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संविधान, लोकतंत्र और अमृत महोत्सव

संविधान, लोकतंत्र और अमृत महोत्सव

by ऋतुपर्ण दवे
in जनवरी- २०२२, विशेष, सामाजिक
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निश्चित रूप से दुनिया में हमारी साख के पीछे हमारा मजबूत संविधान और विश्व का सबसे बड़ा एवं सशक्त लोकतंत्र ही हैं, जो दुनिया के लिए आश्चर्य, विश्वास के साथ स्वीकार्यता की कसौटी पर खरा उतर कर भारत को विश्व गुरू की ओर अग्रसर कर रहा है।

देश में कई सारे परिवर्तन हुए है। स्वतंत्रता के पहले और स्वतंत्रता के बाद की स्थितियां काफी अलग हैं। सच तो यह है कि नागरिकों में उनके अधिकारों के प्रति जो चेतना बल्कि कहें जनचेतना का भाव दिख रहा है, उसके मूल में कहीं न कहीं स्वतंत्रता और संविधान ही हैं। एक लोकतांत्रिक गणराज्य होने के चलते जहां हर भारतवासी अपनी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए कटिबध्द तो है ही वहीं संविधान के प्रति भी पूरी जिम्मेदारी के साथ सच्ची भारतीयता पर गर्व भी करता हैं।

1950 में भारत सरकार अधिनियम 1935 को हटाकर भारत का संविधान लागू किया गया। भारत स्वतंत्र गणराज्य बनने और देश में कानून का राज स्थापित करने के लिए ही संविधान को 26 नवम्बर 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ लागू किया गया। लोकतंत्र की समझ से ही हमारा संविधान और भी प्रभावी व मजबूत बना जो हमारी दिनचर्या में समाहित सा है। संविधान की रक्षा और पालना से ही व्यवस्थाएं बनती है और सब कुछ तारतम्यता व निरंतरता से चलता हैं।

अलोकतांत्रिक देशों के वर्तमान और अतीत के अनेकों अनेक उदाहरणों से हमें हमारे मजबूत संवैधानिक लोकतंत्र पर गर्व होता है। उससे भी बढ़कर यह कि हरेक भारतीय अब इसे समझने, जानने और आत्मसात करने लगा है जिससे देश की तेजी से प्रगति भी हो रही है। निश्चित रूप से दुनिया में हमारी साख के पीछे हमारा मजबूत संविधान और दुनिया का सबसे बड़ा एवं सशक्त लोकतंत्र ही हैं जो दुनिया के लिए आश्चर्य, विश्वास के साथ स्वीकार्यता की कसौटी पर खरा उतर कर भारत को विश्व गुरू बनने की ओर अग्रसर कर रहा है।

संविधान ने वास्तव में सबकी हदें तय कर रखी हैं। अगर सरकारें सही काम नहीं करती है तो जनता को 5 साल में उलटने का अधिकार है। यह भी सही है कि न तो सरकार तैश में आए और न ही न्यायालय। क्या परिपक्व होते भारतीय लोकतंत्र में, सरकार को आईना दिखाना अपराध है? बिल्कुल नहीं लेकिन इस पर भी मंथन की जरूरत है क्योंकि मंथन से ही विष और अमृत दोनों निकलते हैं, किसके हिस्से क्या आएगा, यह परिस्थितियों, प्रमाणों और साक्ष्यों पर निर्भर करता है। देश का चौकस मतदाता ख़ामोशी से सब कुछ देख रहा होता है। कई बार निर्णय कौन करेगा जनमत, सरकार या न्यायालय यह उत्सुकता का विषय जरूर होते हैं। यही खासियत हमारे लोकतंत्र को संविधान ने दी है जिसके चलते अलग होकर भी सारे स्तंभ मजबूती से संविधान के सहारे लोकतंत्र की सुदृढ़ता को हमेशा निखारते और खूबसूरत बनाते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था के असफल होने पर जनता के पास बदलाव का मिला अधिकार भी तो संविधान ने ही दिया है। जहां तक कार्यपालिका, न्यायपालिका विधायिका का प्रश्न है, उनके अधिकार और कर्तव्य संविधान में साफ तौर पर निर्देशित हैं और एक दूसरे को नियंत्रित भी करते हैं।

बीते कुछ अन्तराल में, प्रगति की अवधारणा को लेकर एक जनधारणा सी बनती जा रही है कि सरकारों से बेहतर न्यायालय हैं जो जनहित के मुद्दों पर तुरंत सुनवाई करते हैं। काफी हद तक ऐसा दिखता भी है लेकिन सच नहीं होता। न्यायालयीन संज्ञान में आकर कई बार त्वरित निर्णय होते जरूर हैं लेकिन उन पर भी सवाल उठते हैं। कई बात तो यह भी लगने लगता है कि क्या कार्यपालिका और न्यायपालिका में टकराव जैसा तो कुछ नहीं? अक्सर अदालती फैसले नसीहत से ज्यादा थोपे हुए से भी लगने लगते हैं और कई बार जनसमर्थन जुटाने जैसे भी। लेकिन लोकतंत्र का बड़प्पन देखिए हमेशा न्यायतंत्र को सदैव सर्वोपरि माना और कई बार न्यायपालिका के विरोधाभास के बाद भी पर्याप्त सम्मान दिया। सही है कि लिखित संविधान से मिली ताकत से ही लोकतंत्र, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायापालिका की जड़ें मजबूत हुई हैं। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं कि कोई किसी के अधिकार क्षेत्र का अतिलंघन करे। बस इस पर सभी पक्षों के बिना किसी पूर्वाग्रह के सोचना ही होगा। स्वतंत्रता के बाद दिनों दिन मजबूत और परिपक्व हो रहे लोकतंत्र के प्रति लोगों की बढ़ती समझ से ही दुनिया में भारत का मान तेजी से बढ़ा है जिसके पीछे मजबूत लोकतंत्र के पहरुए के रूप में मिला सक्षम नेतृत्व होता है। भारत ने शनैः-शनैः यह मुकाम न केवल हासिल किया बल्कि विश्व मंच पर बेहद मजबूत भी कर लिया है। मूल में देखें तो बढ़ती जनजागृति, वह चेतना है जो संविधान से मिली और कहीं न कहीं देश, संविधान, लोकतंत्र और केन्द्र व राज्य सरकारें भी हैं जो वैचारिक और राजनैतिक विरोधाभासों के बावजूद भारत के लिए एक, दूसरे के पूरक थे, हैं और रहेंगे।

यह विचारणीय है कि हम स्वतंत्रता को कितना समझ पाए हैं, आत्मसात कर पाएं हैं? आखिर क्यों युवाओं में इस पर वो चेतना या जागरूकता नहीं दिखती जो हमारी पुरानी पीढ़ियों में थी? क्या हमारे ज्यादातर रहनुमा इस मामले में स्वार्थी हैं जो चुनाव लड़ने, जीतने और राजनीति तक ही सीमित हैं! कहने को तो हम अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि उस विष को भी तो गटकना होगा जो संप्रदायवाद, धर्म, जात-पात की आड़ में देश को कमजोर करते हैं। हमें गंभीरता से सोचना ही होगा ताकि लोकतंत्र और स्वतंत्रता की अक्षुण्णता पर कोई आंख तक न उठा सके। इसके लिए युवाओं को विशेष रूप से जागृत करना होगा, जिसे एक मिशन के रूप में लेना ही होगा। मुझे आज अनायास ही 2016 में 67 वें गणतंत्र की पूर्व संध्या पर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का राष्ट्र के नाम दिया संदेश याद आ रहा है जिसमें उन्होंने बहुत ही ओजपूर्ण और प्रेरक शब्दों के साथ 65 फीसदी युवाओं में नई ऊर्जा भरने का काम किया। अपने संदेश का समापन जिन शब्दों में किया उससे बेहतर शायद हो भी नहीं सकता था। उन्होंने कहा कि पीढ़ी परिवर्तन हो चुका है, युवा बागडोर संभालने के लिए आगे आ चुके हैं। रवीन्द्र नाथ टैगोर की दो पंक्तियों को उध्दृत किया जिसके मायने आगे बढ़ो, नगाड़ों के स्वर तुम्हारे विजयी प्रयाण की घोषणा करते हैं, शान के साथ कदमों से अपना पथ बनाएं। देर मत करो एक नया युग आरंभ हो रहा है। निश्चित रूप से प्रणव दा के उद्बोधन में बड़ी आस दिखी, दिखे भी क्यों न, तेजी से बदलते इस युग में भारत में भी छिटपुट घटनाओं को छोड़ जो सकारात्मक परिवर्तन दिख रहा है, बस उसे ही आगे बढ़ाने की जरूरत है। ऐसा हुआ तो वो दिन दूर नहीं जब भारत एक बार फिर सोने की चिड़िया तो कहलाएगा ही उससे भी ज्यादा एक मजबूत संविधान, सशक्त लोकतंत्र की समझ वाले नागरिकों का दुनिया का वह सिरमौर भी कहलाएगा जो दुनिया को राह दिखाने के लिए सक्षम है, आतुर है।

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Tags: 75 years of independencehindi vivekhindi vivek magazineimportance of democracy in indiaIndian constitution

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