एक बहुत ही पुराना किस्सा है, जो आपने कई बार पढा या सुना होगा। ये किस्सा यहूदी राजा डेविड से जुड़ा है। किंग डेविड यहूदियों के शुरुआती राजाओं में से एक थे। इजराइल में एक बहुत पुराना मंदिर है, जो किंग डेविड का ही बनवाया हुआ है। तो कहानी किंग डेविड में बचपन की है, जो यहूदी और ईसाई दोनों धर्मग्रंथों में हैं। जब किंग डेविड छोटे थे, उस समय क्षेत्र में गोलियथ नाम के एक दानव का बड़ा अत्याचार और भय फैला हुआ था।
अगर कहानी सच है, तो सम्भवतः गोलियथ बहुत भारी भरकम शरीर वाला एक लम्बा-तगड़ा हाइब्रिड योद्धा रहा होगा। वैसे अतीत में हाइब्रिड दानव मौजूद थे, इसके कुछ प्रमाण भी अब हाथ लगे हैं, लेकिन उस पर चर्चा करना विषयांतर होगा। तो फिलीस्तीनियों का ये दैत्याकार योद्धा चालीस दिन तक हर रोज़ यहूदियों के इलाके में आता था और उन्हें रोज़ सुबह-शाम लड़ने के लिए चुनौती देता था, मगर उसके दैत्याकार शरीर को देखकर कोई यहूदी उस से लड़ने की हिम्मत नहीं करता, सब डरकर दुबक जाते थे।
कहानियों के अनुसार गोलियथ ने देवताओं की फ़ौज़ को भी हराया था, इसलिए मनोवैज्ञानिक रूप से भी उस से लड़ने का दम कोई नहीं दिखाता था। दुबले पतले शरीर के इस बच्चे डेविड को जब गोलियथ की चुनौती का पता चला, तो ने उसने उससे लड़ने की ठानी। लड़ने के लिए डेविड के पास सिर्फ एक डंडा और गुलेल था। सभी ने डेविड को ये मूर्खता करने से रोका, लेकिन डेविड मन मे ठान चुका था। जब वो नहीं माना, तो उस समय के इजराइल के राजा साउल ने उसे अपना कवच देना चाहा।
लेकिन डेविड को न तो युद्ध की आदत थी और न ही वो कवच-तलवार का वजन उठा कर लड़ सकता था। मजबूरन डेविड ने कवच लेने से भी इंकार कर दिया। डेविड ने पास की एक छोटी नदी से पाँच पत्थर इकट्ठे किए और एक डंडे और गुलेल के सहारे गोलियथ से लड़ने निकल पड़ा। किसी को भी उसके जीवित वापस लौट कर आने की उम्मीद नहीं थी। डेविड का मुकाबला करने पहाड़ जैसा गोलियथ, अपने कवच तलवार से लैस, भाला लिए आया। डेविड ने गुलेल से पहले पत्थर का निशाना सीधा गोलियथ के सर पर लगाया।
जैसे ही गोलियथ गिरा, डेविड ने उसी की तलवार से गोलियथ का सर काट लिया। लड़ाई ख़त्म हो गई। जब डेविड से पुछा गया इतने बड़े गोलियथ का सामना गुलेल से करने में डर नहीं लगा? तो उसका जवाब था कि गोलियथ इतना बड़ा था, निशाना चूकने की संभावना ही नहीं थी। पत्थर कहीं ना कहीं तो लगता ही, रहा विशालकाय शत्रु का डर, तो वो तो रहेगा ही और रहना भी चाहिए। डर ही लड़ने का जुनून पैदा करता है। सभी धार्मिक सभ्यताओं में सबसे उन्नत माने जाने यहूदी आज भी ये कहानी पढ़ते है।
युद्ध और वीरता की ऐसी कहानियां हमारे पास भी थी। हमारे पास रामायण और महाभारत दो युद्ध ग्रन्थ हैं। लेकिन राम ने लंका जीतने के लिए युद्ध शुरू नही किया था, उन्होंने अपनी पत्नी वापस पाने के लिए लंका पर चढ़ाई की थी। पांडवों ने भी अपना हिस्सा पाने के लिए महाभारत का युद्ध लड़ा था, कौरवों का नहीं। हम कभी आक्रमणकारी नहीं रहे। हमने कभी किसी और की जमीन पर कब्जा करने के लिए युद्ध नहीं लड़ा। इसलिए जब हूण, यवन और मंगोल विश्व विजय पर निकले थे तब हम मोक्ष और सन्यास की ओर बढ़ रहे थे।
रामायण निस्संदेह राम और सीता की प्रेम कहानी है, लेकिन उसमे युद्ध नीति, करुणा और कठोरता सब है। कभी हमने रामायण पढ़ते हुए सोचा है कि जब राम को जटायु से पता चल चुका था कि रावण सीता को दक्षिण दिशा में ले गया, तो सुग्रीव ने सीता की खोज में वानरों को चारों दिशाओं में क्यों भेजा? सुग्रीव ने उस खण्ड में बताया है कि आर्यावर्त की सीमाएं कहाँ कहाँ तक फैली थी। हमने कभी रामायण को धार्मिक दृष्टि से इतर नहीं पढ़ा। भीष्म पितामह ने वाणों की शैय्या पर राजा और प्रजा की जिम्मेदारियां और अधिकारों का वर्णन किया है, वो हमें कब और किस कथाकार द्वारा बताया जाता है?
उल्टे युध्दनीति और राजनीति संजोए महाग्रन्थ महाभारत को घर मे रखने की मनाही कर दी गई, ये कह कर कि इससे घर मे झगड़ा होता है। जबकि वास्तविकता ये थी कि उन्हें डर था कि घर की महिलाएं उन अधिकारों के बारे में न पढ़ लें, जो उन्हें आदिकाल से लेकर द्वापर में कृष्ण युग तक मिलते रहे थे। ये वो मूर्ख लोग थे, जो हमारे बीच के थे। ये वो पाखंडी थे, जो मानते थे कि धर्म ग्रन्थ तो बस मोक्ष, कर्मकांड और संस्कारों के लिए है। जब शत्रु से लड़ने की बारी आएगी तो कि भगवान तीसरा नेत्र खोलेंगे और शत्रु भस्म हो जायेंगे।
जब सोमनाथ मन्दिर गिराया गया और शिव का तीसरा नेत्र नहीं खुला, तो उन्हीं महामूर्खों ने इसे ईश्वर का प्रकोप और पापों का दंड मान लिया। इन धूर्तों की मक्कारी का आलम ये था कि जिहादी हमले को ये हमला मानने के लिए भी तैयार नहीं थे, उसे दैवीय प्रकोप बता रहे थे। बचाने का दायित्व जिन ईश्वर पर था, उनके मंदिर और मूर्तियां तोड़ी गई थी। कश्मीरी हिंदुओं का नरसंहार उन्ही जिहादी नस्लों का कारनामा था, जिन्होंने सोमनाथ मंदिर गिराया था, मूर्तियाँ तोड़ी थी, लेकिन हमारे बीच के ही कई मक्कार अभी भी इसे हमला नहीं मानते।
कई बड़े साहित्यकार, कहानीकार, टीवी पर कहानियां पढ़ने वाले, किताबे लिखने वाले हिंसा, डर, नफरत, अतीत, इस्लामोफोबिया बताकर कश्मीर की कड़वी हकीकत को छुपाने का काम करेंगे। फिर चाहे वो प्रेम और पारिवारिक कहानियाँ सुनाकर हिंदुओं के बीच ही पैठ बनाने वाले स्वीट लिबरल संजय सिन्हा हो या कोई एंटी हिन्दू वामपंथी लंपट। पुराने ज़माने में जिहादी हमले को जैसे दैवी प्रकोप कहा जा रहा था, जिसका कुछ नहीं किया जा सकता। वैसा ही इस बार भी किया जा रहा है।
ये कहकर कि बच्चों को हिंसक इतिहास मत दिखाइए, उन्हें भविष्य दिखाइए क्योंकि इतिहास का अब कुछ नहीं हो सकता। ये धूर्त कपटी सोमनाथ मंदिर पर हमले के समय भाग कर शिक्षा के गढ़ों में जा छुपे थे, किताबों के बीच। वही मक्कार इस बार भी साहित्यकार, कहानीकार बनकर किताबों के बीच से आवाज लगा रहे हैं, फिर से देख लीजिये। ये धूर्त युवाओं और महिलाओं के बीच गज़ब की पैठ बनाते है और महिलाएं इन्हें पढ़कर अपने बच्चों को पल्लू में छिपा लेती है, ये सोचकर कि लड़ने के समय भगवान अपना तीसरा नेत्र खोलकर इन्हें बचा लेंगे।
इन्ही धूर्तों की वजह से आक्रमणकारी जिहादी-कांगी-वामी गिरोह गोलियथ की तरह विशाल हो गया है। द कश्मीर फाइल्स का इन पर वही असर हो रहा है, जो गोलियथ पर पत्थर का हुआ था। ये डरे हुए है कि तीसरा नेत्र खुलने का इंतजार करता हिन्दू, अब इसे दैवीय आपदा मानने के बजाय जिहादी हमला न मानने लगे। इन धिम्मियों की वजह से ‘गोलियथ का आकार इतना बड़ा हो गया है। ये बिलबिला रहे हैं कि क्योंकि ये जानते हैं निशाना चुकने की संभावना न के बराबर है। कौन कहता है गोलियथ को पेल नही सकते, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।