सफलता पुरुषार्थ के मूल्य पर मिलती है

 

यदि हम स्वास्थ्य, शिक्षा, संपन्नता,  सम्मान,  सफलता से वंचित रहते हैं तो इसके लिए दूसरों को दोष देना व्यर्थ है। गहराई से उन कारणों को तलाश करना चाहिए जिनके द्वारा विपन्नता विनिर्मित होती है । आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा, उदासीनता, आवारागर्दी जैसे दुर्गुणों में लोग अपनी अधिकांश शक्तियाँ नष्ट करते रहते हैं,  महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए उनका श्रम, समय, मनोयोग लगता ही नहीं,  फिर वे  सफलताएँ कैसे मिलें जो प्रगाढ़ पुरुषार्थ का मूल्य माँगती हैं ।

असफलताओं का दोष  भाग्य, भगवान, ग्रहदशा अथवा  संबंधित लोगों को देकर मात्र मन को बहलाने की आत्मप्रंवचना की जा सकती है,  उसमें तथ्य तनिक भी नहीं है ।  संसार के प्राय: सभी सफल मनुष्य अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़े हैं, उन्होंने कठोर श्रम और तन्मय मनोयोग का महत्व समझा है । यही दो विशेषताएँ जादू की छड़ी जैसा काम करती है और घोर अभाव की,  घोर विपन्नताओं की परिस्थितियों के बीच भी प्रगति का रास्ता बनाती है ।

सफल मनुष्यों में से प्रत्येक के जीवन पर गहरी दृष्टि डालने से यही  तथ्य उभरता दिखाई पड़ेगा कि वे  अपनी मानसिकता और सिर्फ श्रमशीलता के सहारे ही आगे बढ़े हैं । उठने वाले या गिरने वाले को उनकी दिशा में प्रोत्साहन देना संसार का काम है । बाहर की कोई शक्ति किसी को उठाती गिराती नहीं । यह सब पूर्णतया अपनी स्थिति पर निर्भर है ।

यह भ्रम जितनी जल्दी हटाया जा सके उतना ही अच्छा है कि कोई मंत्र-तंत्र, सिद्धपुरुष, मित्र,  स्वजन, धनी, विद्वान हमारी कठिनाइयाँ हल कर देंगे या हमें संपन्न बना देंगे । इस परावलंबन से अपनी आत्मा कमजोर होती है और अंतःकरण में छिपी प्रचंड आत्मशक्ति को विकसित होने में भारी अड़चन पड़ती है । अस्तु परावलंबी मनोवृत्ति को जितनी जल्दी छोड़ा जा सके, आत्मनिर्भरता को जितनी दृढ़ता से अपनाया जा सके उतना ही कल्याण है ।

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