बात थोड़ी पुरानी है।2014 से पहले की।बात तब की जब कम्युनिस्ट आतंकियों ने अपने विचारधारा के अनुसार ही बस्तर को कसाईखाना (अब भी कसाईयत जारी ही है)में बदल दिया था। लगातार गरीब और वंचित आदिवासियों, निम्न-मध्य वर्ग, देश भर के गरीब किसान-मजदूर परिवार से आने वाले सुरक्षा बलों कीवे लगातार नृशंस हत्या कर रहे थे।ज़ाहिर है जनता उद्वेलित थी। आक्रोशित थी।उसी समय कथित साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में राजेन्द्र यादव की संपादकीय पढ़ कर मन घृणा और आक्रोश से भर उठा था।यादव की संपादकीय का लब्बोलुआब यही था कि कम्युनिस्ट नक्सली जो भी कर रहे हैं वहां सही कर रहे।
उस समय एक नेता के संपर्क में था, उन तक संदेशा भिजवाया कि यादव पर छग के ‘जन सुरक्षा क़ानून’ एवं अन्य धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज हो और उन्हें बाकायदा हथकड़ी पहना कर रायपुर की अदालत में पेश कराया जाना चाहिये।संदेशवाहक को काफी गंभीरता से सुन कर ‘नेताजी’ ने दो बातें कही थी।पहली सामान्य सी बात यह कही कि हंस को पढ़ता कौन है।आप नहीं बताते तो मुझे भी पता नहीं चलता कि ऐसा कुछ लिखा गया है।सो ऐसी कोई कारवाई को करके क्यों एक वाहियात सी चीज़ नाहक लोगों को पढ़ाना? ऐसी चीज़ें अपनी मौत मर जानी है।दूसरी बात जो कही उन्होंने यही इस लेख का आशय है। नेताजी ने कहा– यह बिल्कुल सही है कि यादव ने हमेशा की तरह घोर पाप किया है, उन्हें ऐसी सजा मिलनी चाहिए जो दूसरों के लिए उदहारण हो, लेकिन – ‘आखिर आप कितने मोर्चे एक साथ खोलेंगे?’ छोड़ दीजिये उन्हें अपने हाल पर?
नुपुर-नवीन प्रकरण और उसके बाद आक्रोश से उबल रहे सनातन देशभक्तों की पीड़ा को महसूस करते हुए भी अनायास वही किस्सा याद आ गया।निश्चित ही आपको तय करना होता है कि आपकी प्राथमिकता क्या है और आप कितने मोर्चों को एक साथ खोलने में सक्षम हैं।देश फिलहाल जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है, जिन महान परिवर्तनों के दौर से गुजर रहे हैं हम, उसमें आपको अपनी प्राथमिकता स्पष्ट रखनी होगी। आपको तय करना होगा कि किन-किन ‘मोर्चों’ को खोलें जहां आपकी जीत सुनिश्चित हो।देश के भाजपा नेतृत्व के दिमाग में ऐसी कारवाई करते हुए क्या चल रहा होगा, वे निश्चित ही मात्र चुनिंदे लोग ही जानते होंगे, इसकी किसी भीतरी जानकारी होने का दावा कोई भी नहीं कर सकता है, लेकिन पत्रकारिता का छात्र होने के नाते पिछले दो दशक से चीजों को देखते रहने के आधार पर यह कहसकता हूं कि ऐसा निर्णय लेने वाले नेतृत्व की सोच अपनी प्राथमिकताओं को लेकर सुस्पष्ट रहा होगा। वे स्पष्ट तौर पर जानते हैं कि एक साथ कितने मोर्चे वे सफलता से खोल सकते हैं।
वर्तमानतःज़रूरत इस बात की है कि समर्थक, देशभक्त लोग अपनी सोच में ऐसी स्पष्टता और खासकर नेतृत्व के प्रति अपने अथाह भरोसे को कायम रखें।इस अनुमान के पक्ष में पक्ष में अनेक तथ्यों मं से महज़ एक उदहारण का जिक्र करना प्रासंगिक होगा। याद कीजिये, जम्मू-कश्मीर में ‘तिरंगा विरोधी’ पीडीएफ से गठबंधन कर भाजपा द्वारा सरकार बनाने के फैसले से भी हम सब ऐसे ही उद्वेलित हो रहे थे।लेकिन अंतिम परिणाम किस तरह युगांतकारी हुआ, उसके हम सब साक्षी हैं।लेकिन क्या हुआ होता अगर हम ऐसे ही लड़ ही रहे होते विरोधियों से और सारे मोर्चों पर एक साथ पिल पड़े होते तो? ऐसा कर हम दुनिया भर की दुश्मन ताकतों को एक साथ, एक मंच पर लाने का अनचाहा काम कर रहे होते,और शायद वैसा निर्णय लेना संभव नहीं होता।
हालके बयान के बाद उत्त्पन्न हुए घटनाक्रम ने विश्व के 57 देशों में से अनेक को और राष्ट्र के भीतर भी ‘20 प्रतिशत लोगों’ को मौक़ा दे दिया है राष्ट्र को लांछित करने का, ऐसा अवसर जिसकी ताक में वे हर वक़्त रहते हैं।ऐसे में उनके मंसूबे के गुब्बारे को फोड़ देने का यही तरीका हो सकता था, जैसा किया गया है।यहां यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि बीस प्रतिशत का आशय ‘मज़हब विशेष’ से कतई नहीं है, इसका आशय उन कट्टर विरोधी तत्वों से है, जो मोदी विरोध और राष्ट्र विरोध में ज़रा भी फर्क नहीं करते।जिनके लिए राष्ट्र को ख़त्म कर भी मोदी को, भाजपा को नीचा दिखाना अकेला ध्येय है।इस 20 प्रतिशत के आंकड़ों को सरलता से ऐसे भी समझा जा सकता है कि हालिया पांच राज्यों के चुनाव में 4 राज्य जीत कर योगी जी के 80/20 के आंकड़ों पर जनता ने भी मुहर लगाई है।20 प्रतिशत अर्थात भाजपा के कट्टर विरोधी तत्व।बहरहाल!
जिस तरह हम सब आक्रोशित-उद्वेलित हैं, तय मानिए ऐसा उद्वेलन खुद ‘पीड़ित’ नुपुर-नवीन में भी नहीं होगा।वे बेहतर जानते हैं कि देश की भलाई किसमें हैं! राष्ट्रवादी संस्कार में पले होने के कारण उन्हेंपता है कि व्यापक राष्ट्रीय हितों के आगे निजी हित-अनहित महत्वहीन होता है। तय मानिए, आलोच्य कारवाई उनकी निष्ठा पर सवाल बिल्कुल नहीं उठाता है।साथ ही उनकी सुरक्षा राष्ट्र के लिए सर्वोपरि है, ऐसा भी सरकार समझ ही रही है। सवाल महज़ इतना है कि भीतर-बहार चारों तरफ से चुनौतियों से घिरे हमारे देश में हमारी प्राथमिकता क्या हो?सवाल महज़ इतना है कि सदियों से लाभान्वित होते रहे शोषक समूहों के हितों पर कुठाराघात कर जैसी लड़ाई मोदी सरकार ने मोल ली है, उससे ज़रा भी पीछे हटना या रणनीतिक रूप से ज़रा भी चूक देश के लिए कितना नुकसानदेह हो सकता है।मेरी समझ से निर्णायक मोड़ पर आप कोई भी जोखिम लेने की स्थिति में तो बिलकुल नहीं होते हैं।आप अफोर्ड नहीं कर सकते ऐसे समय किसी भी तरह का कोई गफलत!
ज़रा गौर कीजिये! आपने श्री राम जन्मस्थान पर मंदिर बनाने का असंभव सा कार्य संपादित किया है।सदियों से, पीढ़ियों से हम ह्रदय पर पत्थर रख कर इसका स्वप्न मात्र ही देख पा रहे थे।आज ज्ञानव्यापी खुलासे से अधमरे सांप जैसे व्याकुल हो गए हैं 20 प्रतिशत तत्व। आपने अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर, ‘35 अ’ को ख़त्म कर बाहरी-भीतरी दुश्मनों को उनकी हैसियत बता दिया है। आपने तीन तलाक को ख़त्म कर, सामान नागरिक संहिता की तरफ कदम बढ़ा कर, अविश्वसनीय रूप से कोविड महामारी से देश को लगभग मुक्त कर, स्वदेशी टीके के साथ सौ करोड़ से अधिक नागरिकों का टीकाकरण कर,एशिया के अनेक देशों में पसरे भुखमरी, यूरोप तक में पसर रहे खाद्य संकट में अपने अस्सी करोड़ ज़रुरतमंद नागरिकों तक निरंतर मुफ्त अनाज पहुचा कर, रूस-उक्रेन युद्ध के बावजूद तेल समेत तमाम आपूर्ति सुनिश्चित करते हुए दुनिया में अगुआ देश बन कर जिस तरह आत्महीन कांगरेड तत्वों का सफाया सुनिश्चित किया गया है, यह हम सबने देखा है।ऐसे समय अधमरे विषधरों जैसे छटपटा रहे देश-विदेश के दुश्मनों (विरोधियों नहीं, दुश्मनों) को आप ज़रा सा भी मौक़ा देना चाहेंगे? कतई नहीं।कथमपि नहीं।क्वचिदपि नहीं। कदापि नहीं।
ऐसा कौन नहीं जानता कि सर्वधर्म समभाव और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि तमाम तथ्य अवसर सापेक्ष बना दिया है देशद्रोही तत्वों ने।यह सही है कि भगवान शिव को अनर्गल कहना, श्रीराम के बारे में असभ्य बयानबाजी, योगीराज श्रीकृष्ण के बारे में बदजुबानी, मां दुर्गा-सरस्वती आदि के विरुद्ध अश्लीलता आदि अभिव्यक्ति की आज़ादी के रूप में व्याख्यायित की जाती है लेकिन किसी ‘दूत’ के बारे में कुछ कहनाक़तर जैसे उस मुल्क को भी चिल्लाने का मौका दे देता हैजिसने हमारी देवियों का नग्न चित्रण करने का दुस्साहस करने वाले हुसैन को आदर के साथ शरण और नागरिकता दी थी।
उनके बारे में ज़रा सी तथ्यात्क बात सर तन से जुदा लायक अपराध, लेकिन हमारे मान बिन्दुओं पर प्रहार उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी? पिछले आधे सदी से अभी अधिक से होते आये ऐसे हिप्पोक्रेसी के विरुद्ध पिछले दशक भर में जैसा जन-जागरण हुआ है, उसे बनाए रखने के लिए कभी-कभी आपको रणछोड़ भी होना ही पड़ता है।चार कदम आगे जाने के लिए कभी दो कदम पीछे हट जाना भी बुद्धिमत्ता ही कहा जाता है बशर्ते स्थायी परिणाम आपके पक्ष में रहे तो।बशर्ते अंतिम जय का अस्त्र बनाने हम सभी नव-दधीचि बन हड्डियां गलाने के लिए तैयार रहें तो। बशर्ते तुष्टिकरण और अन्याय के अंधेरे में राष्ट्रवाद का स्थायी दीया जलाने मां भारती के पुत्रों को धैर्य धारण किये रहें तो।विवेक, विश्वास और निष्ठा के साथ धैर्य, यही मूलमंत्र होना चाहिए वर्तमान का भी!
हिन्द स्वराजभूषण शिवाजी महाराज के बारे में एक कथा बतायी जाती है, वे तमाम मोर्चों पर एक साथ जूझते हुए थोड़े क्लांत से हो गए थे।कहा जाता है कि थोड़े किंकर्तव्यविमूढ़ और अनमने होकर वे एक वृद्धा माता द्वारा दी गयी गर्म खिचड़ी खा रहे थे और उनकी अंगुलियां झुलस-झुलस जा रही थी।कहते हैं, ऐसे समय उन्हें दुनिया भर के अनुभवों की झुर्रियां अपने चेहरे पर समेटे वृद्धा माता की सीख ने उन्हें नया ही मार्ग दिखा दिया था।माता ने उन्हें कहा था- ‘खिचड़ी को किनारे-किनारे से खाना शुरू कर दीजिये, हाथ नहीं जलेंगे।’ हिन्दवी साम्राज्य की संतानों को शिवाजी महाराज को प्राप्त हुई इसी अमूल्य सीख को अंगीकार करते हुए अपने नेतृत्व पर भरोसे को अक्षुण्ण अटूट बनाए रखना होगा। कम कहे को अधिक समझते हुए वर्तमान घटनाक्रम का यही सन्देश और सबक हमें ग्रहण करने की आवश्यकता है। है न?