अब तक का पंजाब चुनाव आप,कांग्रेस और अकाली केंद्रीत था। जिसे भाजपा कैप्टन और बागी अकाली गुट के साथ चतुष्कोणीय बना रही थी। वही अब किसान आंदोलन से निकले जाट सिख नेताओं का आगाज पंजाब के सियासी खेल को पंचकोणीय बनाता दिख रहा है।
चुनावी तिथियों की घोषणा के उपरांत से पंजाब में राजनैतिक माहौल बदल रहा है। चुनावी तपिश के साथ ही आरोप प्रत्यारोप के दौर शुरू हैं। वैसे एक दूसरे पर आरोप लगाने वाले दलों के बीच चुनाव तिथि परिवर्तन को लेकर आपसी सहमति है। पहले कांग्रेस फिर बसपा के बाद भाजपा ने भी इसकी मांग की है। वहीं अब भाजपा गठबंधन सहयोगी कैप्टन अमरिंदर सिंह और अकाली संयुक्त मोर्चा के सुखबीर सिंह ढींढसा भी चुनाव आयोग को पत्र लिख चुके हैं। दरसल संत रविदास जयंती इस वर्ष 16 फरवरी को पड़ रही है। इसको लेकर पंजाब के गांव-शहरों में उत्सवी माहौल होता हैं। वही पंजाब से कई करोड़ लोग संत रविदास की स्मृति में पवित्र काशी नगरी की यात्रा करते है। ऐसे में मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग चुनाव से दूर होगा इसको देखते हुए ये मांग की गई है। वैसे भी पंजाब वो प्रदेश है जहां दलित आबादी करीब 32% है। ऐसे में हर राजनैतिक दल की प्राथमिकता दलित मतों के समर्थन की है। इस मुद्दे पर मामला फिलहाल चुनाव आयोग के विचाराधीन है। आयोग जो भी निर्णय लेगा उसके अनुरूप मतदान की तिथियां होगी। वैसे इन सबो के बीच यहां फिजाओं में चुनावी रंग चढ़ चुका है। आम आदमी पार्टी जहां पांच सूचियों के माध्यम से 88 प्रत्याशियों की घोषणा कर चुकी है। वही कांग्रेस की पहली सूची जारी हो चुकी है। बात अगर भाजपा गठबंधन की करें तो यहां सीटों को लेकर कमोबेश सहमति बन चुकी है। भाजपा 80 तो सहयोगी 37 सीटों पर लड़ेंगे। इसमें कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी, सुखविंदर सिंह ढ़ीढ़सा से कही अधिक सीटों पर खड़ी होगी। सीटों के विभाजन में दो एक सीटें किसी गठबंधन सहयोगी के पास कम या ज्यादा हो सकती हैं। बात अगर प्रत्याशी चयन की हो तो बिना किसी हिल हुज्जत के आप पार्टी की सूचियां आई हैं। कांग्रेस की सोचें तो सिद्धू बनाम चन्नी की जंग में यहां फिलहाल सिद्धू का पलड़ा भारी है। पहली सूची में सिद्धू की पूरी चली है ऐसी चर्चा पंजाब की फिजाओं में तैर रही है, जिसका परिणाम चन्नी के घर में ही विवाद के रूप में देखा जा रहा है। चन्नी की सहमति से सरकारी नौकरी छोड़ चुनावी अखाड़े में ताल ठोक रहे सगे भाई भी पहली सूचि से नदारद है। ऐसे में चन्नी को घर से बाहर तक एक मजबूत नेता की छवि हेतु प्रत्याशी चयन में अपने प्रभाव को दिखलाने की जरूरत है। फिलहाल चन्नी आने वाली प्रत्याशी सूची के बहाने खुद को दिलासा देने और समर्थकों को भरोसा दिलाने में लगे है। भाजपा गठबंधन का विचार करें तो पहली बार भाजपा के हाथों में गठबंधन की स्टेयरिंग है। ऐसे में यह उसके लिए एक अवसर के रूप में भी है। 2017 के चुनावों में उतरी आप ने यहां सदन में शून्य से विपक्षी पार्टी की हैसियत केवल एक चुनावों में प्राप्त की थी। भाजपा भी ऐसा कुछ गुल खिला सकती है। अगर दलों में टिकट आवेदनों की बात करें तो भाजपा नंबर एक है। इन चुनावों में उसे चार हजार से अधिक आवेदन प्राप्त हो चुके हैं। वहीं अकाली दल से लेकर कांग्रेस तक के असंतुष्ट नेता, विधायकों एक हुजूम सा भाजपा की ओर उमड़ पड़ा है। कईयों को भाजपा ने संगठन से लेकर केंद्र सरकार की समितियों में स्थान सम्मान भी दिया है। वहीं आगामी विधानसभा चुनाव में भी कई लोग पार्टी की ओर से चुनावी मैदान में होंगे। इनका संघर्ष न केवल इनके मान सम्मान की वृद्धि और सत्ता में सहभागिता का रास्ता होगा अपितु पार्टी के लिए देर सवेर पंजाब में सत्ता कायम करने का अवसर भी होगा। ऐसी सफलता भाजपा ने पड़ोसी हरियाणा से लेकर त्रिपुरा असम और मणिपुर तक प्राप्त की है। बस इन नवागंतुकों को पार्टी में वैचारिक अधिष्ठान के साथ बनाये और टिकाये रखने की जरूरत है। वहीं पार्टी को अपने लिए पंजाब में आधार मतदाताओं के साथ ही आकर्षक लोकलुभावन मुद्दों और नारों की जरूरत है। बात अगर पंजाब की जमीनी राजनैतिक हकीकत की हो तो यहां सबके अपने मुद्दे, प्रभाव और मतदाता हैं। आम आदमी पार्टी यहां अतिवादी सिखों की प्रिय पार्टी है। वही कांग्रेस सिद्धू के उलटे बोलो के बावजूद मध्यमार्गी पार्टी है। सशक्त पहचान और व्यक्तित्व केंद्रीय राजनीति के इस दौर में भाजपा को पंजाब में इसकी निहायत दरकार है। अकाली दल फिलहाल छवि और नेतृत्व के आभाव के नाते ढलान पर है। बड़े बादल साहब की ढलती उम्र और भ्रष्टाचार, परिवारवाद, बेअदबी के मुद्दों ने अकाली दल के लिए माहौल खराब कर रखा है। सिख मुद्दों पर मुखर स्वर और जाट सिखों का आम आदमी पार्टी की ओर रुझान अकाली दल के ताबूत में आखिरी कील की तरह है। ऐसा ही कुछ भाजपा नेतृत्व को पंजाब में सोचना चाहिए। उसका विस्तार यहां कांग्रेस की जमीन पर होना है। ऐसे में भाजपा की प्राथमिकता यहां सिख केंद्रीय राजनीति न होकर हिन्दू एवं दलित मतदाता होने चाहिए। अतिवादी सिख नेतृत्व की गढ़ी धारणाओं में फंसने की जगह उसे कांग्रेस की नाव में छेद करने के बारे में सोचना चाहिए। भाजपा के पास कैप्टन अमरिंदर सिंह के रूप में एक उदारवादी सियासी सिख चेहरा है। वहीं दिखाने को नवआगंतुक सिख नेता और विधायक हैं। ऐसे में चतुष्कोणीय से पंच कोणीय बन रहे चुनावों में वो कोई बड़ा कमाल कर सकती है। दरसल अब तक का पंजाब चुनाव आप,कांग्रेस और अकाली केंद्रीत था। जिसे भाजपा कैप्टन और बागी अकाली गुट के साथ चतुष्कोणीय बना रही थी। वही अब किसान आंदोलन से निकले जाट सिख नेताओं का आगाज पंजाब के सियासी खेल को पंचकोणीय बनाता दिख रहा है। चुनावी सर्वे में जहां आम आदमी पार्टी की सरकार बनती दिख रही थी, वहीं अब बलबीर सिंह राजेवाल और गुरनाम चढूनी गुट के चुनावों में उतरने से माहौल बदला सा नजर आ रहा है। कृषक जाट सिख मतदाताओं का एक तबका इन नेताओं के साथ जाने का मन बनाता दिख रहा है। केजरीवाल की पार्टी ऐसे में संयुक्त किसान मोर्चे से संबद्ध रहे इन नेताओं को पानी पी कर कोस रही है। केजरीवाल इन्हें भाजपा का एजेंट बता कर इनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं। वहीं संवैधानिक संस्था व्यवस्थाओं पर अविश्वास का माहौल बनाने और सवाल खड़ा करने वाली पार्टी के निशाने पर फिलहाल चुनाव आयोग है। संयुक्त किसान मोर्चा से संबद्ध राजेवाल की पार्टी के शीघ्र मान्यता मिलने को लेकर आयोग पर मुखर है।
जहां अन्य चुनावी राज्य में मुख्यमंत्री के प्रत्याशियों से हर कोई अवगत है। वहीं पंजाब के स्थापित सियासी दल इस पर मौन हैं। केजरीवाल भगवंत मान के सहारे सियासी जमीन पुख्ता कर अब मुख्यमंत्री के चयन का आधार टेलीफोन सर्वे बता रहे हैं। वहीं कांग्रेस सिद्धू चन्नी और ओपी सोनी की तस्वीरें लगा वोट मांग रही है। आप समर्थक परेशान हैं कि चुनाव बाद कोई जाट सिख उनका मुख्य मंत्री चेहरा होगा या कोई दिल्ली से आया हरियाणवी वैश्य केजरीवाल नहीं। वहीं अमर अकबर एंथोनी वाली कांग्रेस अभी मुख्यमंत्री चेहरे को राज ही रखना चाहती है। ऐसे में पंजाब का दलित वर्ग बड़े ही पेशोपेश में है। उसे लगता है की चुनाव बाद की परिस्थितियों में सिद्धू चन्नी को निपटा ले जाएंगे। पंजाब के हिन्दू आखिर कब तक कांग्रेस के हिन्दू उपमुख्यमंत्री चेहरे के सहारे अपनी खैर मना सकते हैं, जबकि कांग्रेस की कमान पाकिस्तान परस्त सिद्धू के हाथों में है। नवजोत सिंह सिद्धू खलिस्तान समर्थक समूहों के लिए हमदर्दी भी रखते हैं। वे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा से अपनी दोस्ती के लिए भी शक की निगाहों में हैं। बात अकालियों की हो तो इनके पास चेहरा तो है मगर थके पिटे बादल परिवार के बाहर का कोई नहीं है। दलित उपमुख्यमंत्री की बात करने वाले अकाली दल की तरफ से कोई दलित चेहरा आगे नही किया गया हैं। अगर संयुक्त किसान मोर्चा गुट की सोचें तो इनके पास बलवीर सिंह राजेवाल का चेहरा है, किंतु इनकी पैठ मतदाता के खास वर्ग तक सीमित है। ऐसे में प्रधान मंत्री मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के पास करिश्मे की पूरी गुंजाइश है। हो सकता है आपदा को हर दम अवसर मे तब्दील करने वाले मोदी कोई नया जादू कर जाएं। ऐसा वो पूर्व के चुनावों में कर चुके हैं। मुख्यमंत्री के अपने तीसरे कार्यकाल में गुजरात चुनाव के पूर्व स्वामी विवेकानंद रथ यात्रा और हिंदी भाषण से वो देश के मानस पर जादू बिखेर चुके थे। वही जनकपुर नेपाल के दौरे से वो भारत के चुनावों को प्रभावित कर चुके हैं। जबकी 2019 के चुनावों मे केदारनाथ के उनके दौरे ने बिना कहे जबरदस्त ध्रुवीकरण किया था। ऐसे में पंजाब के चुनावों की तिथि अगर बदली तो शायद ऐसा कुछ देखने को मिले। संत रविदास की नगरी काशी आने वाले पंजाब के दलित और संत रविदास को लेकर प्रधान मंत्री मोदी संभवतः कुछ अदभुत अकल्पनीय योजना घोषणा कर जाएं।