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ध्वस्त होता गणन शास्त्र और एलीट इंटलेक्चुअल

ध्वस्त होता गणन शास्त्र और एलीट इंटलेक्चुअल

by डॉ. अजय खेमरिया
in अवांतर, मीडिया, राजनीति, विशेष, सामाजिक
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उप्र के चुनाव परिणाम केवल राजनीतिक विश्लेषण का विषय भर नही हैं।यह बहुजन राजनीति के ध्वस्त होने का निर्णायक पड़ाव भी हैं।यह जातियों के गणन शास्त्र की विदाई भी है जो पस्चिमी समाजशास्त्र से किराए पर लेकर भारत के ज्ञानजगत में स्थापित की गई। और लंबे समय तक इस ज्ञान ने संसदीय राजनीति को परिचालित भी किया।

उप्र के परिणाम राजनीतिक समीक्षकों के लिए इसलिए भी चौका रहे है क्योंकि उनकी दृष्टि सेक्युलरिज्म की शिकस्त के प्रधान तत्वों को कभी पकड़ना ही नही चाहती है।प्रधान तत्व राष्ट्रीय सेवक संघ के उस दीर्धकालिक दर्शन में समाएँ है जिसे गुरु गोलवलकर,बाला साहब देवरस,पंडित दीनदयाल उपाध्याय से लेकर आज की भाजपा अपनी वैचारिकी में कायम रखे हुए है, मनुवाद,ब्राह्मणवाद,द्विजवाद,बहुलता,सामाजिक न्याय जैसी प्रस्थापनाओं ने वामपंथी ज्ञानजगत को समर्द्ध तो किया लेकिन वे समाज की गत्यात्मकता को समझने में नाकाम रहे हैं।

ताजा आंकड़े बताते है कि उप्र में सवर्ण- पिछड़ी और दलित जातियों ने भाजपा को जमकर समर्थन दिया है।संघ के वैचारिक अधिष्ठान में भारतीय वर्ण व्यवस्था समग्रता का आधार रही है।यानी जिन्हें शुद्र कहकर वामपंथियों ने नया प्रतिक्रियावादी गणन शास्त्र खड़ा किया था वह शुद्र भारतीय जीवन में भव्य हिन्दू परम्परा का अविभाज्य और गौरवमयी हिस्सा हैं।संघ के किसी साहित्य में मनु स्मृति को स्वीकार नही किया गया है,सावरकर ने तो इसे मानव रचित कहकर खारिज किया।ब्राह्मणवाद नामक अवधारणा की कोई वकालत भाजपा के विचार स्रोतों में नजर नही आती है।कमाल की बात यह कि संसदीय राजनीति में भाजपा के विरुद्ध इन्ही बातों को सुस्थापित किया जाता रहा है।स्वामी प्रसाद मौर्या चुनाव हार गए और उनकी बिरादरी के वोट भाजपा को 2017 से ज्यादा मिले तब जबकि पिछले चुनाव में मौर्या भाजपा के साथ मिलकर लड़ रहे थे।

इस एक प्रकरण को केस स्टडी मानकर उस प्रधान कारण को पकड़ा जा सकता है जो सेक्यूलर ब्रिगेड की हार कारण हैं।गीता शाक्य को भाजपा ने राज्यसभा में भेजा,केशव मौर्या को उप मुख्यमंत्री बनाया लेकिन ज्ञानजगत के विमर्श में यह नदारद है।सवाल यह कि क्या गीता के जरिये कुशवाह,मौर्या,सैनी शाक्य वोटर को वह सन्देश या प्रतिनिधित्व नही मिल सकता है जो स्वामी मौर्या से मिलता है?या अनिल राजभर मंत्री बनने के बाद भी अपने समाज में ओमप्रकाश राजभर की तरह स्वीकारोक्ति हांसिल नही कर सकते?क्या फागु चौहान अपने नोनियाँ समाज में बिहार के राज्यपाल और रामनाथ कोविंद महामहिम के पद पर जाकर भी वह सन्देश नही दे सकते है जो इस जाति के लोग गैर भाजपा दलों में जाकर सेक्युलरिज्म के लिए देते है?बुनियादी बात यह कि भाजपा ने समग्र हिन्दू के धरातल पर बहुत ही बारीकी के साथ ईमानदारी से काम किया है।सेक्यूलर ज्ञानजगत केवल प्रतिक्रिया के नाम पर नकली प्रस्थापनाओं के माध्यम से जातियों की गणना करता है।इस गणना के बल पर खड़े सैफई और पाटिलीपुत्र जैसे घरानों को उनकी हर बेशर्मी के लिए बचाव पर उतारू रहता है।

भाजपा ने भव्य हिन्दू परम्परा को उसी भावना के साथ संयोजित करने का जमीनी काम किया है जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपने दौर में प्रतिपादित कर रहे थे।हिंदुत्व की उस अवधारणा में शुद्र (इसमें आज के सभी पिछड़े भी शामिल है क्योंकि प्राच्य जीवन मे चार ही वर्ण थे)हिकारत नही समायोजन के पात्र है।आज ध्यान से देखें तो यह समग्रता आकार ले रही है।यह उस इतिहास को भी विस्थापित कर रही है जो शूद्रों को अलगाव और प्रतिक्रियावाद पर खड़े करने के लिए उत्प्रेरक का आधार रहा।संघ सदैव से एक गौरवशाली एवं समावेशी भारत के ऐतिहासिक साक्ष्य का हामी है।

उसका इतिहासबोध राजा सुहेलदेव,बिजली पासी,डोम,से लेकर बिरसा मुंडा तक को देवत्व की श्रेणी में रखता आया है। महान मगध साम्राज्य की रचना करने वाला चन्द्रगुप्त कौन था?बेशक आज के गणन शास्त्रियों की दृष्टि में शुद्र नही है।यह विमर्श का हिस्सा नही है कि उसे गढ़ने वाला एक वेदपाठी ब्राह्मण विष्णुगुप्त था।देश में सैंकड़ो ऐसे राजा हुए है जो क्षत्रिय नही थे।लेकिन इनकी चर्चा सिर्फ इसलिए नही हुई क्योंकि ब्राह्मणवाद औऱ मनुवाद की प्रस्थापनाओं के पिट जाने का डर था। 1967के विधानसभा चुनाव में उप्र में जनसंघ को 99 सीटें मिली। उप्र में कल्याण सिंह और महादीपक सिंह शाक्य जैसे नेताओं को सवर्ण विधायकों के ऊपर स्थापित करने का काम पंडित दीनदयाल उपाध्याय उस दौर में भी कर रहे थे।

एकात्म मानववाद के जिस सिद्धांत को आधुनिक समाज शास्त्री खारिज करते रहे है असल में इसकी जमीन तो दीनदयाल उपाध्याय 1967 में ही रख चुके है।अगड़ों पिछड़ों की इस युगलबंदी को इसी ऐतिहासिक सन्दर्भ में देखने की आवश्यकता भी है।लोधी जाति के कल्याण सिंह को ब्राह्मण ठाकुर के स्थान पर सीएम बनाने वाली पहली पार्टी 90 के दौर में भाजपा ही थी।मप्र में पहली बार (जहाँ52 फीसदी आबादी पिछड़ो की हैं) पिछड़ा मुख्यमंत्री उमा भारती के रूप में फिर बाबूलाल गौर(यादव),शिवराजसिंह चौहान(किरार) के जरिये पिछड़ों को प्रतिनिधित्व भाजपा ने ही दिया है।इससे पहले इस प्रदेश में सभी मुख्यमंत्री सवर्ण जातियों से ही हुए है।

सवाल यह कि क्या आज भी देश के बुद्धिजीवियों को यह तत्व पकड़ में नही आ रहा है कि समाज परिवर्तन केवल खुद के लिए सिद्धांतो और समझ से नही चलता है।समाज की गत्यात्मकता को पकड़ने के लिए उसके अवचेतन को पढ़ने की आवश्यकता भी होती है।मुगलों से लोहा लेंने वाले राजा सुहेलदेव या बिजली पासी के साथ खुद को जोड़ने वाले जाति समूह केवल सेक्युलरिज्म के नाम पर अपने मतदान व्यवहार को सीमित रखे।यह समाजशास्त्री जमात की मजबूरी हो सकती है लेकिन आधुनिक समाज की नही।निषादों या वनवासियों के साथ राम के रिश्तों को भूलाकर एक नई स्वयं भू समाज रचना का हिस्सा बनाया जाना किसी जातिवर्ग को तब क्यों स्वीकार होगी जब उन्हें सत्ता में भागीदारी भी उसी राजनीतिक दल से प्राप्त हो रही हो जो भव्य राम मंदिर निर्माण की पताका भी लिए हुए है। जाटों ने मुगलों से प्रामाणिकता के साथ टक्कर ली फिर कैसे इस जाति समूह से यह अपेक्षा की जाती है कि वह भाईचारे के नाम पर एक परिवार को ढोते रहे।वह भी तब जब भाजपा ने संजीव बालियान,सत्यपाल सिंह और हेमा मालिनी जैसे नेताओं को जाट अस्मिता के लिए खड़ा कर दिया हो।

सामाजिक राजनीतिक परिवर्तन की यह जमीन अचानक खड़ी नही हुई है।असल में यह सामाजिक न्याय की दूषित प्रेक्टिस का नतीजा भी है।सच्चाई यह है कि सामाजिक न्याय ने गरीबों को दो वर्गों में बांटा एक पिछड़े-दलित क्रीमीलेयर और दूसरा इसी वर्ग का वह बहुसंख्यक समाज जो सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक रूप से वहीं खड़ा था जहां वह सामाजिक न्याय और सेक्युलरिज्म को मजबूत करने के झुंड बनने से पहले खड़ा था।नए सामाजिक नेता अकूत धन संपदा के मालिक बने,परिवारवाद,जातिवाद जैसी सब बुराइयों को भूलाकर नव सामंतों की जयजयकार के लिए जातीय समूहों को अभिशप्त किया जाता रहा।यह एक खोखली बहुजन राजनीति थी जिसका धरातल बहुत ही दूषित था।दूसरी तरफ समरसता,राजनीतिक भागीदारी और हिन्दू समावेशन की जमीन पर भाजपा और उसके विचार परिवार ने ईमानदारी और प्रामाणिकता से काम जारी रखा।2004,2009 में भाजपा भले लोकसभा में पराजित हुई लेकिन बहुसंख्यक हिंदुओ की पहली पसंद वही रही है।अब ताजा उप्र परिणाम भी यही प्रमाणित करते है कि एक भव्य हिन्दू चेतना मतदान व्यवहार का निर्णायक तत्व बन गई है।कल जब मायावती की तरह सपा या कांग्रेस का पराभव हो जाये तो उप्र के यादव और जाटव भी इसी भव्य हिन्दू छतरी में आना पसंद करेंगे।यह समाजशास्त्री शायद अभी भी समझना नही चाहते हैं।

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Tags: elite intellectualhindi vivekleft liberalleftist mediapolitical analysisurban naxals

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