नेताओं के बिगड़ते बोल का सिलसिला आख़िर थमता क्यों नहीं?

कहीं हम रेप की संस्कृति को बढ़ावा तो नहीं दे रहे है? वर्तमान दौर में यह सवाल बहुत ही प्रासंगिक हो जाता है। अभी हाल ही में जयपुर विधानसभा में पुलिस और कारगार अनुदान मांगों के दौरान संसदीय कार्य मंत्री शांति धारीवाल का बयान शर्मसार करने वाला है। मंत्री धारीवाल कहते हैं कि बलात्कार के मामले में हम नम्बर वन पर हैं, अब ये बलात्कार के मामले में क्यों है? कहीं न कहीं गलती तो है। वैसे भी यह राजस्थान तो मर्दों का प्रदेश रहा है यार, उसका क्या करें? यह कहते हुए ठहाके लगा रहे है। उनके साथ ही सत्तापक्ष के तमाम विधायक भी ठहाके लगाने से बाज़ नहीं आ रहे है। यह पहली दफा नहीं है जब किसी मंत्री ने सदन में अमर्यादित भाषा का प्रयोग किया हो।

आए दिन नेता मंत्री सदन की गरिमा को भंग करते है और महिलाओं के दामन को तार तार करते है। पर अफ़सोस की उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई तक नहीं की जाती है। शायद यही वजह है कि सदन की गरिमा को आये दिन नेता मंत्री कलंकित करने से बाज़ नहीं आते है। एक कहावत है कि जिसके पैर न फ़टी बिबाई वो क्या जाने पीर पराई। ऐसे में जिन्होंने कभी महिलाओं के दर्द को जाना ही नहीं उनके लिए महिलाओं के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करना कोई बड़ी बात नहीं है।

आज के दौर में हम विकसित होने का ढोंग भले रच लें, लेकिन सोच और समझ हमारी रसातल में जा पहुँची है। देश के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों से लेकर निचले स्तर तक के लोग महिलाओं के खिलाफ बदजुबानी में पीछे नहीं रहते। ऐसे में सवाल कई उठते, लेकिन जब लोकराज ही बिना लोकलाज के चलने लगें। फिर उन सवालों का ज़्यादा औचित्य नहीं? भारत के संविधान में विधायिका को अनुच्छेद-109 (संसद) और अनुच्छेद-194  यानी विधानसभा के तहत विशेषाधिकार प्राप्त हैं और ये विशेषाधिकार इसलिए जरूरी हैं ताकि विधायिका नागरिकों के मुद्दे उठाने और क़ानून बनाने के दौरान हुए वार्तालाप को लेकर स्वतंत्र महसूस कर सके।

लेकिन जब हम अतीत को देखते हैं फ़िर वर्ष 2003 में तमिलनाडु विधानसभा अध्यक्ष ने ‘द हिन्दू’ के चार पत्रकारों और एक प्रकाशक के विरुद्ध एक अरेस्ट वारंट सिर्फ इसलिए जारी कर दिया था, क्योंकि उस अख़बार में तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय जयललिता के खिलाफ कुछ ऐसा लिख दिया गया था जो अध्यक्ष महोदय को पसंद नहीं। लेकिन जो बीते दिनों कर्नाटक विधानसभा में हुआ और अब जो बयान राजस्थान सरकार के मंत्री ने दिया। उसे दुनिया ने देखा और सुना। ऐसे में अब सवाल यही क्या हम एक ऐसे आधुनिक भारत के निर्माण की तरफ़ बढ़ रहे हैं, जहां मानसिक रूप से अक्षम नागरिकों की फ़ौज बढ़ रही बस? कर्नाटक विधानसभा में वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एक फूहड़ संवाद होता है। संवाद भी ऐसा जिससे मानव जाति अपमानित हो जाएं, लेकिन सियासतदां कहाँ आते मानव जाति में? उनकी तो एक अलग श्रेणी होती है। ऐसे में कांग्रेस नेता व पूर्व विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार ने एक कहावत का हवाला देते हुए व ‘चेयर’ को संबोधित करते हुए कहा कि, “जब रेप होना ही है तो लेट जाओ और मजे लो।”

यह बयान विधानसभा अध्यक्ष का जितना घिनौना था उससे कहीं अधिक घिनौनी वह सोच है जो ऐसे नेताओं को सदन में प्रतिभाग लेने का अवसर उपलब्ध कराती हैं। लेकिन अफ़सोस की इस शर्मसार कर देने वाली घटना को भी हमारे देश के राजनेता पक्ष विपक्ष की राजनीति के तराजू पर तोल रहे थे। ऐसे में शायद वो यह भूल गए हैं कि जिस संविधान ने उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी दी है उसी लोकतंत्र के मंदिर में महिलाओं को अपशब्द कहें जा रहे है। हमारे राजनेताओं को सत्ता के सुख की ऐसी लत लगी है कि वह अपनी मर्यादा तक को ताक पर रख बैठे है। वह भूल गए है कि जिस देश में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और राजा हरिश्चंद्र जैसे प्रतापी राजाओं ने जन्म लिया है। जिन्होंने राजधर्म के नये कीर्तिमान गढ़े हो उस देश के राजनेता सत्ता सुख में मर्यादा विहीन हो चले है। इतना ही नहीं हमारे राजनेता यह तक भूल बैठे है कि जिस संविधान ने उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी दी है। उसी लोकतंत्र के मंदिर को कलंकित करने से वे बाज़ नहीं आ रहे है।

एक मशहूर शायर फैज अहमद फैज हुए हैं जिनका लिखा एक गीत है। जिनकी चंद लाइनें याद आती है कि, “बोल के लब आज़ाद है तेरे…!” वैसे उन्होंने जब ये लाइनें लिखी होगी तब शायद ही यह सोचा हो कि एक दिन अभिव्यक्ति की आज़ादी का निहितार्थ सियासतदानों द्वारा इस संदर्भ में निकाला जाएगा। वैसे सोचने वाली बात यह है कि हमारे देश में जब-जब राजनेताओं के सुर बिगड़े है तब-तब ही महिलाओं के चरित्र का चीरहरण किया गया है। महिलाओं के दामन पर उंगली उठाना तो जैसे अब राजधर्म बन गया है। कुर्सी का खेल मुग़लई दौर का होता जा रहा है। अंतर सिर्फ इतना है कि तब तलवार का बोलबाला था आज संवैधानिक लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक बदज़ुबानी का।

कितनी शर्म की बात है कि सदन में इस तरह एक नेता मर्यादा की सीमा को लांघता है और सारे नेता धृतराष्ट्र की तरह अपनी आंखों पर पट्टी बांध ठहाके लगाते है। विधानसभा अध्यक्ष भी ऐसे इन बातों का चटकारा ले रहे थे, जैसे वो भूल गए हो कि उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त हैं, लेकिन आधी आबादी के प्रति ऐसी घिनौनी सोच भी कहीं न कहीं विशेषाधिकार पर सवालिया निशान उठाती है, लेकिन इन बातों का फ़र्क कहाँ पड़ता इन नेताओं को? ज़्यादा हुआ तो मांग लेंगे माफ़ी और हो जाएगी खानापूर्ति।

वैसे महाभारत काल में भी द्रौपदी के चीरहरण पर पूरी सभा धृतराष्ट्र बनकर तमाशा देखती रही और उसी इतिहास को एक बार फिर दोहराने की कोशिश कर्नाटक के विधानसभा में की गई थी और देश इस घटना को अपना मौन समर्थन दे रहा था। यही वजह है कि राजस्थान में फिर वही घटनाक्रम हुआ। देश इस अमर्यादित घटना पर चुप्पी साधे हुए है। राजनेताओं को भी भला इन बातों से कहाँ फर्क पड़ना है। ज्यादा हुआ तो मांग लेंगे माफ़ी। वैसे भी हमारे राजनेताओं को महिलाओ पर अभद्र टिप्पणी करने में महारथ हासिल है। उन्हें कहाँ फर्क पड़ने वाला है? उनकी रगों में तो पितृसत्तात्मक सोच का वायरस भरा हुआ है।

वैसे भी औरत के अस्तित्व को हमारा समाज स्वीकार ही कहाँ करता है? औरत के पैदा होते ही उसके अस्तित्व का ठेका उसके पिता के हाथों में होता है, शादी के बाद पति और मां बनने के बाद खुद ही अपने बच्चों के हाथों में सौंप देती है। औरत खुद क्या करती है? त्याग अपने सपनों का अपने अस्तित्व का? लेकिन अफ़सोस की इस त्याग, इस बलिदान का कोई सम्मान तक नहीं करता है, क्योंकि समाज औरत के त्याग को उसका फर्ज मान लेता है और वहीं औरत उसे अपना कर्म मानकर चुपचाप सहन करती चली जाती है। अपने वजूद तक को मिटा देती है। औरत के त्याग को समाज ने उसकी कमज़ोरी जो मान लिया है।

ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि महिलाओं के खिलाफ बदजुबानी को हमने अपने समाज का हिस्सा मान लिया है। तभी तो महिलाओं के खिलाफ बदजुबानी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। कहने को तो महिलाएं आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही है। देश दुनिया में अपनी बुलंदी का परचम लहरा रही है। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे न गाड़े हो। पर आज भी हमारा समाज पितृसत्तात्मक सोच से ग्रसित है। जहां औरतों को कमज़ोर माना जाता है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की रिपोर्ट की माने तो महिलाएं पुरुषों से ज्यादा काम करती है, फिर कैसे उन्हें कमज़ोर कहा जा सकता है। हमारा समाज सदियों से महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करता आया है।

यहां तक कि हमारे इतिहास को भी अपने मतलब के लिए गलत तरीके से परिभाषित किया गया। यही वजह है कि जब किसी लड़की का बलात्कार होता है तो उसे उसके खानदान की इज्जत से जोड़ दिया जाता है। रेप होने से महिला की इज्ज़त चली जाने की बात कही जाती है, जबकि जो लड़का बलात्कार करता है उसे हमारा ही समाज पुरुषत्व मान कर महिमा मण्डन करता है। लड़की को ही गलत ठहरा दिया जाता है। कभी उसके कपड़े पर सवाल उठाया जाता है तो कभी उसके चरित्र पर। जब तक समाज का यह दोहरा रवैया नहीं बदल जाता तब तक महिलाओं की स्थिति नहीं सुधर सकती।

 – सोनम लववंशी

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