐसे भी कयास लगाए जा रहे हैं कि कर्ण सिंह के पुत्र भी जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अहम् भूमिका निभाने की द़ृष्टि से भाजपा में चले जाएंगे। सिंधिया के भाजपा में जाने के मार्ग को प्रशस्त करने का काम उनकी बुआ वसुंधरा और यशोधरा राजे सिंधिया ने भी किया है।

दरअसल सिंधिया को प्रदेश नेतृत्व द्वारा महत्व नहीं दिए जाने के बहाने से कहीं ज्यादा पार्टी से असंतुष्टि का कारण वर्चस्व का टकराव रहा है। सिंधिया एक बड़े राजघराने से आते हैं, इसलिए वे आसानी से किसी के साथ घुल-मिल नहीं पाते। उनका आचार-व्यवहार राजा और प्रजा का ही रहता है। इस वर्चस्व की लड़ाई को सिंधिया सरकार पर वचन-पत्र में किए वादे पूरे नहीं करने की बातें भाषणों में बार-बार कह कर  गहराते रहे हैं। इसी वजह से संविदा शिक्षकों के संदर्भ में तंज कसने पर कमलनाथ को कहना पड़ा था कि ‘सिंधिया यदि सड़क पर उतरना चाहते हैं तो उतर जाएं।‘ जबकि सच्चाई यह है कि कमलनाथ आर्थिक संकट के बावजूद कर्जमाफी की प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे थे। तीस लाख किसानों के पचास हजार तक के चार सौ करोड़ रुपए के कर्ज सरकार माफ कर चुकी है और दूसरे चरण में साढ़े सात लाख रुपए के कर्ज माफ किए जा रहे हैं। अब कमलनाथ सरकार गिर गई है, नई सरकार को  आगे कर्जमाफी करना मुश्किल होगा?

इस्तीफे मंजूरी के बाद अब बड़ा संकट उन सिंधियानिष्ठ विधायकों पर आने वाला है, जिनकी विधान सभा की सदस्यता खत्म हो गई है। इन्हें भविष्य में भाजपा का टिकट पाने के लिए भी संघर्ष करने के साथ चुनाव जीतना आसान नहीं होगा। उपचुनावों में मूल भाजपाइयों के टिकट नहीं मिलने पर बागी तेवर भी देखने को मिल सकते हैं। अलबत्ता भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इतनी नादानी कभी नहीं करेगा कि वह सभी बागी विधायकों को सिंधिया के कहने पर टिकट दे, दे? क्योंकि भाजपा और संघ यह कूटनीतिक रणनीति अपनाने में सिद्धहस्त हैं कि किसी दूसरे दल से आए नेता को कभी इतनी ताकत न दी जाए कि वह शाक्तिशाली होकर भाजपा नेतृत्व को ही चुनौती बन जाए। भाजपा की इसी कूटनीति के चलते कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आया नेता कुछ समय बाद ही घर वापसी को मजबूर हो जाता है। सिंधिया के साथ भी कालांतर में यदि यह स्थिति बनती है तो यह हैरानी में डालने वाली बात नहीं होगी।

 

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