लगता नहीं कांग्रेस स्वयं को सक्षम बनाना चाहती है

इधर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक खत्म हुई और उधर उड़ीसा के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप माझी ने कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखा कि मैं कांग्रेस से इस्तीफा दे रहा हूं और ऐसा करते हुए मुझे बहुत दुख और दर्द महसूस हो रहा है। यह एक घटना बताने के लिए पर्याप्त है कि कांग्रेस किस दशा से गुजर रही है। वास्तव में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक जिस संतप्त माहौल में हुई थी उसमें स्वाभाविक ही समर्थकों और विरोधियों दोनों की नजरें टिकी हुई थी। ऐसी बैठकें कांग्रेस के वर्तमान एवं भविष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। कार्यसमिति की बैठक के बाद पार्टी के अंदर से विरोधी वक्तव्य न आना वर्तमान नेतृत्व एवं उनके रणनीतिकारों के लिए राहत का विषय होगा। लेकिन उड़ीसा, पंजाब और छत्तीसगढ़ में जो हुआ वह भी सामने है। वास्तव में यह मानने का कोई कारण नहीं था कि कार्यसमिति की बैठक मेंसोनिया गांधी सहित अन्य नेताओं के भाषण तथा निर्णयों से अंदरूनी उहापोह एवं भविष्य को लेकर चिंता व उद्वीग्नता पर विराम लग जाएगा ।

आखिर कार्यसमिति से निकला क्या? मूल रूप से तीन बातें साफ हुई। एक, सोनिया गांधी ने स्पष्ट कर दिया कि वे कार्यकारी अध्यक्ष हैं और पूर्णकालिक अध्यक्ष भी। दूसरे ,अगले अध्यक्ष का चुनाव 2022 के अगस्त- सितंबर तक किया जाएगा। और तीसरे, राहुल गांधी ने अध्यक्ष बनने पर विचार करना स्वीकार कर लिया है। इन तीनों के मायने क्या है?जी 23 में से कपिल सिब्बल ने आवाज उठाई थी कि जब पार्टी का कोई अध्यक्ष नहीं है तो निर्णय कौन ले रहा है? उन्होंने कहा था कि कोई तो निर्णय कर रहा है। यह अकेले उनकी आवाज नहीं थी। तो उनके जैसे नेताओं को स्पष्ट उत्तर मिल गया। जो नेता चुनाव कराने की मांग कर रहे थे उनको साफ कर दिया गया है कि सोनिया के नेतृत्व में पार्टी संगठन चुनाव कराने की हड़बड़ी में नहीं है। चुनाव कराया जाएगा लेकिन समय वह नहीं होगा जैसा समूह चाहता है। कार्यसमिति बैठक के बाद पत्रकार वार्ता में बताया गया कि सदस्यों ने राहुल गांधी से आग्रह किया कि वे अध्यक्ष पद संभाले और उन्होंने विचार करने का आश्वासन दिया है। इसके बाद किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस की बागडोर किसके हाथों जाएगी।

जिस तरह से सोनिया गांधी परिवार, उनके समर्थक और रणनीतिकार लगातार कोशिश कर रहे थे कि नेतृत्व का प्रश्न उनके अंदर ही हल हो जाए कार्यसमिति ने अघोषित रूप से उस पर मुहर लगा दी। राहुल अध्यक्ष के उम्मीदवार होंगे तो सामने कौन चुनौती के लिए खड़ा होगा? जाहिर है, 2019 में त्यागपत्र के बाद फिर 2022 में वे अध्यक्ष पद पर विराजमान होंगे। इस वर्ष के आरंभ में ही सोनिया गांधी ने असंतुष्ट नेताओं से मुलाकात में साफ कर दिया था कि कोई गलतफहमी न पाले पार्टी की बागडोर उनके परिवार केहाथों ही रहेगी। सच यही है कि व्यक्तिगत तौर पर भले पार्टी के नेता नेतृत्व को राजनीतिक परिस्थितियों से निपटने तथा पार्टी को फिर से लोकप्रिय बनाने में अक्षम कहें, मुखर होकर सार्वजनिक रूप से ऐसा बयान देने का साहस किसी ने किया नहीं। कार्यसमिति से भी जितनी खबरें बाहर आईं उसके अनुसार गुलाम नबी आजाद के बारे में बताया गया कि उन्होंने कहा कि सोनिया गांधी के नेतृत्व को लेकर कोई प्रश्न नहीं है। अगर आजाद ही ऐसा कह रहे हैं तो जी-23 में दूसरा कोई नेता नहीं जो विरुद्ध जाने का साहस दिखा सके।  कार्यसमिति की बैठक के बाद सोनिया और उनके परिवार के समर्थकों की ओर से यह खबर फीड भी की गई की जी-23 के नेताओं में फूट पड़ गई है और अब वे एकजुट होकर कोई बयान नहीं देंगे। संभव है इनमें से कुछ लोगों से सोनिया गांधी और उनके लोगों ने  बातचीत की हो। यह भी संभव है उनको कुछ आश्वासन दिया गया हो। 

कांग्रेस या किसी भी राजनीतिक पार्टी में ऐसे लोग कम ही बचे हैं जो विचारधारा के लिए या पार्टी हित में अपना पद और कद त्यागने या नजरअंदाज करने को तैयार हो जाएं। कांग्रेस के अंदर मूल चिंता इसी बात की है कि अगर पार्टी केंद्र की सत्ता में नहीं आई या सत्ता में भागीदारी नहीं हुई तो उनका क्या होगा । यदि पार्टी केंद्र की सत्ता में होती या सत्ता में भागीदार होती  तो कम से कम उन्हें समस्या नहीं होती जो सरकार में शामिल होते या विपक्ष में होते हुए भी पार्टी इतनी शक्तिशाली होती कि ये लोकसभा या राज्यसभा पा सकते थे तब भी इनकी आवाज शायद ही निकलती। संभव है कुछ को आश्वासन दिया गया हो। किंतु मूल  प्रश्न कुछ असंतुष्ट नेताओं के संतुष्ट होने का नहीं, कांग्रेस के भविष्य का है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा के समान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस सशक्त विपक्ष की अपेक्षा की जाती है वहां कोई पार्टी दूर- दूर तक नहीं दिखती।  राष्ट्रीय स्तर पर  किसी बड़ी पार्टी के खड़े होने की भी संभावना नहीं है। दुर्बल होते हुए भी अगर किसी से उम्मीद की जा सकती है  तो वह कांग्रेस ही है। दुर्भाग्य से कॉन्ग्रेस का वर्तमान नेतृत्व और उनके रणनीतिकार अपनी भूमिका को ही समझने को तैयार नहीं है। होते तो कार्यसमिति की इतनी महत्वपूर्ण बैठक से भविष्य के लिए आशादायी संदेश निकलता। 

व्यक्ति हो या संगठन अगर लंबे समय तक संकट के शिकार होते हैं तो एक-एक कदम काफी सोच समझकर संतुलन से उठाना पड़ता है। जब तक ईमानदारी से विश्लेषण नहीं हो कि संकट का कारण क्या है, कब से आरंभ हुआ तब तक आप दूर करने का रास्ता नहीं निकाल सकते। कांग्रेस विचार, व्यवहार एवं व्यक्तित्व तीनों स्तरों पर लंबे समय से दुर्दशा की शिकार है। इसकी वैचारिकता भ्रमित है। नीति रणनीति के स्तर पर अनिश्चय का माहौल है तथा व्यक्तित्व यानी नेतृत्व का चेहरा ऐसा नहीं है जो लोगों  का समर्थन पा सके। कहने की आवश्यकता नहीं  कि संकट दूर हो सकता है जब इन तीनों स्तरों पर दूरगामी योजना बनाकर व्यावहारिक बदलाव की शुरुआत हो। यह तभी संभव है जब पार्टी के रणनीतिकार, नेता कार्यकर्ता सब व्यक्ति मोह, परिवार मोह आदि से परे हटकर पार्टी के भविष्य की दृष्टि से काम करें। 

दुर्भाग्य है कि कांग्रेस में पिछले लंबे समय से ऐसे नेताओं की बहुतायत है जो नेतृत्व यानी सोनिया गांधी परिवार की कृपा से राजनीति में बने हुए हैं। इनके कारण ऐसे नेता भी , जिनका अपने क्षेत्र या राज्य में जनाधार है उन्हें भी परिवार की निष्ठा साबित करनी पड़ती है। कैप्टन अमरिंदर सिंह इसके ताजा उदाहरण है। राजस्थान में अशोक गहलोत को  परिवार का विश्वास प्राप्त है। इसी कारण सचिन पायलट और उनके समर्थकों के लगातार विरोध के बावजूद बदलाव संभव नहीं हो पा रहा। अन्य राज्यों की भी यही स्थिति है। हालांकि कांग्रेस सशक्त व प्रभावी होगी तभी परिवार का भी हित सधेगा। 2014  लोकसभा चुनाव सोनिया गांधी की  अध्यक्षता में कांग्रेस ने लड़ा और मुख्य रणनीतिकार राहुल गांधी थे ।2019 लोकसभा चुनाव तो राहुल गांधी की अध्यक्षता में लड़ा गया। प्रियंका कांग्रेस की महासचिव बन चुकी थी और उत्तर प्रदेश की प्रभारी थी। राहुल परंपरागत अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव हार गए और दूसरी बार कांग्रेस लोकसभा में इतनी सीटें नहीं पा सकी जिससे विपक्ष के नेता का पद मिले। इस हालत में सोनिया, राहुल ,प्रियंका और उनके रणनीतिकारों को ही आगे आकर पार्टी के पुनरुद्धार के लिए रास्ता बनाना चाहिए था। असंतुष्ट नेताओं सहित सबकी सहमति से व्यापक मंथन के लिए शिविर आयोजित करना चाहिए था। एक ऐसे व्यक्तित्व को नेता के रूप में सामने लाने की कोशिश होनी चाहिए थी जो स्वयं भले सक्षम नहीं हो लेकिन योग्य लोगों की टीम बनाकर वर्तमान राजनीति में मुकाबले के लिए कांग्रेस को वैचारिक एवं सांगठनिक स्तर पर खड़ा करने की ईमानदार कोशिश कर सके। साफ है ऐसा कुछ नहीं होने वाला। इसमें इसमें लोग पार्टी छोड़ेंगे और पार्टी टूटेगी ही।अगर परिवार और पार्टीसमझने को तैयार नहीं कि कांग्रेस को पुनर्जीवित कर राजनीति की केंद्रीय भूमिका में लाने के लिए व्यापक स्तर पर कठिन साधना और परिवर्तन की आवश्यकता है तोपार्टी का भविष्य नहीं संवर सकता

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