वर्षों से पहाड़ी लोगों की मेहनत और इमानदारी की दुनिया कायल रही है। महाराष्ट्र को हम पहाड़ी अपना ही समझते हैं, हमारे यहां बहुत से लोगों के पुरखे महाराष्ट्र से ही गये हैं। ये कथन हैं भारत विकास परिषद, कोंकण प्रांत के अध्यक्ष महेश शर्मा के। उत्तराखंड मूल के महेश शर्मा ने हिंदी विवेक को दिए गए साक्षात्कार में उत्तराखंड तथा मुंबई से जुडे कई अनुभवों को साझा किया। प्रस्तुत हैं उसके कुछ महत्वपूर्ण अंश-
उत्तराखंड और मुंबई से दोनों से आपके लगाव को जाहिर करें?
उत्तराखंड मेरी जन्म भूमि है और मुंबई मेरी कर्म भूमि। एक मां ने जन्म दिया और एक मां मुझे पाल रही है। नैनीताल जिले के ओखल कान्डा विकास खंड के अधोड़ा गांव से मुंबई तक का सफर बड़ा रोचक रहा है। मां मुम्बा देवी का भरपूर आशीर्वाद मिला है मुझे।
आपके परिवार तथा उत्तराखंड से आपको क्या संस्कार मिले?
बडो के प्रति आदर भाव, और अपनी संस्कृति से जुड़ाव ये मेरे संस्कार है। मुझे याद है जब मैं बहुत छोटा था तो मेरी दादी के साथ ही मेरा ज्यादा वक्त बीतता था। मैंने उनको हमेशा खुश और प्रसन्न देखा है वो सदैव दूसरों का हित देखती थीं। खुद के लिए वह कभी भी नहीं सोचती थीं। 10 वीं के बाद मैं हल्द्वानी आ गया वहां मुझे संघ से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जिससे मुझमें समाज व राष्ट्रसेवा का भाव जागृत हुआ।
मुंबई में अपने जीवन का प्रारंभ करते समय इन संस्कारों का किस प्रकार से उपयोग हुआ?
जी, बहुत अच्छा सवाल किया आपने। मुंबई में कदम रखने से पहले ही मुझे शुभचिंतक मिलने लगे थे। जब मै मुंबई में आया तो मैं यहां किसी को नहीं जानता था। मुझे पुस्तकें पढ़ने की धुन थी। संघ साहित्य, स्वामी विवेकानन्द, म. गांधी के साहित्य व पौराणिक ग्रंथों में भी मेरी रुचि थी। मेरा मुंबई आना नियोजित नहीं था। 5 जनवरी 1993 को मैं मुंबई पहुंचा। जोगेश्वरी राधा बाई चाल की निर्मम घटना के बाद मुंबई में दंगे हुये थे। मुंबई का वातावरण गरम था। पांच दिन मुंबई में लॉज में रहने के बाद वापस जाने वाला था कि एक ऐसा इन्सान (करण सिंग) मुझे मिला जिसने मेरे जीवन की दिशा बदल दी। वे कर्तव्यनिष्ट थे, वे कलाकार थे, नाटकों में कार्य किया करते थे। उनके साथ मैं घाटकोपर आ गया। मेरे पास संघ की कुछ किताबें थीं। मैंने यहां पर शाखा लगानी शुरु की। अब उस मंडल में 7 शाखाएं हैं। करण सिंह का संघ से कोई सम्पर्क नहीं था। बाद में वे भी संघ से जुड़े और तृतीय वर्ष शिक्षित हुए। मैं भी शाखा, नगर और भाग के दायित्वों का निर्वहन करने के बाद अब भारत विकास परिषद में 2018-21 में महामंत्री तथा 2021 से अब अध्यक्ष का दायित्व निभा रहा हूं।
उत्तराखंड के गांव से आया हुआ युवक, आज समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपना योगदान दे रहा है, यह कैसे संभव हो पाया?
इसके पीछे मेरी दादी मां के संस्कार और संघ विचार दोनों का प्रभाव है। आज संघ की ग्राम विकास की जो संकल्पना है, वो ही हमारे गांव में था। यातायात के साधन नहीं थे, तब भी गीत गाते हुए खुशी से सारे कार्य होते थे। वही संस्कार मिले कि ‘हर हाल में खुश रहकर कार्य करना है।’ पहले नौकरी फिर व्यवसाय किया। सामाजिक कार्य कुछ हो पा रहे हैं तो उसमें मेरी जीवनसाथी श्रीमती मोहिनी का बहुत योगदान है ।
आप जिन सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं उनके माध्यम से उत्तराखंडी समाज का हित किस प्रकार हो रहा है?
हम लोग हिमालय प्रभात शाखा लगाने के लिए संघ स्थान ढूंढ़ रहे थे। निकट ही एक मैदान था जिस पर कुछ अतिक्रमण था और गैरेज चलता था। वहां पर हमने प्रभात शाखा शुरु की। उस जगह की साफ-सफाई करने लगे, तब पता चला कि यह जगह तो पहाड़ी लोगों की है। हिमालय पर्वतीय संघ, जिसका कार्यालय परेल गोप हाऊस में था, उस संस्था ने पंडित गोविंद वल्लभ पंत के नाम पर विद्यालय व सभागार बनाने के लिए खरीदी है। उस समय पता चला कि मुंबई में लाखों की संख्या में पर्वतीय जन हैं। राजेन्द्र सिंह भंडारी व जगदीश पन्त ने मुझे संस्था का सदस्य बनाया। आज सन्तोष की बात यह है कि हमारे पूर्वजों ने जिस उदेश्य के लिये अथक परिश्रम से जगह खरीदी वो धीरे-धीरे सफल हो रहा है। जिस जगह को लोग लावारिस समझ रहे थे, आज वहां पर पंडित गोविंद वल्लभ पंत के नाम पर विद्यालय चल रहा है। पहले केवल हिमालय पर्वतीय संघ और गढ़वाल भ्रातृ मंडल ये दो ही संगठन थे। आज कई सस्थाएं कार्य कर रही हैं।
उत्तराखंड के विकास के बारे में आपके क्या विचार हैं?
उत्तराखंड सचमुच देवभूमि है, यह वहां जाने पर महसूस होता ही है। लेकिन आज सबसे बड़ा संकट उस देवभूमि के अस्तित्व को बचाने का है। मूल निवासियों का पलायन और बाहरी लोगों का वहां के संसाधनों पर कब्जा बहुत ही चिन्ता का विषय है। उत्तराखंड राज्य प्राप्ति के लिये हमारी माताओं-बहनों ने अपना सर्वस्व बलिदान दिया है। वहां पर विकास के लिये आध्यात्मिक पर्यटन और जड़ी-बूटियों, वनस्पतियों की खेती ही एक मात्र उपाय है।
कोरोना संक्रमण काल में उत्तराखंड के मुंबई निवासी लोगों की समस्याओं का निराकरण किस प्रकार किया गया?
कोरोना संक्रमण के समय जो प्रवासी मजदूरवर्ग था, उन्हें राशन और गांव तक पहुंचने के लिए कई समाजिक संस्थाओं ने मदद की। मा. राज्यपाल भगतसिंह कोशियारी के सहयोग से रेल्वे द्वारा लोग गांव जा पाये। भारत विकास परिषद ने भी ठाणे और मुलुंड में भोजनालय चलाये थे।
महाराष्ट्र राज्य के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं अन्य क्षेत्र में उत्तराखंड के लोगों का योगदान किस प्रकार है?
वर्षों से पहाड़ी लोगों की मेहनत और इमानदारी की दुनिया कायल रही है। लोग पहले राजनीतिक रूप से ज्यादा जागरुक नहीं रहे, कांग्रेस और जनसंघ में थोडी-बहुत भागीदारी रही। वर्तमान में भाजपा में उतराखण्ड प्रकोष्ठ बना है जिससे काफी लोग जुड़ रहे हैं । मुंबई में रामलीला का प्रारंभ सबसे पहले उत्तराखंड के लोगों ने किया था। महाराष्ट्र को हम पहाड़ी अपना ही समझते हैं, हमारे यहां बहुत से लोगों के पुरखे महाराष्ट्र से ही गये हैं ।
मुंबई में 30 साल के निवास के बाद आपके मन में क्या भावना है?
मैं मुंबई आना मां भगवती की कृपा समझता हूं। मैं लोगों को महानगरों में न बसने का सुझाव देता था और मां मुम्बा देवी ने मुझे ही महानगर बुला लिया। यहीं आकर मेरी पहचान बनी, विवाह हुआ, बहुत अच्छी जीवनसाथी मिली, बेटी और बेटा हुए। मुंबई आकर ़पू. डॉ. हेडगेवार का जीवन चरित्र, जो नाना पालकर ने लिखा था, पढ़ने के लिये मैंने मराठी सीखी। अपार भंडार है मराठी साहित्य में। मैं खुद को भाग्यवान समझता हूं और मेरे मन में इस मां मुम्बादेवी और महाराष्ट्र के प्रति कृतज्ञता का भाव है ।
आप उत्तराखंड निवासियों को कौन सा संदेश देना चाहेंगे?
मुंबई या कहीं भी हम रहें, हमेशा दो बातें याद रखें। अपनी मूल जड़ों को न भूलें। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति को अपनी और आने वाली पीढ़ियों की रगों में दौड़ाएं और जहां भी रहें वहां की भाषा संस्कृति और कार्य में अपना योगदान दें।