बीजेपी की राजनीति को भांप कर सबसे पहले कांग्रेस और बाद में अकाली दल और अब आम आदमी पार्टी ने भी पंजाब में अपनी रणनीति में आमूलचूल परिवर्तन की घोषणा की है। धनाढ्य जाट सिख वोट बैंक के सामने दलित सिख और हिन्दू वोट बैंक के गठजोड़ ने पंजाब की पुश्तैनी सियासत का मिजाज और चेहरा पूरी तरीके से बदल दिया है।
जाब की राजनीति अब नए दौर में है। समीकरणों के नव प्रयोग और वोटबैंक की नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं। राज्य की सियासत के केंद्र में दलित देवो भवः का संदेश गुंजायमान है। कमोबेश सभी सियासी पार्टीयां दलित नेतृत्व का राग अलापने लगी हैं। नेतृत्व और निर्णय में दलित समुदाय को आखिरी पायदान पर रखने में हमेशा से अव्वल रही कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल जैसी पार्टियां अपनी पुरानी और प्रचलित रणनीति बदलने लगी हैं। सिद्धू बनाम अमरिंदर का संघर्ष, सिद्धू बनाम रंधावा और जाखड़ होते हुए अब चर्मोत्कर्ष पर है। ऐसे में अस्त-पस्त होती कांग्रेस ने हाल ही में चरनजीत सिंह चन्नी को चुनावी मुख्यमंत्री बना दलित समुदाय को लॉलीपॉप थमाने का प्रयास किया है लेकिन मुख्यमंत्री चन्नी के साथ जुड़े क्रिप्टो क्रिश्चन विवाद ने कांग्रेस के पाखंड की पोल खोल दी है।
पंजाब का दलित समाज अपनी धार्मिक पहचानों को लेकर बड़ा ही संवेदनशील रहा है। वह बाकी देश के उलट परंपराओं पर चोट करने वाले दलित आंदोलनों से कोसों दूर है। इनकी आस्था गुरुओं और डेरों में रही है। वहीं इनके पास वाल्मीकि और रविदास जैसे खुद के महापुरुष हैं। ऐसे में दलित चेहरे के नाम पर थोपे गए एक छद्म ईसाई को पंजाब का दलित समाज कितना स्वीकार करेगा इसका अंदाज़ा भी सहज ही लगाया जा सकता है। पंजाब में दलित नेतृत्व और सत्ता में दलितों की हिस्सेदारी की बात अब चर्चा और घोषणा के केंद्र में है। पारंपरिक तौर पर मुख्यधारा के सिखों और धनी जाट सिखों की राजनीति करने वाली शिरोमणि अकाली दल भी इस बार दलित उप मुख्यमंत्री का चुनावी वायदा कर रही है। ऐसे में पंजाब के सियासी फॉर्मूले को बदलने का श्रेय अगर किसी एक पार्टी को जाता है, तो वह पार्टी है बीजेपी। वही बीजेपी जो लगभग ढाई दशक बाद शिरोमणि अकाली दल की बैसाखी से दूर होकर अपना वजूद अकेले तलाश रही है।
पंजाब की राजनीति में बीजेपी की भूमिका
कभी संयुक्त पंजाब का हिस्सा रहे आज के हरियाणा में बीजेपी ने गैर जाट राजनीति का गुणा गणित कर सफलता हासिल की है। बीजेपी ठीक ऐसे ही पंजाब में प्रचलित राजनीति की धुरी जाट सिख के सामने दलित सिख प्लस हिन्दू का जोड़ ज़मीन पर उतारने में लगी है। बीजेपी की राजनीति को भांप कर सबसे पहले कांग्रेस और बाद में अकाली दल और अब आम आदमी पार्टी ने भी पंजाब में अपनी रणनीति में आमूलचूल परिवर्तन की घोषणा की है। धनाढ्य जाट सिख वोट बैंक के सामने दलित सिख और हिन्दू वोट बैंक के गठजोड़ ने पंजाब की पुश्तैनी सियासत का मिजाज और चेहरा पूरी तरीके से बदल दिया है। पंजाब में दलित राजनीति की आहट कितनी मज़बूत है, इसका अंदाज़ा समीकरणों को समझकर लगाया जा सकता है। अबतक पंजाब की सियासत 20 फीसदी वाले जाट सिखों के इर्द-गिर्द ही सिमटी रही है। यहां के सभी मुख्यमंत्री जाट सिख समुदाय से ही बनते रहे है। आबादी में 32 फीसदी हिस्सेदारी के बाद भी दलित मुख्यमंत्री की चर्चा अब से पहले कभी नहीं हुई। ये भी दीगर बात है कि 117 सदस्यों वाली पंजाब विधानसभा में 30 सीटें दलित समुदाय के लिए आरक्षित हैं। हालांकि मतदाता के तौर पर दलित समुदाय का असर पंजाब विधानसभा की तकरीबन 50 सीटों पर है। वोट बैंक के तौर पर दलित समुदाय को साधने का प्रयास पंजाब की पारंपरिक राजनीति को किस रूप में कितना बदलेगा ये तो वक़्त ही तय करेगा पर इतना जरूर है कि बीजेपी की राजनीति ने पंजाब के सियासत को नई ज़मीन दी है।
बीजेपी को मिल रहा पंजाब में विरोध
वहीं नए कृषि कानून के मामले पर पंजाब में एक धड़े का विरोध झेल रही बीजेपी की सियासत में कैप्टन अमरिंदर सिंह की मौजूदगी किस रूप में और कितना कारगर होगी, यह भी देखना महत्त्वपूर्ण होगा। वैसे पंजाब को समझने वाले बखूबी जानते है कि पंजाब की सरकार के पुराने कैप्टन का असर राज्य की शहरी आवाम पर अच्छा खासा है। देश के शहरी मतदाताओं पर विशेष प्रभाव रखने वाली बीजेपी को पंजाब के शहरों में कैप्टन से दोस्ती का कितना लाभ मिल पाता है, यह भी देखना दिलचस्प होगा। जहां तक सिख समुदाय की अलगाववादी धारा से निपटने की बात है, तो भाजपा संघ परिवार को कुछ ठोस निर्णय लेने होगे। उन्हें शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी और गुरु सिंह सभा जैसी संगठनों से कहीं आगे बढ़ पंजाब की आम अवाम से सीधे जुड़ना होगा। इस काम में इनका सहयोग लॉर्ड मैकालिफ के प्रभावों से बाहर का हर धरा सिख करेगा। बात चाहे उदासियों की हो या रैदासियों की या बंदई सिख हों या निर्मल, नामधारी, निरंकारी या राधा स्वामी सभी देश की बेहतरी और पंजाब में शांति के लिए साथ आएंगे। बस विश्वास को कायम करने और इन सभी को समेटने की जरूरत है।
पंजाब के धार्मिक डेरों के साथ ही ये सिख पांथिक संस्थाएं भी बदलाव की वाहक हो सकती है। इसमें सर्वाधिक भूमिका सिखों के राष्ट्रवादी धरे नामधारी सिखों की हो सकती है। पंजाब के सिख आबादी में ये दूसरा सबसे बड़ा समुदाय है। इसके आद्य पुरुष गुरु राम सिंह कूका ने अपने शिष्यों के साथ स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से लोहा लिया था। वही कूका वीरों ने गोरक्षा के लिए आत्माहुति दी है। वर्तमान में इस परंपरा के वाहक नामधारियों के सर्वोच्च गुरु ठाकुर उदय सिंह है। ये भी देश धर्म और संस्कृति के लिए अपने पूर्वजों की तरह सर्वस्व त्याग की बातें करते हैं। ऐसे में बदलाव के लिए और नये सियासी गुणा गणित के साथ शाह-मोदी की जोड़ी को अपनी नयी पंजाब नीति को लाना होगा। शायद यह उनके कश्मीर नीति के तर्ज पर हो। आखिर कब तक दीनी पुस्तक, मज़हब और बेअदबी के नाम पर अल्पसंख्यक हिन्दू-दलित समुदाय मारे और सताये जाते रहेंगे?