“जीवन” एक वन है, जिसमें “फूल” भी हैं और “काँटे” भी । जिसमें “हरी-भरी सुरम्य घाटियाँ” भी है और “ऊबड़-खाबड़ जमीन” भी । अधिकतर वनों में वन्य पशुओं और वनवासियों के आने_जाने से छोटी-मोटी “पगडंडियाँ” बन जाती हैं । सुव्यवस्थित दीखते हुए भी ये जंगलों में जाकर लुप्त हो जाती हैं। “आसानी और शीघ्रता के लिए” बहुधा यात्री इन “पगडंडियों” को पकड़ लेते हैं, “वे सही रास्ते से भटक जाते हैं ।”
“जीवन वन” भी ऐसी ही “पगडंडियों” से भरा है जो बहुत हैं, छोटी दीखती हैं, “पर गंतव्य स्थान तक पहुँचती नहीं हैं ।” “जल्दबाज” “पगडंडियाँ” ही ढूँढते हैं,” किंतु उनको यह मालूम नहीं होता कि “ये अंत तक नहीं पहुँचती” और जल्दी काम होने का लालच दिखाकर “दलदल में फँसा देती हैं ।”
“पाप और अनीति” का मार्ग जंगल की “पगडंडी,” “मछली की वंशी” और “चिड़ियों के जाल” की तरह हैं ।” अभीष्ट कामनाओं की जल्दी से जल्दी, अधिक से अधिक मात्रा में पूर्ति हो जाए, “इस लालच से लोग वह रास्ता पकड़ते हैं “जो जल्दी ही सफलता की मंजिल तक पहुँचा दे ।” “जल्दी” और अधिकता” दोनों ही वांछनीय हैं, “पर उतावली में उद्देश्य को नष्ट कर देना तो बुद्धिमता नहीं कही जाएगी ।”
“जीवन वन” का “राजमार्ग” “सदाचार” और “धर्म” है ।” उस पर चलते हुए लक्ष्य तक पहुँचना “समयसाध्य तो है, पर जोखिम उसमें नहीं है ।”