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भारत की कूटनीति रंग लाएगी?

भारत की कूटनीति रंग लाएगी?

by pallavi anwekar
in अक्टूबर-२०२१, विशेष, संपादकीय
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तालिबानी संकट पूरे विश्व पर गहराता जा रहा है। लगभग सभी देश इसके परिणामों को अपने भविष्य से जोड़कर देख रहे हैं। राष्ट्रों में सत्ता परिवर्तन कोई नई बात नहीं परंतु अफगानिस्तान में जिस तरह से सत्ता परिवर्तन हुआ वह न तो लोकतांत्रिक व्यवस्था का भाग था और न ही उसमें अफगानिस्तान के आम लोगों की सहमति थी। आक्रमणकारियों की तरह देश पर हावी होकर सत्ता छीन लेनेवाले तालिबानियों ने अब अपने रंग दिखाना भी शुरू कर दिए हैं। तालिबानियों का जन्म व इतिहास, उनकी मान्यताएं व सोच, उनकी धर्मांधता व कट्टरता इत्यादि के परिणामों से कोई अपरिचित नहीं है।

चुंकि अफगानिस्तान भारत का पड़ोसी देश है, उसकी सीमाएं भारत से जुड़ी हैं, भारत से वहां व्यापार होता इसलिए वहां हो रहे राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तनों का भारत पर सीधा असर होगा ही। ऐसे समय में भारत को भी अपनी विदेश नीति और सामरिक नीति पर विशेष ध्यान देना होगा। आचार्य चाणक्य के अनुसार विदेश नीति ऐसी होनी चाहिए जिसमें अपने राष्ट्र का हित सबसे ऊपर हो, देश शक्तिशाली हो, उसकी सीमाएं और साधन बढ़ें, शत्रु कमजोर हो और प्रजा की भलाई हो। कई बार देशहित में संधि तोड़ देना भी विदेश नीति का हिस्सा होता है।

वर्तमान में भारत को अपनी विदेश नीति में दो आयामों पर ध्यान देना होगा। पहला, भारत एशिया महाद्वीप में एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभर रहा है। चीन-पाकिस्तान पहले से ही भारत के शत्रु राष्ट्र हैं और धीरे-धीरे श्रीलंका, नेपाल जैसे राष्ट्र भी भारत से खार खाने लगे हैं। ऐसे में एक और देश जो कि सत्ता परिवर्तन के पहले भारत का मित्र राष्ट्र था उसे भी अपने शत्रु राष्ट्रों की सूचि में शामिल कर लेना भारत के लिए चुनौतियों को बढ़ाने जैसा होगा। इस समय अपने संसाधनों को किसी राष्ट्र से शत्रुता निभाने में गंवाना भारत के लिए महंगा पड़ सकता है।

दूसरा, वैश्विक महाशक्तियों के लिए एशिया हमेशा से ही युद्ध का मैदान रहा है। वे अपनी शक्तियों के प्रदर्शन के लिए एशिया की भूमि को चुनते हैं। अमेरिका और रूस जैसे राष्ट्र पूरे विश्व पर अपनी धौंस जमाने और अपना दबदबा कायम रखने के लिए अन्य राष्ट्रों में अस्थिरता बनाए रखने की कोशिश करते रहते हैं। अफगानिस्तान में भी अमेरिका ने यही किया था। लगभग दो दशकों तक अफगानिस्तान में अपने सैनिक रखकर भी अमेरिका यह कैसे नहीं समझ पाया कि अफगानी सैनिकों के भेष में वह तालिबानियों को मजबूत कर रहा है? कैसे अमेरिका की सेना के अफगानिस्तान से हटते ही वहां तालिबानियों ने कब्जा करना शुरू कर दिया? कैसे अमेरिका की नाक के नीचे तालिबानी इतने मजबूत होते रहे कि वे सशस्त्र सेना का रूप ले सके? ये सभी प्रश्न अमेरिका की नीयत पर प्रश्न खड़े करते हैं। एक ओर अमेरिका आतंकवाद को खत्म करने की प्रतिबद्धता दर्शाता है, अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों का कठोर जवाब भी देता है परंतु दूसरी ओर अन्य देशों में आतंकवादियों को शस्त्र भी मुहैया कराता है। अमेरिका की यह दोगली नीति भारत को भी अच्छी तरह से ज्ञात है। भारत यह जानता है कि अमेरिका आग की तरह है, उसके अधिक निकट जाने पर जलने का संकट है परंतु अगर उससे आवश्यक अंतर बनाकर रखा जाए तो उसकी गर्मी भी मिलती रहेगी।

भारत ने अभी तक तालिबान मुद्दे पर किसी भी एक तरफ झुकने के संकेत नहीं दिए हैं। न तो उसने तालिबानी सरकार को स्वीकार किया है और न ही अमेरिका का समर्थन किया है। यह बात अवश्य है कि भारत ने सम्पूर्ण विश्व को आतंकवाद के विरुद्ध सतर्क किया था। सुरक्षा परिषद में भी यह प्रस्ताव रखा गया था कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी और देश पर हमले, उसके दुश्मनों को शरण देने, आतंकियों को प्रशिक्षण देने या फिर आतंकवादियों का वित्तपोषण करने के लिए नहीं किया जाएगा। सुरक्षा परिषद का यह प्रस्ताव भारत के लिए भी अनुकूल था।

भारत की विदेश नीति में इस समय देश की सुरक्षा ही प्राथमिकता होगी क्योंकि सभी जानते हैं कि तालिबान की पृष्ठभूमि पाकिस्तान पोषित आतंकवादी संगठन की रही है और अब चीन भी उसके समर्थन में उतर आया है। अगर तालिबान का विस्तार हुआ तो उसकी रडार पर कश्मीर सबसे पहले आएगा क्योंकि पाकिस्तान कश्मीर के लिए लालायित है। आतंकवादी गतिविधियां बढ़ने की आशंकाएं इसलिए भी अधिक हैं क्योंकि भारत से आर-पार की लड़ाई करने में वे सक्षम नहीं हैं। हालांकि तालिबान सरकार ने भारत को यह आश्वासन दिया है कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे अपितु अफगानिस्तान में जिन प्रकल्पों पर भारत ने अपनी पूंजी लगाई है उन्हें भी पूर्ण करेंगे। तालिबान की इन बातों पर कितना विश्वास करना है, यह भारत की कूटनीतिक समझ पर निर्भर करेगा।

तालिबान का सामना करने के लिए भारत को अपनी नीति बनानी होगी। अगर भारत अमेरिका का पिछलग्गू बनता है तो अमेरिका हमें अपने इशारों पर चलने के लिए बाध्य कर देगा और हो सकता है अगर भविष्य में उसका मतलब निकल गया तो भारत को अपने हाल पर छोड़ भी दे। पहले भी जब भारत आतंकवाद के विरुद्ध आवाज उठा रहा था तब भी अमेरिका ने इसे अनसुना किया था जब तक स्वयं उस पर आतंकवादी हमले नहीं हुए।

वर्तमान में भारत ‘वेट एण्ड वॉच‘ की नीति अपना रहा है जो कि सही भी है क्योंकि ऊंट किस करवट बैठेगा, कहा नहीं जा सकता। भारत को तालिबान की शत्रुता को आमंत्रित नहीं करना चाहिए और न ही अमेरिका का मोहरा बनना चाहिए।

 

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