मां और पुत्र के बीच जो शाश्वत प्रेम प्राकृतिक रूप से स्थापित होता है, वह किसी अन्य परस्पर दो जीवो के बीच देखने को नहीं मिलता। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि मां अपने पुत्र को नौ माह तक पहले गर्भ में उसका पालन पोषण करती है। अनेक प्रतिकूल हालातों से जूझते हुए असहनीय प्रसव पीड़ा के बाद उसे जन्म देती है। जैसे ही शिशु माता के गर्भ से निकलकर उसकी गोद में आता है, मां सारी पीड़ा भूल जाती है और अपने भविष्य को पालने पोसने में जुट जाती है। जैसे-जैसे शिशु, बालक, किशोर, युवा और फिर वयस्क अवस्था को प्राप्त होता है, उसके अंदर मां के प्रति दायित्वों का बोध स्थाई जड़ें जमाता चला जाता है। फल स्वरुप जैसे-जैसे समय गुजरता है उसी के साथ साथ मां बेटे के बीच का स्नेह प्रगाढ़ होता चला जाता है। कुछ ऐसा ही स्नेहिल संबंध भारत माता और इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज हो चुकी जनसंघ के बीच देखने को मिलता है। कारण स्पष्ट है, गुलामी के दिनों में विदेशियों द्वारा स्थापित एक पार्टी खुद को आजाद भारत का भाग्य विधाता साबित करने पर तुली हुई थी। उसका तानाशाही पूर्ण रवैया लोकतंत्र के लिए खतरा साबित होने लगा था।
तुष्टीकरण की कारगुजारियां सारी हदों को पार कर चुकी थीं। तब चारों ओर निराशा का वातावरण था। कोई यह नहीं सोच पा रहा था कि आजाद भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए कोई नया दल प्रस्फुटित होगा, जो सर्वधर्म समभाव का विचार स्थापित कर नए भारत का निर्माण करेगा। यही पीड़ादायक समय जनसंघ का प्रसव काल था, जब दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे भारत माता के वीर सपूतों ने इस संगठन की स्थापना की और “दीपक” की जगमगाती लौ के साथ विश्व को एकात्म मानववाद का संदेश देना शुरू कर दिया। तत् समय सत्ता पर काबिज वह लोग जनसंघ को सहन कर ही नहीं पाए, जो यह भ्रम पाल कर बैठे थे कि भारत को आजादी हम ने दिलाई और यदि हम ना होते तो भारत भी आजाद ना होता। नतीजतन जनसंघ पर नए-नए बहानों की आड़ लेकर अवरोध पैदा किये जाना शुरू हो गए। राष्ट्रवाद की विचारधारा से ओतप्रोत जन संघियों पर पुलिस की लाठियां बरसने लगीं और उन्हें यहां वहां गिरफ्तार किया जाने लगा।
सत्ता के मद में चूर तत्कालीन आतताई पूरी तरह आश्वस्त थे कि जब जुल्म की इंतिहा बढ़ेगी तो जनसंघ स्वत: ही इतिहास की वस्तु बन जाएगा। लेकिन हुआ इसके ठीक उल्टा। सरकार ने जनसंघ और उसके नेताओं पर जितनी तेजी से अत्याचार किए, जनता उतनी ही प्रगाढ़ता के साथ जनसंघ से जुड़ती चली गई। शायद यही वजह रही कि जब देश में आपातकाल लागू हुआ, तब हर किसी की आशा भरी निगाहें जनसंघ की सक्रियता पर केंद्रित हो गईं। जनसंघ ने भी भारत माता को निराश नहीं किया। उसने जयप्रकाश नारायण जैसे अनेक संघर्षशील नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर तत्कालीन तानाशाह सरकार की जड़ें हिला दीं। सरकार जनसंघ के जितने नेताओं को जेल में ठूंसती चली गई, उससे दुगने नेता सड़कों पर सरकार के तानाशाह रवैये को ललकारते नजर आने लगे। हालात कुछ ऐसे बने कि जेल के भीतर और बाहर, चारों तरफ जन आंदोलन की चिंगारी भड़क उठी। यहां तक की देश को आपातकाल से बचाने के लिए जनसंघ ने अपना अस्तित्व भी दांव पर लगा दिया। उस वक्त के सबसे बड़े राजनीतिक विरोधी दल जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ। नतीजतन पहली बार देश में गैर कांग्रेसी सरकार स्थापित हुई।
इससे इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी जनसंघ का सम्मान भारतीयों के मन में और अधिक बढ़ा। उसके जो नेता जनता पार्टी में राष्ट्र सेवा करते दिखाई दिए, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की जाने लगी। जनसंघियों के प्रति आम जनता का लगाव अवसरवादी राजनैतिक संगठनों को रास नहीं आया। उनकी यही ईर्ष्या जनता पार्टी कि टूट का कारण बनी। फल स्वरूप आपातकाल के खिलाफ लड़े गए लंबे आंदोलन के संघर्ष पर पूरी तरह पानी फिर गया। एक बार फिर केंद्र में तानाशाह सरकार स्थापित हो गई। किंतु जनसंघ के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने हार नहीं मानी। इतिहास में लौटने की बजाए इस राष्ट्रवादी संगठन ने आगे बढ़ने का निर्णय लिया। वर्ष 1980 में भारतीय जनता पार्टी का प्रादुर्भाव हुआ और चुनाव चिन्ह के रूप में “दीपक” का स्थान “कमल के फूल” ने ले लिया। किंतु आगे की राह आसान नहीं थी। भाजपा ने जन सरोकारों के साथ खुद को बांधे रखा और आम आदमी के हक की लड़ाई सड़कों पर जारी रखी।
स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, कुशाभाऊ ठाकरे और राजमाता विजयाराजे सिंधिया जैसे दिग्गज नेता आए दिन जेलों में बंद किए जाते रहे। फिर भी भाजपा का आत्मविश्वास दिनोंदिन मजबूत होता गया। आम जनता ने भी पहले जनसंघ और अब भाजपा नेताओं के त्याग को समझा। यही कारण रहा कि कभी संसद में केवल दो सांसद होने का सामर्थ्य रखने वाली भाजपा तेजी से भारतीय राजनीति का केंद्र बनती चली गई। अपनी बढ़ती ताकत के साथ भाजपा ने गठबंधन की गैर कांग्रेसी सरकारों को ताकत दी तो विभिन्न प्रांतों में स्वयं के बूते पर अपनी सरकारें भी स्थापित कीं। देश ने पहली बार भाजपा नीत अटल बिहारी वाजपेई की गैर कांग्रेसी सरकार के कार्यकाल को पूरा होते देखा। बीच में एक दशक का कालखंड भले ही अवरोध साबित हुआ। लेकिन इस दौरान देश को यह भली-भांति समझ आ गया कि अब भाजपा समय की मांग बन चुकी है। यह आभास भी हुआ कि यदि वैश्विक स्तर पर भारतीय साख को मजबूती प्रदान करनी है और सुरक्षा के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाना है तो भारत की बागडोर भाजपा के हाथों में सौंपना ही श्रेयस्कर रहेगा। तभी देश को नरेंद्र मोदी जैसे ओजस्वी और राष्ट्रवादी नेता का नेतृत्व मिला तो मानो भाजपा के पक्ष में जन समर्थन का ज्वार उठ खड़ा हुआ।
अभूतपूर्व बहुमत के साथ एक नहीं दो दो बार भाजपा नीत सरकार के हाथ देश का भविष्य जनता जनार्दन द्वारा सौंपा गया। अप परिणाम सभी के सामने हैं। जनसंघ के बलिदान और भाजपा के संघर्ष ने देश को पुनः जगतगुरु के पद पर स्थापित करने हेतु मार्ग सुनिश्चित कर दिए हैं। अयोध्या में श्री राम मंदिर के भव्य निर्माण के साथ ही भारत में रामराज की स्थापना का सूत्रपात दर्शनीय है। कश्मीर से धारा 370 का कलंक मिटाया जा चुका है। अब समान आचार संहिता के संकल्प के साथ भाजपा की विजय यात्रा जारी है। निसंदेह भाजपा की यह यात्रा भारत माता को परम वैभव के शिखर पर स्थापित करने में सफल होगी। क्योंकि इसके मूल में जनसंघ का बलिदान इसे लगातार ऊर्जा प्रदान कर रहा है।