लखनऊ नवाबों का नहीं बल्कि हिन्दुओं का शहर है 

लखनऊ का इतिहास : लखनऊ जो नवाबों का शहर के नाम से विख्यात है जिसे मुस्लिम आक्रांताओं ने इस पूरे शहर के नक्शे से लेकर नाम तक परिवर्तित करते हुए केवल अपनी झूठी अमानत सिद्ध की है। मुस्लिमों ने हिन्दुओं से सभी विरासतों को अपना नाम देकर उसे इतिहास के पन्नों में पूर्णतः दफन कर दिया है। लखनऊ का बड़ा इमामबाड़ा और रूमी दरवाजा हिन्दुओं के किस भवन से संबंधित है इस पोस्ट से आपको ज्ञात हो जाएगा।

जिसे हम इमामबाड़ा के नाम से लखनऊ की शान समझते हैं यह हिन्दू भवन का अपभ्रंश है। इसके मुख्य द्वार पर मछली की आकृति अयोध्या के दशरथ महल की कापी है तो क्या यह समझा जाय कि दशरथ महल भी किसी मुस्लिम शासक द्वारा बनाया गया तो यह सिर्फ मिथ्या के सिवा कुछ नहीं है। इन्होंने हमारे सभी धरोहरों को हथियाकर पहचान बदली है।

लखनऊ के नामकरण की चर्चा पहले करता हूँ क्योंकि इसी को आधार बनाकर इसकी धरोहर का भी नाम परिवर्तन किया गया है। लखनऊ त्रेतायुग में कौशल राज्य का एक अभिन्न अंग था जिसे प्रभु श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित किए थे। इस शहर का प्राचीन नाम लक्ष्मणावती या लक्ष्मणपुर था जिसे समय के साथ-साथ अपभ्रंश होकर लखनौती या लखनौर हो गया और बोलचाल की भाषा में इसके अंतिम वर्ण का भी लोप होकर ये लखनौ हो गया। यह मुख्य रुप से लक्ष्मण की नगरी है जिसे मुस्लिम इतिहासकार इसे अपने गले से नीचे नहीं उतारते। भला जिस नगर की पहचान उसके नवाबगिरी और शानो-शौकत से होती है उसे वे राम और लक्ष्मण से कैसे जोड़ सकते हैं?

तब उन्होंने यह उपाय सुझाया कि जब बिजनौर के शेख लखनऊ आए तो वे उस समय के आर्किटेक्ट लखना पासी की देखरेख में एक किला बनवाया जिसे लखना किला कहा गया जो बाद में इस किले का नाम लखनऊ हो गया। अब उन इतिहासकार को कोई कैसे बताये कि भला कौन होगा जो लाखो करोड़ों रुपये खर्च करके एक किला बनवाये और उसे अपने नाम पर ना रखकर भाड़े पर लिए गए आर्किटेक्ट के नाम पर रखे। है ना कितने आश्चर्य की बात और वो भी एक हिन्दू को जिनकी नस्लों से भी ये आक्रांता नफरत करते थे। यहां तक कि वे हिंदुओं के बसे बसाए शहर को उजाड़ कर वे इलाहाबाद, फिरोजाबाद, अहमदाबाद, फैजाबाद रखते है ऐसे अनगिनत नाम आपको मिल जायेंगे।

अब मैं अपने मुख्य मुद्दे पर आता हूं इमामबाड़ा। यह दो शब्दों से मिलकर बना है इमाम+बाड़ा। इमाम का आशय इस्लाम में मुस्लिम धर्माधिकारी या नेता और बाड़ा का अर्थ हिन्दुओं की दृष्टि में स्थान से है। सबसे पहले तो इमाम से साथ बाड़ा शब्द ही असंग है। अगर नाम पर ध्यान ना भी दिया जाय तो यह स्थान किसी मुस्लिम धर्माधिकारी या धर्म गुरु का स्थान होना चाहिए था पर यहां तो हसरत हुसैन के मातम के लिए ताजिया बनाए जाते हैं और इसके मुख्य प्रवेश द्वार पर नवाब आसफ-उद-दौला की कब्र भी है तो भला किसी धार्मिक केंद्र पर कब्रें कैसे हो सकती हैं? अतः इसका नाम ही इमामबाड़ा गलत है। अब इसका सही नाम क्या है वो ही इस पोस्ट में आपको पता चल जाएगा।

मुस्लिम इतिहासकारों का मनाना है, कि नवाब आसफ-उद-दौला ने 1784 में जब अकाल पड़ा था तो लोगों को रोजगार देने के लिए इसे बनावाया था और भी भ्रामक चीज कि यह शासक इसे दिन में बनवाता और रात में तोड़वाता था कि अगले दिन लोगों को फिर काम मिल सके। पहली बात तो ये कि यह इमारत 1784 से बहुत पहले की बनी हुई थी और दूसरी बात कि आसफ-उद-दौला उसी समय अंग्रेजों के काल में कर्ज में डूबे होने के साथ ही हर समय भोग-विलास में डूबा हुआ शासक था। उसने तो गोमती नदी में बने पुल तक की मरम्मत नहीं कराई कि अगर ऐसा करेगा तो उसकी मृत्यु हो जायेगी।

वास्तविकता यह है कि वह सामाजिक कल्याण पर धन खर्च ही नहीं करता था। तो उससे भाला यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि अकाल के समय में लोगों की मदद के लिए यह इमारत बनवाया होगा। अगर उसके पास छुपा ख़ज़ाना भी था तो जब लोग भूखों मर रहे थे उस समय उन भूखे लोगों से बार बार इमारत बनवाने और तुड़वाने की बजाय उसे भूखे लोगों को अन्न देना चाहिए था तो सच्चाई यह है कि यह इमारत 1784 से बहुत पहले की है जिसे तोड़ मरोड कर सबके सामने प्रस्तुत किया गया जिसे मैं नहीं साक्ष्य कहते हैं। अब एक नजर उन साक्ष्यों पर-

पहला साक्ष्य – बहुमंजिला इमारत। जो इतिहासकार यह बताते है कि यह इमारत नवाब आसफ-उद-दौला का मकबरा है जिसे उसने जीते-जी बनवाया था तो इस इमारत की बनावट किसी मकबरे की नहीं है बल्कि एक बहुमंजिला इमारत है जो राजपूताना शैली में बनी हुई है। कुछ का मानना है कि इसे ताजिया के लिए बनाया गया था जो बिल्कुल गलत है क्योंकि ताजिया के लिए एक हाल ही काफी है। साथ ही इसी परिसर में एक मस्जिद है वो विशाल इमारत भी अष्टकोणीय मिनारों और छतरियों से युक्त है जो पूर्णतः हिन्दू भवनों की ही पहचान है और इस मस्जिद के मुख्य द्वार पर गैर मुस्लिम प्रवेश निषेध भी लिखा है अब इसी से आप अंदाजा लगा सकते है कि अंदर क्या क्या होगा? बड़े इमामबाड़े परिसर में स्थित छोटे इमामबाड़े में आपको स्नानागार मिल जाएगा जो हिन्दू भवन का प्राचीन स्वरूप है। अब यह कौन सा हिन्दू भवन है इसकी चर्चा भी करूंगा

दूसरा साक्ष्य– नक्कारखाना। जैसा कि आप सभी जानते हैं इस्लाम में संगीत को हराम माना जाता है। जबकि हिन्दू भवनों में आपको नक्कारखाना देखने को मिल जाएगा हमारे सनातन धर्म के प्रत्येक उत्सवों में नगाडे बजाने का विशेष महत्व है। अगर इमाम बाड़ा एक इस्लामी इमारत है तो यहां नक्कारखाना क्यों है

तीसरा साक्ष्य– इमामबाड़ा के परिसर में स्थित बावड़ी। भारत में प्राचीन काल से ही हिन्दू राजाओं ने जन कल्याणकारी कार्यों में जल प्रबंधन के लिए बावड़ियों का खूब निर्माण करवाया है जिनमें चांद बावड़ी, हाडीरानी की बावड़ी आदि प्रसिद्ध हैं। बावड़ी उन सीढ़ीदार कुओं व तालाबों को कहते हैं जिनके जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुंचा जा सकता है। यह एक हिन्दू शिल्पकला है और भारत में बावड़ी के प्रयोग का एक लंबा इतिहास मौजूद है। इसलिए अगर इमामबाड़ा का निर्माण नवाब आसफ-उद-दौला ने करवाया है तो यहां हिन्दू बावड़ी क्यों स्थिति है?

चौथा साक्ष्य– मुख्य द्वारा पर मछलियों का अंकन आप गूगल सर्च करके देख लीजिए कि लखनऊ में मछी भवन कहाँ है तो यह इमामबाड़ा इर्द-गिर्द ही आपको पता चलेगा। मछी भवन संस्कृत का मत्स्य शब्द है जिसे मछली कहा जाता है। यह इमामबाड़ा ही मत्स्य या मछी भवन है। हिंदुओं के लिए वेदों व पुराणों में मछली का विशेष महत्व है भगवान विष्णु भी मत्स्य अवतार लिए थे। इसीलिए अयोध्या के आसपास के सभी धरोहरों में हमें मछली के चित्र का अंकन मिलता है पर इस्लाम में किसी भी प्रकार के पशु, पक्षी, मनुष्य या चित्रकारी को जायज नहीं माना जाता फिर ये किस सिद्धांत पर हमारे सभी धरोहरों को अपना बताते हैं।

लक्ष्मण के इस शहर में उनके आराध्य प्रभु श्रीराम के राम द्वार को रूमी दरवाजा के नाम पर उसे भी झूठी पहचान दे दी गई है। उर्दू में भी रूमी शब्द का कोई अर्थ नहीं होता। रोम के लोगों को रूमी कहा जाता था पर ना तो ये दरवाजा रोम में है और ना ही यहां के नवाब रोम के थे अर्थात यह यह रूमी दरवाजा राम द्वार ही है।

–  अरुणेश मिश्र

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