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उत्तराखंड की एक सांस्कृतिक परम्परा जागर

उत्तराखंड की एक सांस्कृतिक परम्परा जागर

by प्रो. नंदकिशोर ढौंडियाल 'अरुण'
in उत्तराखंड दीपावली विशेषांक नवम्बर २०२१, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
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जागर की यह परम्परा आज की नहीं अपितु तब से चली आ रही है जब से मानव ने जन्म लिया है। आज विज्ञान की उन्नति के कारण कथित सभ्य समाज इसकी खिल्ली उड़ाता है लेकिन आदिकाल से वैज्ञानिक जिस आत्म तत्व की खोज लाखों वर्षों से करता आ रहा है, उस आत्म तत्व को उत्तराखंड का जागर तन-मन के पर्दे पर डमरू और थाली बजाकर क्षण में उपस्थित कर देता है।

उत्तराखंड संसार का एक ऐसा विचित्र भू-स्थल है जो देवी देवताओं के सूक्ष्म रूप पर विश्वास न कर उनकों स्थूल शरीर में अवतरित कर पूजन अर्चन करता है। इन्हीं देवताओं को पश्वा; जीवित मानव के शरीर पर उतारने और जाग्रत करने के कर्मकाण्ड को ही जागर कहा जाता है।

जैसा कि मानव विकास का इतिहास इंगित करता है कि मानव की आदिम अवस्था पशुवत थी लेकिन जब उसे भोजन और जल के अभाव ने त्रस्त कर दिया तो वह प्राकृतिक भोजन और जल स्त्रोतों से अपनी भूख प्यास मिटाने लगा। उसका प्रकृति के विषय में जानने का ज्ञान ही ‘विद’ कहलाया और उसके इसी जानने को कालान्तर में ‘वेद’ कहा जाने लगा। जिसे जानने के बाद में भाषा और भौतिक अवयवों का जन्म हुआ। इसी अवस्था में उसके अन्दर भय व अनुरक्ति उत्पन्न हुई एवं वह तत्कालीन प्राकृतिक अवयवों के स्वभाव तथा आकृति से प्रभावित होकर उनसे भय और प्रेम करने लगा। इसलिए इसी से उस ‘भक्ति’ ‘भय+अनुरक्ति’ शब्द की उत्पत्ति हुई। जिसे कालान्तर के भाषा वैज्ञानिकों तथा व्याकरणाचार्यों ने ‘भज’ धातु की संज्ञा दी। उस आदि मानव के अन्दर सर्वप्रथम पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश के प्रति भय और श्रद्धा उत्पन्न हुई। इसके पश्चात् इन पंच भौतिक तत्वों की ‘दिव्यता’ से आकर्षित होकर मानव ने इन्हें ‘देवता’ कहना प्रारम्भ कर दिया और यही देवता ‘वेदों’ के देवता बन गये। उनके इन देवताओं में अग्नि सबसे भय उत्पादक और प्रजा पालक देवता था इसीलिए ये सभी अग्नि पूजक बन गए ताकि उनका यह प्राकृतिक देवता उनकी रक्षा कर सके। चूंकि अग्नि में जलाने की शक्ति होती है इसीलिए पूर्व में इसके इस जलाने वाले ‘गुण’ को ‘जग्य’  कहा जाने लगा। कालान्तर में इसी को अग्नि पूजक वैदिकों ने जज्ञ या यज्ञ कहा जो कि कृत्रिम अवस्था में अग्नि का उत्पादन करता था। इसी अवस्था में वे अग्नि को प्रकट या जागृत करने के लिए जो कुछ भी निन्दा या स्तुति करते थे वे मंत्र तथा सूक्त कहलाये। कुछ समय के पश्चात् यही साहित्य और क्रिया ‘जागर’ कहलाने लगा इसीलिए उत्तराखंड का यह जागर जो अद़ृश्य आत्माओं को जागृत करता है वैदिक जागर के समान जागर ही कहलाता है। आज भी उत्तराखंड में अनेक दिव्य और अनंग आत्माओं को जागृत किया जाता है।

वैदिक युग में जिस भांति देवताओं के आवाह्न के लिए जो प्रार्थना, स्तुति वन्दना आदि के लिए मंत्र पढ़े जाते थे उन्हें ॠचा, सूक्ति या सूत्र कहा जाता था। उत्तराखंड में आत्माओं के आवाह्न के लिए जो स्तुति या वन्दना की जाती है उसकी साहित्य सामग्री को भी ‘जागर’ साहित्य कहा जाता है। वर्तमान में ये गाथा-गीत, मंत्र आदि के रूप में जागरियों; जागर के गायक-वादक के कण्ठ में मौखिक रूप में उपस्थित रहते हैं। जो आज भी वैदिकों के स्मृति और श्रृति परम्परा के रूप में जीवित हैं।

उत्तराखंड की जागरों में भी महाकाव्य कालीन पात्रों की आत्माएं वर्तमान में धरती पर बुलाई जाती है। इनके अतिरिक्त मध्यकाल में संतो महात्माओं के तन्त्र-मंत्र आज भी जागरों की विषय सामाग्री है। ये कितनी कोटि की हैं इसका संक्षिप्त उल्लेख हमें यहां पर करते हुए अपार प्रसन्नता हो रही है।

वैदिक ॠषि मुनि प्रकृति पूजक थे इसलिए उन्होंने अपने मंत्रों के माध्यम से प्रकृति की पूजा की। जिसकी छाप उत्तराखंड के जागरों में आज भी दिखाई देती है। वैदिकों के समान ही उत्तराखंड के लोग वर्तमान में भी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकार, प्रस्तर, शिला, वृक्ष, पर्वत, नदी, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, नक्षत्र, पक्षी, पशु आदि की पूजा करते हैं। जागरों में सर्व प्रथम अग्नि की पूजा की जाती है और उसके साथ अन्य देवताओं को जाग्रत किया जाता है। यहां का जागरी; ‘धामी, ढोलीतस हुड़क्या इस प्रकार लोकभाषा में मंत्रोंच्चारण करते हैं।

अग्निजाग, सूरजजाग, नक्षत्र मण्डल जाग, नौखण्ड, पृथ्वी जाग, पांखुडी जाग, मौरी का नारैयणा जाग, संगाड़ की विच्छी जाग, कीडी जाग, कृमि जाग आदि।

वेदों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वैदिक ॠषि ईश्वर के निराकार स्वरूप के पूजक थे इसलिए उनकी ईश्वर सम्बन्धी अवधारणाएं उतनी नहीं है जितनी कि प्रकृति पूजा सम्बन्धी विश्वास, लेकिन उत्तराखंड की धरती का निराकार; निरंकर ऐसा देवता है जो कि पश्वा के शरीर में अवतरित होकर अपने भक्तों को आशीर्वाद देता है। इस देवता को प्रसन्न करने के लिए सृष्टि जगत के जागर और मंत्र गाये जाते हैं।

पौराणिक देवताओं में यहां ‘आदिशक्ति’ और भगवान शंकर पत्नी पार्वती को प्रसन्न किया जाता है। जिसके यहां कई नाम और रूप है। जैसे नन्दा, गौरजा, ज्वाला, महामाया, उफरै, चन्द्रवदनी, कालिकां, काली, महाकाली, नैना, गिरजा आदि। ये सूक्ष्म रूप में रहते हुए भी अपने भक्तों के शरीरों में उतर कर पूजा मांगती है।

महाभारत महाकाव्य के पात्र यहां के इष्ट देवता हैं। जो जागर वार्ताओंं के माध्यम से अपने भक्तों के शरीर को माध्यम बनाकर नृत्य करते हैं। ये देवता है भगवान कृष्ण; नागरजा, कुन्ती, दौपदी, रूक्मिणी, चन्द्रावली कृष्णावती; कृष्ण पुत्री, दुर्योधन, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, अभिमन्यु आदि। ये सभी नारी और पुरूष पात्र ऐसे ही पात्र है जिनको प्रसन्न करने के लिए जागरों की अलग-अलग धुन और बाजे होते हैं।

उत्तराखंड के जागरों के माध्यम से मध्यकालीन उन नाथ सिद्धों की आत्माएं भू अवतरित होती हैं जो सिद्ध साहित्य के निर्माता और चमत्कारी संत थे। वैसे तो भगवान शिव प्रत्यक्ष रूप से अपने भक्तों के शरीरों के माध्यम से प्रकट नहीं होते लेकिन ये समस्त नाथ सिद्ध भगवान शंकर के ही अंशावतार माने जाते हैं। जिसके कारण ये सभी स्वगुण कथन और गायन सुनकर अपने भक्तों के शरीर में उतर कर संत नृत्य करते हैं।

उत्तराखंड की जागर गाथाओं के नायक और नायिकाएं ऐसे वीर योद्धा और वीरागांनाएं भी है जो युद्ध क्षेत्र में शत्रुओं के संग लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गये थे लेकिन सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति या रण में अपने शत्रु का शिरोच्छेदन करने की इच्छा शेष रह जाने पर स्वगोत्रियों के शरीर में उतर कर युद्ध नृत्य करते हैं।

रणभूतों की भांति ही अपने स्वजनों के शरीरों पर नाचने वाली पितृ आत्माएं उत्तराखंड में हंत्या या घरभूत, गृहभूत कहलाती है। ये वे पितृ होते हैं जिनकी मृत्यु किसी दुघर्टना या आकस्मिक रूप से हो जाती है तथा जिनके मन में जीवन जीने की कामना शेष रह जाती है। ये जब मृत्यु के पश्चात् भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते तो अपनी कामना पूर्ति के लिए अपने गोत्रीजनो के सिर पर आती है। गोत्रीजन जिनकी इच्छाएं पूर्ति कर उनसे स्वर्गमन की प्रार्थना करते हैं।

इन पितरों की भांति वे महिलाएं जो कि प्रसव काल में मृत्यु को प्राप्त होती हैं उनकी आत्माएं भी भटकने वाली कही जाती है। इन्हे स्वील्या भूत कहा जाता है ये भी जागर गाकर बुलायी जाती है और उनसे उसके इहलौकिक परिवार जन स्वर्ग या मोक्षगमन की प्रार्थना करते हैं। उत्तराखंड में अविवाहित कन्याओं की आत्मा को मात्री या आंछरी कहा जाता है। ये जब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं होती तब तक सूक्ष्म रूप में पर्वत, वनों, वृक्षों और नदी धारों में भटकती रहती है अगर ये रूष्ट होती है तो कुमारी या विवाहित स्त्री को हानि पहुंचाती है।

अल्पावस्था में किसी बीमारी या दुघर्टना के शिकार शिशु और बालक बालिकाओं की अतृप्त आत्माओं को उत्तराखंड में टोला या रांका कहा जाता है। ये रात्रि के प्रथम पहर में किसी नदी, पर्वत और खेत में आग्नि भाड़ के रूप में दिखाई देते हैं। इन आत्माओं की शान्ति का प्राविधान भी जागर में हैं। उत्तराखंड के जागर का सम्बन्ध मात्र हिन्दू धर्म के अनुयायियों की आत्मा से नहीं होता है अपितु इस्लाम धर्म से सम्बन्धित रूहों की शान्ति के लिए भी जागर के माध्यम से इन्हे पूजा जाता है। सैय्यद; सैद और मैमंदा; ‘मुहम्मद बिच्दूवा;’ बिच्छू आत्माएं ऐसी ही आत्माएं है जो सामान्य जन के सिर पर उतर कर उत्पात मचाती है। इनकी गणना अनिष्टकारिणी शाक्तियों के श्रेणी में होती है।

उत्तराखंड के जागरों का विषय मात्र देव और मानव आत्माएं ही नहीं है अपितु पशुओं की आत्माओं को भी अनिष्टकारिणी शक्तियों के रूप में देखा जाता है। यहां मृतक भैंस की आत्मा को दैंत, भेड़ की आत्मा को समैणा, घोड़े की आत्मा को अएड़, कुत्ते की आत्मा को ऐड़ी, बिल्ली की आत्मा को छलेडू कहा जाता है, जो जीवित शरीरों को हानि पहुंचाती हैं। जागर में इनके प्रभाव को शान्त करने के लिए अनेक मंत्र है जिनके माध्यम से मानव शरीर को इनके प्रभाव से बचाया जा सकता है। उत्तराखंड का प्रसिद्ध जागर भैसिया शोर और दैत संहार उपचार के साधन हैं।

उत्तराखंड का जागर सम्पूर्ण प्राकृतिक अवयवों में भी आत्मा का दर्शन कराता है और यह स्वीकार करता है कि जल में आत्मा होती है जो कि भूत के रूप में अन्य सांसारिक प्राणियों को ग्रस लेता है। इसीलिए उस जलीय आत्मा को जल भूत कहते है यहा भूत नदी या तालाबो में तैरते हुए प्राणियों  को जल के अन्दर खींचकर उनकी हत्या कर देता है। पवन में भी आत्मा होती है इसकी घोषणा वह ‘हवा’ देती है जो कि स्त्री और बच्चों को अपना शिकार बनाती है। इसे उतारने के मंत्र भी उत्तराखंड के जागर साहित्य में विद्यमान है। अग्नि या धूप की आत्मा को उत्तराखंड में ‘भटुला’ कहते हैं। जो जेठ की दुपहरी में अकेले व्यक्ति को प्रभावित करता है इससे उसकी मृत्यु हो जाती है।

उत्तराखंड के जागरों में प्रकृति के उपादानों में ही नहीं अपितु मानव मन के विकारों और संवेगों में भी अनिष्टकारिणी शाक्तियों की कल्पना की गयी है। जागरों में इनसे प्रभावित व्यक्तियों की चिकित्सा का मांत्रिक उपाय भी है। मानव मन का प्रथम विकार है काम इस काम को जागरों की भाषा में इश्की भूत कहा जाता है। यह भूत सुन्दर और यौवन सम्पन्न महिलाओं को अपने वश में करता है जिससे ये महिलाएं व्यथित हो जाती हैं जागरों में इस भूत को उतारने का भी उपचार हैं। ईर्ष्या मानव मन की कमजोरी है जो ईर्ष्यालु व्यक्ति का पतन तो करती ही है उस व्यक्ति को भी कष्ट पहुंचाती है जिससे वह ईर्ष्या करता है। जागर की भाषा में इसे ‘हंकार’ कहा जाता है जिसे उतारने के लिए जागर में कई मंत्र है। क्रोध को पौराणिक भाषा में ‘कृत्या’ और जागर की भाषा में घात कहा जाता है।

उत्तराखंड के ‘जागर’ एक तरह की वह तन्त्र मंत्रों के द्वारा की जाने वाली पारम्परिक और प्राकृतिक चिकित्सा है जो व्यथित जन के ही उपचार का माध्यम ही नहीं अपितु व्यथित करने वाली सूक्ष्म आत्माओं को शान्ति प्रदान करता है। जागर की यह परम्परा आज की नहीं अपितु तब से चली आ रही है, जब से मानव ने जन्म लिया है। उत्तराखंड में भले ही जागर पूजा विधि चिकित्सा और साहित्य की उपस्थिति के रूप में विद्यमान है लेकिन संसार के समस्त देशों और उनमें निवास करने वाला मानव समाज किसी न किसी रूप में इसका अनुमोदन करता है। आज विज्ञान की उन्नति के कारण तथा कथित सभ्य समाज इसकी खिल्ली उड़ाता है लेकिन आदिकाल से वैज्ञानिक जिस आत्म तत्व की खोज लाखों वर्षों से करता आ रहा है, उस आत्म तत्व को उत्तराखंड का जागर तन और मन के पर्दे पर डमरू और थाली बजाकर क्षण में उपस्थित कर देता है। ऐसा क्यों नहीं होगा? आखिर वह उस देवभूमि का निवासी है जहां कण-कण और क्षण-क्षण में आलौकिक आत्माएं निवास करती हैं।

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