पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में किसी एक पार्टी पर देश से लेकर विदेश की नजर है तो वह है, भाजपा। केंद्र में सत्तासीन होने के साथ-साथ 4 राज्यों में उसकी सरकारें हैं तो स्वभाविक ही उसके प्रदर्शनों पर सबकी नजर होगी। स्वयं भाजपा के लिए ये चुनाव कितने महत्वपूर्ण हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं। लोकसभा चुनाव 2024 के पूर्व हर चुनाव को केंद्र में उसकी सत्ता में वापसी की दृष्टि से भी विश्लेषित किया जाएगा। पांच राज्यों में अकेले उत्तर प्रदेश से लोकसभा में उसके 63 सांसद हैं। सामान्य राजनीति की कसौटी पर भी देखें तो भारतीय राजनीति में उसकी शक्ति का यह मजबूत आधार स्तंभ है। इनको बनाए रखने का मतलब होगा भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर वर्तमान स्थिति कायम रहना। इनमें विजय प्राप्त करने के बाद कोई यह नहीं कह सकता कि 2024 में भाजपा फिर से सत्ता में वापस नहीं आएगी।
इसके विपरीत इन राज्यों में उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा तो कैसी तस्वीर बनाई जाएगी इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। पश्चिम बंगाल में भाजपा न सत्ता में थी न विधानसभा में उसका कोई सदस्य था। उसने 77 सीटें प्राप्त की। बावजूद आज तक यही कहा जा रहा है कि वह बंगाल में पराजित हो गई। हां ,लोकसभा में उसके पास वहां से 19 सांसद अवश्य थे और इसके आधार पर उसका प्रदर्शन कमजोर रहा। वहां सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहे माकपा के नेतृत्व का वाम मोर्चा तथा तीन दशक तक सरकार चलाने वाली कांग्रेस शून्य पर पहुंच गई पर उसके प्रदर्शन को लेकर ऐसी टिप्पणियां नहीं की जा रही। यही नहीं पश्चिम बंगाल के साथ यह भी कहा जाने लगा कि भाजपा के लिए उल्टी गिनती शुरू हो गई। साफ है कि भाजपा शासित इन राज्यों में उसके प्रदर्शन कमजोर होने के बाद विरोधियों को उसकी मृत्यु गाथा लिखने से कोई रोक ही नहीं पाएगा।
इसके बाद विरोधियों का स्वाभाविक ही मनोबल बढ़ेगा। उनकी सोच यह बनेगी कि थोड़ा जोर और लगाया जाए तो भाजपा को केंद्रीय सत्ता से बाहर किया जा सकता है। वे पहले से ज्यादा आक्रामक और संगठित होंगे तथा भाजपा को अनेक स्तरों पर बचाव की मुद्रा में आना पड़ेगा। जनता के मनोविज्ञान पर भी इसका असर पड़ सकता है। इसी वर्ष हिमाचल प्रदेश एवं गुजरात विधानसभा चुनाव भी है। उसे भी प्रभावित करने की कोशिश होगी।
वास्तव में भाजपा के लिए इन चुनावों में थोड़ा भी कमजोर प्रदर्शन भारतीय राजनीति के स्वर में व्यापक परिवर्तन का कारण बनेगा। अगर केवल चुनावी राजनीति की दृष्टि से देखें तो गोवा में तृणमूल की थोड़ी सफलता को भी इस रूप में प्रचारित किया जाएगा कि ममता बनर्जी ने बंगाल में भाजपा को धूल चटाने के बाद उसके बाहर भी कब्र खोदना शुरू कर दिया है। बंगाल में तृणमूल की आक्रामकता और बढ़ेगी तथा भाजपा के लिए उसके बाहर चुनौतियां ज्यादा बढ़ जाएंगे । ममता बनर्जी को मोदी के समानांतर खड़ा किया जाएगा एवं कुछ और राज्यों में तृणमूल पैठ बढ़ाने की कोशिश करेगी। कई विपक्षी पार्टियां उसके साथ हाथ मिलाकर अपने राज्यों में भाजपा से मुकाबला करने को तैयार हो जाएंगी । यानि इन चुनाव परिणामों पर भाजपा के विरुद्ध तीखी आक्रामकता तथा विजय के मनोविज्ञान वाले गठबंधन की संभावना निर्भर है।
चुनावी राजनीति से थोड़ा बाहर निकल कर देखें तो भाजपा के लिए चुनाव जीतना हारना केवल सामान्य राजनीतिक उतार-चढ़ाव का विषय नहीं है। उससे पुश्तैनी नफरत करने वाले तथा नरेंद्र मोदी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं को हिंदू फासिस्ट मानने वालों की संख्या इतनी बड़ी है कि वे बड़े समूह के भीतर कुछ धारणाएं प्रवेश कराने में सफल हो जाते हैं। किसी राष्ट्र की मनोदशा एवं राजनीति की गति में धारणाओं का बहुत बड़ा असर होता है। केंद्र में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने तथा उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद जिस तरह हिंदुत्व की विचारधारा और राजनीति को लेकर धारणायें वैश्विक स्तर पर प्रसारित करने की कोशिश हुई उनसे अलग-अलग देशों के अंदर व्यापक समूह की रुचि भारत के चुनावों में हो गई है। भाजपा चुनावी ग्राफ में कमजोर हुई नहीं कि भारत के साथ वैश्विक स्तर पर भी हिंदुत्व के नकार व धर्म की राजनीति का भारतीय मतदाताओं द्वारा खारिज करने के रूप में प्रसारित होना शुरू हो जाएगा। वैसे भी उत्तर प्रदेश में भाजपा ने हिंदुत्व आधारित अपनी राजनीति को सर्वाधिक प्रखर स्वरूप दिया है।
एक भगवाधारी संन्यासी महंत को मुख्यमंत्री पद पर बिठाकर उसने प्रखर संदेश दिया है। अयोध्या, काशी, प्रयागराज, विंध्याचल जैसे प्राचीन धार्मिक स्थलों के पुनरुद्धार के साथ गौ हत्या विरोधी कानून, धर्म परिवर्तन संबंधी कानून, जनसंख्या नियंत्रण की दिशा में कदम, अवैध बूचड़खाना पर तालाबंदी ,धर्म परिवर्तन कराने वाले गिरोहों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई , मथुरा के बारे में की जा रही घोषणाएं आदि को एक साथ मिला दें तो उत्तर प्रदेश हिंदुत्व के मॉडल प्रदेश के रूप में दिखाई देगा। जिस अयोध्या आंदोलन ने भाजपा के चुनावी प्रदर्शन को आरंभिक उछाल दी उसकी साकार परिणति के बाद अगर वहां से उसका प्रदर्शन कमजोर हुआ तो इसका पोस्टमार्टम विरोधी किस तरह करेंगे उसकी कल्पना करिए। विरोधियों ने उसे भारतीय राजनीति के सांप्रदायिककरण या फिर एक मजहब के वर्चस्व वाले राज्य की ओर प्रस्थान के रूप में विश्व भर में पेश किया है। न यह सच है न कभी होगा किंतु धारणाएं फैलाई गई हैं और उनका असर है। अगर उत्तर प्रदेश में किन्ही कारणों से भाजपा का चुनावी प्रदर्शन अपेक्षानुरूप नहीं हुआ तो उसका विश्लेषण ऐसे ढांचे में किया जाएगा।
वास्तव में उत्तर प्रदेश का चुनाव केवल सर्वाधिक सांसदों के कारण राजनीतिक शक्ति की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, भाजपा के सत्ता में होने के कारण विचारधारा के धरातल पर इसका महत्व सर्वाधिक है। अन्य राज्यों के साथ ये बातें बिल्कुल लागू हो नहीं होती ऐसा नहीं है पर वे सब हिंदुत्व की प्रखरता के मॉडल प्रदेश के रूप में नहीं देखे जाते। इसके कारण अलग हो सकते हैं । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1925 में अपनी स्थापना के समय से जिस हिंदू राष्ट्र की कल्पना की उसके सभी घटकों के लिए सर्वाधिक महत्व किसी विषय का है तो इस परिकल्पना का। चुनावी प्रदर्शन कमजोर या मजबूत हो इसके मायने तो हैं किंतु इससे ज्यादा महत्व इस बात का है कि उसकी अवधारणा को खारिज किए जाने का वातावरण किसी सूरत में नाबन पाए। इस नाते उत्तर प्रदेश का चुनाव पूरे संगठन परिवार और उसके समर्थकों के लिए जीने मरने का प्रश्न होना चाहिए। हालांकि चुनावी प्रदर्शन कमजोर होने का अर्थ हिंदुत्व का नकार नहीं हो सकता। बावजूद संघ और भाजपा कभी नहीं चाहेगी कि चुनावी प्रदर्शन के आधार पर यह विश्लेषण किया जाए कि उसे अपनी प्रखर हिंदुत्व की राजनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। इस समय संघ एवं भाजपा दोनों के नेतृत्व में वैचारिक स्पष्टता और दृढ़ता सशक्त है।
चुनावी प्रदर्शन के आधार पर वे इसमें परिवर्तन लाएंगे इसकी कल्पना आसानी से नहीं की जा सकती है। बावजूद उत्तर प्रदेश में कमजोर चुनावी प्रदर्शन के बाद नए सिरे से उसके सामने मंथन करने की नौबत आ सकती है कि कैसे अपनी राजनीति को संशोधित करें जिसमें उसके हिंदुत्व की मूल अवधारणा पर कायम रहते हुए वोट भी मिले। जाहिर है, तब संतुलन में विचारधारा के काम की गति कमजोर करने का मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ सकता है। किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए सत्ता पाना मूल लक्ष्य होता है। विचारधारा चाहिए, पर उसकी क्रियान्विति सत्ता के माध्यम से ही हो सकती है। अगर सत्ता जाने की संभावना हो तो कुछ समय के लिए विचारधारा की गति को धीमी करके कुछ ऐसे कदम उठाए जाएं जिनसे वोट पाने की संभावना ज्यादा बढ़े । एक बार जब इस दिशा में सोच और कदम बढने लगता है तो विचारधारा पर काम करने की बात नेपथ्य में जाने लगती है । यही नहीं जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति से लेकर और उसके कई कदमों के विरोधियों की आवाज भी पहले से ज्यादा मजबूत होगी। यह भी उसके लिए एक वैचारिक चुनौती होगी। इसलिए पूरा संगठन परिवार हर हाल में अपने प्रदर्शन को बेहतर करना चाहेगा।
किंतु यह सब एक पक्ष है । अगर प्रदर्शन संतोषजनक हुआ तो फिर संपूर्ण स्थितियां इसके विपरीत होंगी। यानी विरोधियों का मनोबल कमजोर होगा, भाजपा और संपूर्ण संघ परिवार का आत्मविश्वास बढ़ेगा, 2024 में सत्ता कायम रहने का उसका दावा मजबूत होगा, भाजपा विरोधी तीखे आक्रामक गठबंधन की संभावना को चोट पहुंचेगी तथा विरोधियों द्वारा बनाई गई धारणाएं भी कमजोर होंगी एवं हिंदुत्व के नकार संबंधी दुष्प्रचार का भाजपा आक्रामकता से जवाब देगी। कुल मिलाकर आत्मविश्वास से भरे भाजपा नेतृत्व की वैचारिक प्रखरता ज्यादा विस्तारित होकर सामने आएगी।