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अफगानिस्तान की  हलचल का  भारत पर  प्रभाव

अफगानिस्तान की हलचल का भारत पर प्रभाव

by प्रमोद जोशी
in देश-विदेश, विशेष, सितंबर- २०२१
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अफगानिस्तान में तालिबान का वर्चस्व स्थापित हो चुका है। राष्ट्रपति अशरफ गनी, उपराष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह और उनके सहयोगी देश छोड़कर चले गए हैं। फौरी तौर पर लगता है कि सरकार के भीतर उनके ही पुराने सहयोगियों ने उनसे सहयोग नहीं किया या वे अपने अस्तित्व को बचाने के लिए तालिबान से मिल गए हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक वहां की अंतरिम व्यवस्था पर विचार-विमर्श चल ही रहा है। इसमें कुछ समय लगेगा। यह व्यवस्था इस बात की गारंटी नहीं कि देश में सब कुछ सामान्य हो जाएगा। फिलहाल तालिबान अपने चेहरे को सौम्य और सहिष्णु बनाने का प्रयास कर रहे हैं, पर उनका यकीन नहीं किया जा सकता। समय आने पर वे अपना अमानवीय रूप दिखाएंगे। इस समय की सौम्यता वैश्विक-मान्यता प्राप्त करने के लिए है, जिसमें अमेरिका की महत्वपूर्ण भूमिका होगी।

अमेरिकी साख हुई खराब

इस पूरे प्रकरण में अमेरिका की साख सबसे ज्यादा खराब हुई है। ऐसा लग रहा है कि बीस साल से ज्यादा समय तक लड़ाई लड़ने के बाद अमेरिका ने उसी तालिबान को सत्ता सौंप दी, जिसके विरुद्ध उसने लड़ाई लड़ी। ऐसा क्यों हुआ और भविष्य में क्या होगा, इसका विश्लेषण करने में कुछ समय लगेगा, पर इतना तय है कि पिछले बीस वर्ष में इस देश के आधुनिकीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह एक झटके में खत्म हो गई है। खासतौर से स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, मानवाधिकार कार्यकर्ता और नई दृष्टि से सोचने वाले युवक-युवतियां असमंजस में हैं।

तमाम स्त्रियां इस दौरान, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, पुलिस अधिकारी और प्रशासक बनी थीं मगर अब उनका भविष्य गहरे अंधेरे में चला गया है। फिलहाल इस मामले के तीन पहलुओं पर विचार करना होगा। पहला वहां की नई राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था किस प्रकार की होगी? दूसरा सत्ता में तालिबान की भागीदारी किस प्रकार की होगी और उनका बर्ताव कैसा होगा? तीसरे भारत की भूमिका क्या होगी? इस परिवर्तन का काफी प्रभाव भारत की भूमिका पर पड़ेगा। इस घटनाक्रम में पाकिस्तान की भूमिका कितनी गहरी है, इससे भी भारत की भूमिका का निर्धारण होगा।

समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार तालिबान के प्रवक्ता मोहम्मद नईम ने कतर के मीडिया हाउस अल जज़ीरा से कहा कि हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ शांतिपूर्ण रिश्ते रखना चाहते हैं और उनके साथ किसी भी मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार हैं। तालिबान अलग-थलग होकर नहीं रहना चाहता। उन्होंने यह भी कहा कि अफगानिस्तान में किस तरह की शासन व्यवस्था होगी इसके बारे में जल्द स्पष्ट हो जाएगा। उन्होंने कहा कि शरिया कानून के तहत महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तालिबान सम्मान करता है।

स्त्रियों की चिंता पर मलाला का ट्वीट

तालिबानी की विजय की खबर आने के बाद मलाला यूसुफजई ने ट्वीट किया, ‘अफगानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण होने से हम स्तब्ध हैं। मुझे स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और मानवाधिकार-समर्थकों को लेकर चिंता है। वैश्विक, क्षेत्रीय और स्थानीय शक्तियों को चाहिए कि वे फौरन युद्धविराम कराएं, जरूरी मानवीय सहायता मुहैया कराएं और शरणार्थियों तथा नागरिकों की हिफाजत करें।’ मलाला युसुफजई वही हैं, जिसे तालिबान ने इसलिए गोली मारी थी, क्योंकि वे पढ़ना चाहती थीं और लड़कियों की पढ़ाई की समर्थक थीं।

तालिबान के अंतर्विरोध अब देखने को मिलेंगे। वे यदि पत्थरों और कोड़ों से सजा देने और स्त्रियों को घर में कैद करने वाली व्यवस्था को लागू करेंगे, तो उन अफगान नागरिकों को परेशानी होगी, जिन्होंने पिछले 20 साल में एक नई व्यवस्था को देखा है। खासतौर से 20 साल से कम उम्र के बच्चों को दिक्कत होगी। तालिबान प्रवक्ता दावे कर रहे हैं कि हम वैसे नहीं है। यदि वे आधुनिक बनने का प्रयास करेंगे, तो पूछा जा सकता है कि उन्होंने सत्ता में भागीदारी को अस्वीकार क्यों किया, चुनाव लड़कर सरकार बनाने को तैयार क्यों नहीं हुए? क्या वे आधुनिक शिक्षा की व्यवस्था करेंगे? क्या स्त्रियों को कामकाज का अधिकार देंगे?

शांति का माहौल बनाने की थी जरूरत

दुनिया के अनेक मुस्लिम देशों में स्त्रियां अपेक्षाकृत आधुनिक हैं। तुर्की, अज़रबैजान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान के अलावा पाकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया की लड़कियां भी मुसलमान हैं। यह भी सही है कि अमेरिका को अंततः हटना ही चाहिए मगर उसके लिए तालिबान की नहीं बल्कि शांति का माहौल बनाने की जरूरत थी। अभी देखना होगा कि अंतरिम व्यवस्था कैसी बनेगी और सरकार कैसे चलेगी? तालिबान को दुनिया के साथ बनाकर रखना होगा और अपने नागरिकों की हिफाजत करनी होगी। अभी सबसे पहले उन लोगों को काबू में करने की चुनौती होगी, जिनके हाथों में बंदूक है लेकिन उन्हें अनुशासित करना आसान नहीं होगा।

अमेरिका ने तालिबान के साथ समझौता अपने हितों को देखते हुए किया है। डोनाल्ड ट्रंप ने इसकी शुरुआत की और जो बाइडेन प्रशासन ने इसे कार्य रूप में परिणत किया। मान लिया कि अमेरिका इस युद्ध के भार को लम्बे समय तक वहन नहीं कर सकता था, पर जिस तरीके से उन्होंने अपनी सेना अफगानिस्तान से हटाई, वह भी अविश्वसनीय है। ऐसा लगता ही नहीं कि उन्हें अफगान नागरिकों और आसपास के देशों के हितों की फिक्र है।

भारत पर क्या होगा प्रभाव?

भारत पर इसका क्या असर होगा? इस विषय पर हमें ठंडे मन से विचार करना होगा। खासतौर से सुरक्षा पर। यदि इस सरकार को वैश्विक मान्यता मिली, तो हमें भी उसके साथ रिश्ते रखने होंगे और अपने हितों की रक्षा के लिए तालिबान के साथ सम्पर्क स्थापित करना होगा। विदेश-नीति अंततः राष्ट्रीय हितों की रक्षा का नाम है। दूसरी तरफ तालिबान कुछ भी कहे लेकिन उनपर विश्वास नहीं किया जा सकता। हमारी समझ है कि वे पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की सलाह और निर्देशों पर चलते हैं। भविष्य में वे किस रास्ते पर जाएंगे, पता नहीं। लश्करे-तैयबा और जैशे-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठन उनके साथ कदम मिलाकर चलते रहे हैं। ये आतंकवादी गिरोह कश्मीर में भी सक्रिय हैं।

पाकिस्तान का तालिबानी रिश्ता

नब्बे के दशक में पाकिस्तान ने तालिबानी आतंकवादियों का इस्तेमाल कश्मीर में किया था। पाकिस्तान अपनी सुरक्षा को गहराई प्रदान करने के लिए और कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए तालिबान का इस्तेमाल करेगा। दिसम्बर साल 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान के अपहरण में तालिबान ने पाकिस्तान की मदद की थी। विमान का अपहरण करके पाकिस्तानी आतंकवादी उसे कंधार ले गए थे। वहां तालिबानी नेतृत्व ने दबाव डालकर पाकिस्तानी आतंकवादियों को रिहा कराया था, जिसमें मसूद अजहर भी था, जो जैशे-मोहम्मद का प्रमुख है। 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 और 35 ए को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद से पाकिस्तानी आईएसआई की कोशिश कश्मीर में उत्पात मचाने की है, पर वे इसमें सफल नहीं हो पा रहे हैं। अफगानिस्तान में सफल होने के बाद आईएसआई तालिबानी मुजाहिदीन का इस्तेमाल कश्मीर में करने का प्रयास करेगी।

भारतीय निवेश का क्या होगा?

भारत ने पिछले 20 वर्ष में अफगानिस्तान के इंफ्रास्ट्रक्चर पर करीब तीन अरब डॉलर का पूंजी निवेश किया है। सड़कों, पुलों, बांधों, रेल लाइनों, शिक्षा, चिकित्सा, खेती और विद्युत-उत्पादन की तमाम योजनाओं पर भारत ने काम किया है और काफी पर काम चल रहा था। सलमा बांध और देश का संसद-भवन इस सहयोग की निशानी है। इन दिनों काबुल नदी पर शहतूत बांध पर काम अभी हाल में शुरू हुआ था। फिलहाल इन सभी परियोजनाओं पर काम रुक गया है और हजारों इंजीनियरों तथा कर्मचारियों को वापस लाने का कम चल रहा है।

काबुल में भारत के दूतावास के अलावा अफगानिस्तान के चार शहरों-जलालाबाद, मजार शरीफ, हेरात और कंधार में भारत के वाणिज्य दूतावास हैं लेकिन फिलहाल चारों बंद हैं। पाकिस्तान इन कार्यालयों को ही नहीं बल्कि भारत की विकास-परियोजनाओं को अफगानिस्तान में बंद कराने का प्रयास करता रहा है। सीपेक की तरह इन परियोजनाओं से भारत को कोई आर्थिक लाभ मिलने वाला नहीं है। ये परियोजनाएं केवल मित्रता को प्रगाढ़ बनाने का काम करती हैं।

भारत को मध्य एशिया से कारोबार के लिए रास्ते की जरूरत है। पाकिस्तान हमें रास्ता देगा नहीं। हमने ईरान के रास्ते अफगानिस्तान को जोड़ने की योजना बनाई थी। भारत ने ईरान में चाबहार-जाहेदान रेलवे लाइन का विकल्प तैयार किया। हमारे सीमा सड़क संगठन ने अफगानिस्तान में जंरंज से डेलाराम तक 215 किलोमीटर लम्बे मार्ग का निर्माण किया है, जो निमरोज़ प्रांत की पहली पक्की सड़क है।

भारत-ईरान और अफगानिस्तान ने 2016 में एक त्रिपक्षीय समझौता किया था, जिसमें ईरान के रास्ते अफगानिस्तान तक कॉरिडोर बनाने की बात थी। यह कॉरिडोर मध्य एशिया के रास्ते यूरोप से जुड़ने के लिए बनाने की योजना है। अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम के अलावा दो और तथ्य भारत की भूमिका को निर्धारित करेंगे। पहला भविष्य में ईरान के साथ हमारे रिश्तों की भूमिका और दूसरे इस क्षेत्र में चीन की पहलकदमी।

अभी तक चीन इस पूरे मामले को खामोशी के साथ देख रहा है। उसकी दिलचस्पी भी अफगानिस्तान में है, पर वह केवल इसलिए ताकि उसके शिनजियांग प्रांत के वीगुर उग्रवादियों को प्रश्रय न मिले। तालिबान ने हाल में चीन के साथ संवाद बढ़ाया है। उधर अमेरिका-ईरान और चीन-ईरान रिश्तों की भूमिका भी भारतीय हितों को प्रभावित करेगी। अमेरिका के साथ ईरान के खराब रिश्तों की कीमत भारत को चुकानी होती है। हमें देखना होगा कि संतुलन किस प्रकार बैठाया जाएगा?

कौन है तालिबान?

अरबी शब्द तालिब का अर्थ है तलब रखने वाला, खोज करने वाला, जिज्ञासु या विद्यार्थी। अरबी में इसके दो बहुवचन हैं- तुल्लाब और तलबा। भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान में इसका बहुवचन तालिबान बन गया है। मोटा अर्थ है इस्लामी मदरसे के छात्र। अफगानिस्तान में सक्रिय तालिबान खुद को अफगानिस्तान के इस्लामी अमीरात का प्रतिनिधि कहते हैं। नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था, उस दौर में सोवियत संघ के खिलाफ लड़ने वाले मुजाहिदीन के कई गुट थे। इनमें सबसे बड़े समूह पश्तून इलाके से थे।

पश्तो-भाषी क्षेत्रों के मदरसों से निकले संगठित समूह की पहचान बनी तालिबान, जो साल 1994 के आसपास खबरों में आए। तालिबान को बनाने के आरोपों से पाकिस्तान इनकार करता रहा है, पर इसमें संदेह नहीं कि शुरुआत में तालिबानी पाकिस्तान के मदरसों से निकले थे। इन्हें प्रोत्साहित करने के लिए सऊदी अरब ने धन मुहैया कराया। इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था। चूंकि सोवियत संघ के खिलाफ अभियान में अमेरिका भी शामिल हो गया  इसलिए उसने भी दूसरे मुजाहिदीन समूहों के साथ तालिबान को भी संसाधन उपलब्ध कराए, जिसमें हथियार प्रमुख रुप से शामिल थे।

अफगानिस्तान से सोवियत संघ की वापसी के बाद भी लड़ाई चलती रही और अंततः साल 1996 में तालिबान काबुल पर काबिज हुए और साल 2001 तक सत्ता में रहे। इनके शुरुआती नेता मुल्ला उमर थे। सोवियत सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान के आम लोग मुजाहिदीन की ज्यादतियों और आपसी संघर्ष से परेशान थे इसलिए पहले पहल तालिबान का स्वागत किया गया। भ्रष्टाचार रोकने, अराजकता पर काबू पाने, सड़कों के निर्माण और कारोबारी ढांचे को तैयार करने और सुविधाएं मुहैया कराने में इनकी भूमिका थी।

अमेरिका पर हमले के मुख्य आरोपी ओसामा बिन लादेन को शरण देने का आरोप तालिबान पर लगा। अमेरिका ने तालिबान से लादेन को सौंपने की मांग की, जिसे तालिबान ने नहीं माना। इसके बाद 7 अक्टूबर, साल 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय सैनिक गठबंधन ने अफगानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन खत्म हो गया।

ओसामा बिन लादेन और तालिबान प्रमुख मुल्ला मोहम्मद उमर और उनके साथी अफगानिस्तान से निकलने में कामयाब रहे। दोनों पाकिस्तान में छिपे रहे और एबटाबाद के एक मकान में रह रहे लादेन को अमेरिकी कमांडो दस्ते ने 2 मई 2011 को हमला करके मार गिराया। इसके बाद अगस्त, 2015 में तालिबान ने स्वीकार किया कि उन्होंने मुल्ला उमर की मौत को दो साल से ज़्यादा समय तक जाहिर नहीं होने दिया। मुल्ला उमर की मौत खराब स्वास्थ्य के कारण पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई थी।

तमाम दुश्वारियों के बावजूद तालिबान का अस्तित्व बना रहा और उसने धीरे-धीरे खुद को संगठित किया और अंततः सफलता हासिल की। उसे कहां से बल मिला, किसने उसकी सहायता की और उसके सूत्रधार कौन हैं, यह जानकारी धीरे-धीरे सामने आएगी। वर्तमान समय में तालिबान के चार शिखर नेताओं के नाम सामने आ रहे हैं, जो इस प्रकार हैं- 1.हैबतुल्ला अखुंदजादा, 2. मुल्ला बरादर, 3.सिराजुद्दीन हक्कानी और 4. मुल्ला याकूब, जो मुल्ला उमर का बेटा है। इनकी प्रशासनिक संरचना अब सामने आएगी।

 

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Tags: aghan talibanimran khanindianarendra modipakistantaliban kya haitalibaniterroristterrorism terrorists

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