देश के साधु संतों ने अब इस कमान को संभाल लिया है तो हमें विश्वास है कि हिन्दुओं के आस्था केन्द्र मंदिरों पर से सरकारी नियंत्रण से मुक्ति मिलेगी और इसका आगाज उत्तराखंड की सरकार के इस आदेश से हो गया है कि राज्य के चारों धाम में आने वाले मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाता है।
जब अंग्रेजों ने हिन्दुओं की परम्पराओं और आस्था केन्द्र मंदिरों के विरुद्ध कानून बनाकर उस पर सरकारी नियंत्रण को सही ठहराया था तो उस समय हिन्दुओं के तथाकथित प्रबुद्ध नेताओं ने इसका विरोध नहीं किया था। अब आज भी उसी तरह के कानून के माध्यम से मंदिरों को नियंत्रित किया जाता है। राज्य सरकारें केवल मंदिरों और उनकी सम्पत्तियों पर ही क्यों नियंत्रण रखना चाहती हैं?
हमारे देश में यह कैसी विडम्बना है कि हिन्दू बहुसंख्यक वाली सरकारें मंदिरों पर नियंत्रण के लिए कानून बनाकर वहां अर्चकों और अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति, मंदिरों की पारम्परिक उत्सवों और दैनिक पूजा की व्यवस्था पर भी नियंत्रण रखती हैं। हमारे सेकुलर भारत में केवल और केवल हिन्दुओं की आस्था के केन्द्र मंदिरों पर निरंकुशता पूर्वक शासन करना किस प्रकार की सेकुलरिज्म को दिखाता है।
हमने यह भी देखा है कि सरकार की ओर से यह भी ध्यान नहीं रखा जाता है कि मंदिरों के पारम्परिक उत्सवों को सुचारुरूप से संचालन के लिए विद्वानों की नियुक्ति की जाए। और तो और हिन्दू के अतिरिक्त अन्य मजहबी लोगों को मंदिरों का प्रशासनिक अधिकार देकर मंदिरों की पारम्परिक रीतियों से मनाए जाऩे वाले उत्सवों में बाधा पहुंचाने का प्रयत्न किए जाने के कई उदाहरण मिल जाते हैं। मंदिरों और उसकी सम्पत्तियों पर राज्य सरकारों के नियंत्रण से सम्बंधित गठित धर्मादा विभाग की नियमावली में यह उल्लेख ही नहीं किया जाता है कि मंदिरों की देखभाल करने वाले इस विभाग का मुखिया केवल हिन्दू ही होगा, ना कि किसी अन्य मजहब का मानने वाला होगा।
मंदिरों पर नियंत्रण के लिए राज्य सरकारें यह दलील देती हैं कि सार्वजनिक मंदिरों की देखभाल के लिए बनी समितियों में भ्रष्टाचार के मामले इतने बढ़ जाते हैं कि मंदिरों के परिचालन में कुव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है इसीलिए ऐसे मन्दिरों की देखभाल की जिम्मेदारी सरकार अपने नियंत्रण में कर लेती है। सरकारों का कहना है कि कभी-कभी तो सम्पत्तियों के स्वामित्त्व के लिए हत्याएं तक की जाने लगती हैं। सरकारी मशीनरी का यह तर्क भले ही सुनने में अच्छा लगे लेकिन हिन्दुओं के इस प्रश्न का उत्तर सरकार और सरकारी मशीनरी कभी भी नहीं देती हैं कि अन्य मजहबी धर्मस्थलों और कब्रिस्तानों की सम्पत्तियों की देखभाल में भ्रष्टाचार गहराई तक देखी जाती है तो फिर उन मजहबी धार्मिक स्थलों और कब्रिस्तानों का नियंत्रण सरकार अपने हाथ में क्यों नहीं लेती है?
तथ्य तो यह है मुस्लिमों के लिए बने वक्फ बोर्ड को कानूनी रूप से यह अधिकार दिया गया है कि वह यदि किसी सम्पत्ति को अपने नियंत्रण वाला घोषित कर देगा तो उसके विरुद्ध न्यायालय में मुकदमा भी दायर नहीं किया जा सकता है। यहां सीधा और सरल प्रश्न यही है कि राज्य सरकारें हिन्दुओं के मंदिरों को अपने नियंत्रण से कब मुक्त करेंगी? देश के प्रत्येक राज्य में नियंत्रण से सम्बंधित कानून बनाए गए हैं। यह तो माना जा सकता है यदि किसी मंदिर के स्वामित्त्व को लेकर कोई विवाद कि हो तो उसके लिए न्यायालय बने हैं, किसी के भी पक्ष में निर्णय तो वहीं से होना चाहिए। न्यायालय जो निर्णय करेगा वह तो हिन्दुओं के पक्ष में ही तो होगा।
मंदिरों की देखभाल या वहां आयोजित होने वाले पारम्परिक उत्सवों पर यह नियंत्रण तो नहीं रहेगा कि सरकार जब चाहे किसी भी मजहब के लोगों को वहां का प्रशासनिक अधिकारी बना दे। अब यदि वह प्रशासनिक अधिकारी मूर्ति पूजा के विरुद्ध हो तो यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि मंदिरों की देखभाल और पारम्परिक उत्सवों के आयोजन में श्रद्धा और विश्वास का रूप दिखेगा। मंदिर तो आस्था के केन्द्र हैं, वहां श्रद्धा और विश्वास से लोग जाते हैं। उनकी आस्था वहां आयोजित पूजा अर्चना पर होती है, अब यदि उसे ही मजहबी व्यक्तियों के नियंत्रण में सौंप दिया जाए तो यह श्रद्धालु और आस्थावान हिन्दुओं की भावनाओं के साथ विश्वासघात ही है।
बिहार सरकार की धार्मिक संस्था ने अभी हाल ही में एक आदेश जारी कर कहा है कि राज्य के सभी निजी मंदिरों को उनकी आय के 4 प्रतिशत का कर धर्मादा ट्रस्ट को देना होगा। इसके लिए उन मंदिरों को सरकारी संस्था में पंजीकृत कराना आवश्यक है। अब देखा जाए तो जो व्यक्ति अपने पूर्वजों द्वारा बनवाए गए मंदिरों में किसी भी तरह से पूजा आदि की व्यवस्था कर रहा हो और उसके निजी मंदिर में कोई भी चढ़ौत्री न हो रही हो तो वह कैसे आय के 4 प्रतिशत को कर के रूप में दे सकता है। बिहार की धर्मादा संस्था ने कहा कि वह अपने कार्यालयीन खर्चे को पूरा करने के लिए इस तरह के आदेश जारी करने को विवश है। सवाल यह है कि सरकार को इस विभाग का गठन ही क्यों करना चाहिए था?
देश के सभी राज्यों में मंदिरों की व्यवस्था के लिए बनाए गए धर्मादा विभाग की कमोबेश यही हालत है। राज्यों में कुछ ऐसे मंदिरों की संख्या ही मिलेगी जिनकी वार्षिक आय करोड़ो में हो सकती है परन्तु अधिसंख्य मंदिरों में इतनी भी आय नहीं होती है कि वहां के कर्मचारियों और अर्चकों का वेतन भी दिया जा सके। जब तक यह मंदिर निजी मालिकों के पास थे तब तक उनकी श्रद्धा और पूर्वजों की साख बचाने के लिए वे किसी न किसी तरह से व्यय का भार उठाते थे। निजी मंदिरों की देखभाल के लिए मंदिर में स्थापित देवी-देवताओं के नाम सम्पत्तियों को लिख दिया जाता था, जिससे उन सम्पत्तियों की आय से मंदिर के खर्चे की व्यवस्था हो सके। जब से सरकारों ने मंदिरों का अधिग्रहण करना आरंभ कर दिया तभी से मंदिरों की देखभाल में श्रद्धा का लोप हो गया और उनसे जुड़ी अकूत सम्पत्तियों को सरकार द्वारा मंदिर की व्यवस्था के नाम पर बेचा जाने लगा।
सरकारें, मंदिरों की परम्परा को जीवंत रखने या फिर उनकी वास्तुशिल्प को संवार कर रखने की कोशिश में मंदिरों का अधिग्रहण नहीं करती हैं। हमने देखा है कि कर्नाटक सरकार ने बेंगलूरु स्थित गणेश मंदिर का अधिग्रहण इसलिए कर लिया कि वहां की आय करोड़ो में पहुंच गई थी, और मंदिर की व्यवस्था के लिए बनी समिति में भ्रष्टाचार के आरोप लगने आरंभ हुए थे। सरकार की धर्मादा विभाग में जब इसकी खबर पहुंची तो विभाग ने तुरंत ही मंदिर के अधिग्रहण की तैयारी कर ली और कुछ ही दिनों में यह बोर्ड लगा दिया गया कि यह मंदिर अब धर्मादा विभाग के अधीन है। यह तो मात्र एक उदाहरण है ऐसी अनेक घटनाएं मिल जाएंगी जब मंदिर ट्रस्टियों के बीच झगड़े के मामले को लेकर सरकारी विभाग मंदिरों को अपने नियंत्रण में ले लेती हैं। दरअसल सरकार की हिम्मत मंदिरों के अधिग्रहण करने की इसलिए भी होती है कि मंदिरों को लेकर समितियों या अन्य ट्रस्टियों के बीच जो झगड़े होते हैं उसके बीच बचाव या समझौते के लिए मंदिरों में आने वाले श्रद्धालुओं और दर्शनार्थियों की ओर से सरकारी अधिग्रहण के विरुद्ध किसी तरह का विरोध दर्ज नहीं कराया जाता है।
कुछ हिन्दू संगठनों द्वारा मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कराने का बिगुल बजा तो दिया गया है परन्तु यह विरोध तब तक सफल नहीं होगा जब तक कि इसे लेकर हिन्दू समाज को एकजुट नहीं किया जाएगा और राज्य सरकारों के नियंत्रण से मंदिरों को मुक्त कराने के लिए श्रीराम जन्म भूमि पर श्रीराममंदिर पुनर्निर्माण की तरह ही दीर्घकालीन आन्दोलन नहीं चलाया जाता। देश के साधु संतों ने अब इस कमान को संभाल लिया है तो हमें विश्वास है कि हिन्दुओं के आस्था केन्द्र मंदिरों पर से सरकारी नियंत्रण से मुक्ति मिलेगी और इसका आगाज उत्तराखंड की सरकार के इस आदेश से हो गया है कि राज्य के चारों धाम में आने वाले मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया जाता है।
जी हमारा निवेदन है की देश के सभी मंदिर पुजारी के हि होना चाहिए, सरकार कि अधीन नहीं होना चाहिए, इसकी आड़ में सरकारी तंत्र पुजारियों को लुट रहे हैं, ज़मीन नीलामी के नाम पे।