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तालिबान से बढ़ी भारत की चुनौतियां

A Taliban fighter looks on as he stands at the city of Ghazni, Afghanistan August 14, 2021. REUTERS/Stringer NO RESALES. NO ARCHIVES

तालिबान से बढ़ी भारत की चुनौतियां

by अवधेश कुमार
in ट्रेंडींग, देश-विदेश, राजनीति
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भारत के संदर्भ में विचार करें तो अफगानिस्तान में तालिबान के हाथों सत्ता आने से केवल उसकी आंतरिक राजनीति नहीं बदली बल्कि पूरे क्षेत्र की भू -राजनीतिक -सामरिक स्थिति व्यापक रूप से परिवर्तित हो गई है ? केवल भारतीय ही नहीं, विश्व भर में शांति के लिए समर्पित सभी देशों के वासी अफगानिस्तान की स्थिति देखकर हतप्रभ हैं। अमेरिका और पश्चिमी दुनिया ने अफगानियों और वहां रहने वाले विदेशियों को एक घोषित आतंकवादी संगठन के हवाले छोड़ दिया है। पाकिस्तान को छोड़िए ,जिस तरह चीन ,रूस, तुर्की सहित अन्य कई देश आम अफगानी और अफगानिस्तान की चिंता के बगैर तालिबान से संबंध बनाकर काम करने का ऐलान कर रहे हैं वह ज्यादा स्तब्ध करने वाला है। विश्व की प्रतिक्रिया जो हो ,भारत के लिए चुनौतियां बढ़ गई हैं। जब अक्टूबर-नवंबर 2001 में अफगानिस्तान से तालिबान के बर्बर शासन का अंत हुआ था तो भारत सहित विश्व के जानकार लोगों की प्रतिक्रिया यही थी कि अफगानी पाकिस्तानी उपनिवेशवाद से आजाद हो गए। सच यही था कि तालिबान के माध्यम से अफगानिस्तान पाकिस्तान का उपनिवेश बन गया था। अब स्थिति पलटकर लगभग 20 वर्ष पहले की अवस्था में पहुंची है तो इसे क्या कहेंगे यह आप तय करिए।

हमारी चुनौतियों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अफगानिस्तान के कारण गृह मंत्रालय को वीजा नियमों में बदलाव करना पड़ा है। भारत सरकार ने एक नई इमरजेंसी एक्स मिसलेनियस वीजा कैटेगरी को शामिल किया है। इससे अफगानिस्‍तान से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे लोगों को आसानी से वीजा मिल सकेगा। जैसा हम देख रहे हैं अफगानिस्‍तान की सीमा से लगने वाले देशों की सीमा पर अफगानिस्तान छोड़कर जाने बाले भारी संख्‍या में लोग इंतजार कर रहे हैं। काबुल हवाई अड्डे पर बेतहाशा भागते लोगों का दृश्य दुनिया भर  ने देखा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने घोषणा किया है की ऐसी परिस्थिति में हम अफगानिस्तान के लोगों को उनके हवाले नहीं छोड़ सकते तथा दुनिया से अपील की है कि  उनको शरण दें और उनका ध्यान रखें। अफगानिस्तान और भारत के सदियों पुराने संबंधों को देखते हुए हमारी जिम्मेदारी है कि हम इसमें आगे आए। लेकिन भारत की चुनौतियां यहीं तक सीमित नहीं है।

काबुल में भारत के दूतावास के अलावा अफगानिस्तान के चार शहरों-जलालाबाद, मज़ारे शरीफ, हेरात और कंधार में भारत के वाणिज्य दूतावास बंद करने पड़े हैं । भारत ने वहां आधारभूत संरचना और विकास परियोजनाओं में तीन लाख डॉलर का निवेश किया है तथा करीब 400 परियोजनाएं हाल में आरंभ की है। भारत अफगानिस्तान के आधारभूत परियोजनाओं में सबसे बड़ा निवेशकर्ता है। भारत ने मध्य एशिया से कारोबार व संपर्क-संबंधों के लिए ईरान के रास्ते अफगानिस्तान को जोड़ने की योजना बनाई थी। ईरान में चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे लाइन योजना के साथ भारत ने अफगानिस्तान में जरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है।भारत ने ईरान और अफगानिस्तान के साथ 2016 में एक त्रिपक्षीय समझौता किया था। इसमें ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक कॉरिडोर बनाने की बात है। भारत ने अफगानिस्तान को इस रास्ते से गेहूँ भेजकर इसकी शुरुआत भी कर दी थी। इस परियोजना का लक्ष्य व्यापक है। इसे उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर के साथ भी जोड़ने की योजना पर काम चल रहा था, जिसमें रूस समेत मध्य एशिया के अनेक देश शामिल हैं। इस कॉरिडोर को मध्य एशिया के रास्ते यूरोप से जोड़ने की भी योजना है।

कल्पना कर सकते हैं कि तालिबान के आने के बाद तत्काल भारत की भावी कारोबारी सामरिक और संपर्क संबंधी लक्ष्यों पर कितना बड़ा आघात पहुंचा है। सच तो यही है कि अफगानिस्तान में निर्वाचित सरकार के पतन और तालिबान के हाथों में सत्ता आने के बाद इस समय अगर किसी देश को वर्तमान और भविष्य की दृष्टि से सर्वाधिक नुकसान पहुंचने का खतरा है तो वह भारत है। हम भारतीय इसका आकलन नहीं कर रहे हैं तो इसका अर्थ है कि हम वास्तविकता देख नहीं पा रहे हैं। पाकिस्तान और चीन के प्रभाव को देखते हुए इस बात की पूरी आशंका है कि वे तालिबानी शासन को भारत को सारी परियोजनाओं पर काम नाकरने देने के लिए तैयार करने की कोशिश करें। चीन हर हाल में पाकिस्तान केंद्रित सीपैक का विस्तार अफगानिस्तान तक करना चाहेगा। अगर तालिबानी अफगानिस्तान इसके लिए तैयार हो गया तो भारत के लिए वहां जगह नहीं बचेगी। चीन के जिस बॉर्डर रोड इनीशिएटिव का भारत विरोध करता रहा है वह अफगानिस्तान में विस्तारित हो जाएगा। इस तरह अफगानिस्तान के भारत के लिए एक और पाकिस्तान बन जाने का खतरा पैदा हो गया है। तालिबान के पाकिस्तान के साथ संबंधों को ध्यान रखें तो भारत में आतंकवाद की दृष्टि से भी चुनौतियां बढ़ी है। पाकिस्तान भारत के विरुद्ध तालिबान के इस्तेमाल की कोशिश कर सकता है। वहां चीन-पाकिस्तान सामरिक गठजोड़ जितना सशक्त होगा भारत के लिए समस्याएं और चुनौतियां उतनी ही बढ़ती जाएंगी। कल तुर्की वहां आएगा और इस तरह धीरे-धीरे भारत विरोधी देशों का प्रभाव बढ़ जाएगा।

हालांकि तालिबान के प्रवक्ता का बयान है कि हमको भारत-पाकिस्तान के आपसी संबंधों से लेना-देना नहीं है। हमें दोनों देशों से अलग- अलग रिश्ते रखेंगे। उन्होंने भारत को आश्वस्त किया है कि उसकी किसी परियोजना को स्पर्श नहीं किया जाएगा। तालिबान ने चीन को स्पष्ट आश्वासन दिया कि उनके यहां शिंजियांग के विद्रोहियों को अपने देश का कतई इस्तेमाल नहीं करने देगा और न उनको पनाह देगा। इस प्रकार की घोषणा तालिबान ने भारत और विशेषकर जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में नहीं की है। तालिबान अफगान पश्तून संगठन जरूर है लेकिन उसकी ओर से लड़ने के लिए आतंकियों की बड़ी फौज पाकिस्तान और दूसरे देशों से पहुंची है। पाकिस्तान स्थित तहरीक-ए-तालिबान जैश-ए-मोहम्मद आदि संगठन तालिबान के साथ कंधे से कंधे मिलाकर लड़ रहे थे। भारत के बारे में उन संगठनों की क्या नीतियां और गतिविधियां हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं। क्या तालिबान उनको अपनी जमीन पर सक्रिय रहने से रोक सकता है? शीर्ष स्तर का तालिबानी नेतृत्व संभव है अपनी ओर से भारत विरोधी किसी भी प्रकार का कदम  उठाते नहीं दिखे,लेकिन वह नीचे स्तर पर इसको नहीं रोकेगा। तालिबान के प्रवक्ताओं के इस बयान के बावजूद कि कोई भी उसका जंगजू किसी के घर में प्रवेश नहीं करेगा तालिबानी जगह-जगह घरों में प्रवेश करते रहे और इसकी सहमति भी नेतृत्व की ही है। तालिबानी नेतृत्व ने ऐलान किया कि वे काबुल में लोगों के घरों की तलाशी ले रहे हैं ताकि हथियार निकाले जाए क्योंकि अब किसी को हथियार की आवश्यकता नहीं है। इसका मतलब हथियार केवल तालिबान और उनके साथ देने वाले आतंकवादी संगठनों के हाथ रहेगा। उसका परिणाम क्या होगा? हम आप अनुमान लगा सकते हैं।

भारत की विकट स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अफगानिस्तान के मामले पर कोई देश भारत के साथ आज सक्रिय रूप से नहीं खड़ा है। अनेक देश भारत के साथ हैं ,इसकी भावनाओं से भी सहमत हैं, मध्य एशिया के देश उन परियोजनाओं को पूरा भी होते देखना चाहेंगे ,अनेक देश यह भी चाहेंगे कि भारत में आतंकवाद न बढ़े ,कई देश स्वयं अपने यहां आतंकवाद का खतरा बढ़ने को लेकर चिंतित हैं , चीन से अनेक देशों को समस्या है लेकिन वे वक्तव्य आदि देने से आगे नहीं आएंगे। कुछ देशों को तो पता नहीं क्यों तालिबानों से मोहब्बत ही हो गई है। रूस कह रहा है कि अफगानिस्तान अब पहले से ज्यादा शांत और सुरक्षित है, काबुल पहले से ज्यादा बेहतर दिख रहा है ,अशरफ गनी की शासन व्यवस्था अराजकता का नमूना था जो ताश के पत्तों की भांति ढह गया आदि आदि। काबुल में अपनी जान बचाने के लिए बेतहाशा भागते लोग जिस देश को नजर नहीं आ रहा है वह भारत के साथ खड़ा होगा इसकी उम्मीद मूर्खों के स्वर्ग में रहने जैसा होगा।

यह केवल एक देश की स्थिति नहीं है। भारत अफगानिस्तान के संदर्भ में अगर किसी देश से सबसे ज्यादा उम्मीद कर सकता था तो वह अमेरिका है। अमेरिकी शीर्ष नेतृत्व पर इस समय ऐसा अदूरदर्शी राष्ट्रपति बैठा है जिसे वहां की घटनाओं को लेकर कोई लेना-देना नहीं। उसने आम अफगानी तो छोड़िए अफगान सेना को इस तरह बेसहारा छोड़ दिया कि जो जवान की वर्ष से तालिबानों से लोहा ले रहे थे , बलिदान दे रहे थे वे बिल्कुल निराश्रित हो गए। अब राष्ट्रपति जो बिडेन कह रहे हैं कि हमारे वहां जाने का एक ही उद्देश्य था कि आतंकवादी अमेरिकी जमीन पर हमला न कर सकें, हम वहां अलकायदा के विरुद्ध गए थे और हमने ओसामा बिन लादेन को मार गिराया। उनका यह भी कहना है कि तालिबान से लड़ना ,उसको परास्त करना संभव नहीं है और अमेरिका वहां सदा के लिए नहीं रह सकता। यह एक अलग से विचार का विषय है कि क्या अमेरिका को वहां से अभी जाना चाहिए था और जाने के पहले अफगान फौज के लिए रशद सहित सैन्य साजो सामान की आपूर्ति तथा संघर्ष में मारागनिर्देश आदि की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए थी? ऐसा होता तो तालिबान इतनी आसानी से विजीत नहीं होते।

इसकी समीक्षा करने की बजाय भारत के लिए निष्कर्ष इतना ही है कि अमेरिका वहां की स्थिति को उसके हवाले छोड़े रखेगा ,किसी तरह के बदलाव के लिए कोई सैन्य व  बाध्यकारी कूटनीतिक कदम नहीं उठाएगा। अमेरिका भारत का केवल सामरिक नहीं रक्षा साझेदार भी है। डोनाल्ड ट्रंप के काल में भारत का प्रमुख रक्षा साझेदार बना और दोनों देश एक दूसरे के अड्डों तथा लॉजिस्टिक तक का उपयोग कर सकते हैं। ऐसा देश अगर अपनी महाशक्ति की हैसियत या तालिबान, पाकिस्तान ,चीन और उसके साथ दूसरे कट्टरपंथी देशों के गठबंधन से विश्व एवं स्वयं अमेरिका को खतरा नहीं देख पा रहा है तो उससे क्या उम्मीद कर सकते हैं। अफगानिस्तान पर आयोजित सुरक्षा परिषद की बैठक हमने देख ली। केवल सदस्य देशों ने चिंता प्रकट की लेकिन जिस तरह 11 सितंबर ,2001 को न्यूयॉर्क में आतंकवादी हमले के बाद कार्रवाई का एक स्वर उठा था, सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित हुआ था ,अमेरिकी नेतृत्व में नाटो को मिलाकर सैन्य गठबंधन बना था उस तरह का कोई विचार तक वहां नहीं आया।

तो फिर रास्ता क्या है? इसका उत्तर आसान नहीं है। भारत में इस पर दो राय हैं। कुछ लोगों का मानना है कि भारत को वास्तविकता से समझौता कर तालिबान शासन से संबंध बनाना चाहिए लेकिन एक बड़ा समूह कह रहा है कि हमको हड़बड़ी नहीं दिखाना चाहिए, वहां की घटनाओं पर नजर रखें एवं फैसला बाद में करें। वास्तव में जल्दबाजी में हमने कुछ देशों की तरह तालिबान के समर्थन में बयान दिया,  संबंध बनाने की हड़बड़ी दिखाई तो कल हमारे सामने कई प्रकार के प्रश्न और समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। हां, भविष्य के लिए हमें सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक हर स्तर पर मोर्चाबंदी के लिए पूरी तरह तैयार होना चाहिए। यह बात सही है कि तालिबान आगे लंबे समय तक वहां से हटने वाले नहीं लेकिन किसी परिवर्तन को सदा के लिए मान लेना भी उचित नहीं।

 

 

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