कुष्ठ रोग और उसके रोगियों को समाज में घृणा की नजर से देखा जाता है। इसका लाभ उठाकर ईसाई मिशनरियां उनके बीच सेवा का काम करती हैं और फिर चुपचाप उन्हें ईसाई भी बना लेती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने काम के विस्तार के साथ-साथ सेवा के अनेक क्षेत्रों में भी कदम बढ़ाये। कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए ‘भारतीय कुष्ठ निवारक संघ’ नामक संगठन बनाया गया। छत्तीसगढ़ के चांपा नगर में इसका मुख्यालय है। इसकी स्थापना श्री सदाशिव गोविन्द कात्रे ने की थी। वे स्वयं एक कुष्ठ रोगी थे। उनके बाद जिस महापुरुष ने यह काम संभाला, वे थे श्री दामोदर गणेश बापट।
बापटजी का जन्म 21 अपै्रल, 1935 को ग्राम पथरोट (अमरावती, महाराष्ट्र) में हुआ था। नौ वर्ष की अवस्था में वे संघ के स्वयंसेवक बने। नागपुर से बी.काॅम और समाजशास्त्र में बी.ए. कर वे संघ के प्रचारक बन गये। सेवा के प्रति उनका समर्पण देखकर पहले उन्हें वनवासी कल्याण आश्रम और फिर 1971 में चांपा भेजा गया। 1977 में कात्रेजी के निधन के बाद वे भारतीय कुष्ठ निवारक संघ के सचिव बने। सदा खादी का धोती-कुर्ता पहनने वाले बापटजी की सेवाओं के लिए 1995 में उन्हें कोलकाता में ‘विवेकानंद सेवा सम्मान’ तथा 2017 में राष्ट्रपति महोदय द्वारा ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया गया।
बापटजी ने सोठी ग्राम स्थित कुष्ठ आश्रम को अपना केन्द्र बनाया। इसमें कुष्ठ से पीडि़त लगभग 200 पुरुष, स्त्री तथा बच्चे रहते हैं। इन सबकी समुचित चिकित्सा तथा देखभाल वहां की जाती है। कुष्ठ रोगियों के बच्चों के लिए ‘झूलाघर’ तथा ‘सुशील बालक गृह’ की व्यवस्था हैै। आश्रम तथा पड़ोसी गांवों के बच्चों की शिक्षा के लिए ‘सुशील विद्या मंदिर’ बना है। बालकों को शिक्षा और संस्कार के साथ ही पौष्टिक भोजन भी मिलता है। बालिकाओं के लिए बिलासपुर में अलग से ‘तेजस्विनी’ छात्रावास खोला गया है।
प्रतिदिन आसपास से लगभग 400 कुष्ठरोगी दवा तथा पट्टी आदि के लिए आश्रम में आते हैं। बापटजी स्वयं उनकी पट्टी करते थे। इससे अब तक 25,000 से भी अधिक रोगी लाभान्वित हो चुके हैं। एलोपैथी के साथ ही आयुर्वेद तथा होम्यापैथी चिकित्सा की व्यवस्था भी आश्रम में है। कात्रेजी तथा बापटजी का मत था कि कुष्ठ रोगियों को समाज की दया की बजाय प्रेम और सम्मान की जरूरत है। अतः उन्होंने ऐसे प्रकल्प चलाए, जिससे उनका स्वाभिमान जाग्रत हो तथा वे भिक्षावृत्ति से दूर रह सकें।
आश्रमवासी अपनी तीन एकड़ भूमि में मिर्च, प्याज, संतरा, हल्दी, केला, आम, बिही, पपीता, सीताफल, नींबू आदि उगाते हैं। आश्रम की गोशाला में 175 देसी गाय हैं। उनका पूरा दूध वहीं काम आता है। रोगियों को मोमबत्ती, दरी, रस्सी, चाॅक आदि बनाना सिखाते हैं। कुछ ने वेल्डिंग भी सीखी है। आश्रम में 20 बिस्तर का अस्पताल, स्कूल, गणेश मंदिर, वृद्धाश्रम तथा कार्यकर्ता निवास के अलावा कम्प्यूटर, सिलाई तथा चालक प्रशिक्षण केन्द्र भी हैं। यद्यपि आश्रम के लिए समाज से सहयोग लिया जाता है; पर आश्रमवासियों के परिश्रम और लगन से भी वहां की कई जरूरतें पूरी हो जाती हैं।
बहुत से लोग इन रोगियों की सेवा करते हुए उनसे दूरी बनाकर रखते हैं; पर बापटजी कुष्ठरोगियों के बीच रहकर उनके हाथ से बना खाना ही खाते थे। एक बार जर्मनी से आये कुछ लोगों ने दस लाख रु. देने चाहे; पर बापटजी ने नहीं लिये। वे सरकार या विदेशी सहायता की बजाय आम जनता के सहयोग पर अधिक विश्वास करते थे। हजारों कुष्ठ रोगियों के जीवन में प्रकाश फैलाने वाले बापटजी का 17 अगस्त, 2019 को बिलासपुर के एक अस्पताल में निधन हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी देह चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के उपयोग के लिए छत्तीसगढ़ इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैडिकल साइंस को दे दी गयी।
– विजय कुमार