अंतःकरण में ज्ञान, आँखों में वैराग्य और मुख में भक्ति रखो तो दुनिया में नहीं फँसोगे। मन को संसार के विषयों से निकालकर अंतर्मुख करो, तब सभी वासनाएँ मिट जायेंगी, विकार दूर हो जायेंगे। दुनिया में कोई किसीका वैरी नहीं है। मन ही मनुष्य का वैरी और मित्र है।
कोई भी व्यक्ति आपदा में पड़कर पथभ्रष्ट होना नहीं चाहता। नदी के तट की ओर तैरकर जा रहे मुसाफिर को नदी में रहनेवाले मगरमच्छ घसीटकर बीच में ले जाकर अपना शिकार बनाते हैं। इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार ये पाँच शत्रु हैं। ये मगरमच्छ की तरह मुँह फाड़कर हम पर समय-समय पर आक्रमण करते रहते हैं। इनसे बचने का क्या उपाय है ? उपाय आसान है। इनका दुर्ग मनहै। यदि वह मन वश में आ गया तो ये शत्रु कुछ भी नहीं कर सकेंगे। मन वश होता है अभ्यास, वैराग्य और सच्चे संतों के सान्निध्य से।
भगवान श्रीराम के गुरु वसिष्ठजी ने ‘उत्तर रामायण’ में कहा है कि ‘सत्संग महान धर्म है। जिसे धर्म का स्वरूप देखना हो उसे सत्संग में जाना चाहिए। सत्संग की एक पंक्ति भी यदि आचरण में आ जाय तो बेड़ा पार हो जाता है।”
यदि मनुष्य शरीर पाकर भी तुमने सत्-स्वभाव को धारण नहीं किया तो फिर मनुष्य बनकर संसार में आने का क्या लाभ हुआ ? हृदय में ज्ञान के सूर्य को जगाना चाहिए। भगवद्ध्यान में डूबो। यदि भगवान में डूब गये तो जन्म-मृत्यु के महादुःख से छूट जाओगे।
शांत हृदय में ही सत्, चित् और आनंदस्वरूप परब्रह्म के साक्षात् दर्शन हो सकते हैं। जो व्यक्ति बहुत प्रवृत्ति के कारण परम तत्त्व का ध्यान नहीं कर सकता, उसे प्रवृत्ति में रहते हुए भी ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। परम तत्त्व का ध्यान करनेवाला उसीमें लीन हो जाता है। विषय को ज्ञान से अलग कर लो तो शेष क्या रहेगा ? एक स्वयं ज्योति ही अपने-आपमें स्थित रहेगी।
समुद्र की भाँति महा गम्भीर होकर रहो। सागर को जल की कोई इच्छा नहीं रहती, किंतु नदियाँ स्वयं ही उसमें आकर प्रवेश करती हैं। आप भी ऐसे ही बनो। किसी विषय के आगे दीन मत बनो। जब हम छाया को पकड़ने के लिए दौड़ते हैं तो वह हाथ नहीं आती, किंतु जब सूर्य की ओर चलते हैं तो छाया पीछे-पीछे फिरती है। इसी प्रकार जो संसार के पदार्थों के प्रति अनासक्त तथा ईश्वरप्राप्ति के लिए तत्पर रहते हैं, माया उनके पीछे-पीछे दौड़ लगाती है।
बहिर्मुख बनोगे तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार- ये पाँच चोर आपको लूटकर भिखारी बना देंगे। इसलिए सदा सर्वसमर्थ ईश्वर के संरक्षण में रहो। ईश्वर का सतत चिंतन करना ही उनके सरंक्षण में रहना है। हे मानव ! तू दीन होकर दर-दर क्यों भटकता है ? तेरा पेट तो एक सेर आटे से भी भर सकता है। ईश्वर तो उस सागर को भी भोजन पहुँचाता है, जिसका शरीर लाखों कोसों तक फैला हुआ है। …तो फिर अरे मूर्ख ! तू आत्मा विश्राम क्यों नहीं पाता ? क्यों अपनी आयु गँवा रहा है ?