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वो अनाज उगाता और सिस्टम उसे सड़ाता..!

वो अनाज उगाता और सिस्टम उसे सड़ाता..!

by ऋतुपर्ण दवे
in उद्योग, कृषि, विशेष, सामाजिक
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देश में भरपूर अनाज उग रहा है। सुनने में अच्छा लगता है। विडंबना देखिए इसे सुरक्षित रखा जाना क्या कभी किसी की प्राथमिकता में रहा? ऐसा दिखा नहीं! माना कि ये मानसूनी   महीना है लेकिन अप्रेल और मई माह में ही जहाँ-तहाँ खुले आसमान तले रखा लाखों टन गेहूँ बेमौसम बारिश से भीग गया जिसका सही अंदाजा मुश्किल है। बस यही खेल है, इसे समझना होगा। देश भर से मिली तबाही की तस्वीरों, वीडियो, समाचारों की कतरनों, क्लिपिंग्स सबने देखी। लेकिन न तब और अब बारिश में अनाज को खुले में रखने और भीगने से बचा पाना   रुक पाया। मानसून धीरे-धीरे बांहें फैला रहा है। लेकिन खुले में रखा अनाज कहाँ हट रहा है? बस यही वो तिलिस्म है जो किसानों की मेहनत पर पानी फेरता है और हम हैं कि सिवाय बेचारे सरकारी सिस्टम को क्लीन चिट देता देख संतोष करने के और कुछ कर भी नहीं पाते..!

जग जाहिर है कि न तो तूफान, न मौसम-बेमौसम बारिश रुकी है, न रुकेगी, न कोई रोक पाएगा। रुक सकता है तो खुले आसमान के नीचे पॉलिथिन की पन्नियों में ढ़ककर भण्डारण की बदहाल और भ्रष्ट व्यवस्था। यदि ऐसा हुआ तो सही खरीद, भण्डारण के आंकड़ों का हेरफेर कैसे हो पाएगा? आंकड़ों की बाजीगिरी बेनकाब नहीं हो जाएगी? एकाएक बारिश आई, इतना अनाज भीग गया, सड़ गया, बह गया का वो अकाट्य तर्क कहाँ जाएगा जिसका न कोई इलाज था न है न होगा!

ये मानसून का दौर है लेकिन भर गर्मी मौसम बिगड़ना, बारिश हो जाना अब बेहद आम  है। बीते कुछ दशकों से तमाम पर्यावरणनीय विक्षोभ तस्दीक भी करते हैं। सड़ांध मारती अनाज भण्डारण व्यवस्था या लीपापोती का जुगाड़ जो भी कहें, हर बार हजारों मीट्रिक टन अनाज खुले आसमान के नीचे भिगाकर ऐसा खराब करता है कि पशुओं का निवाला तक नहीं बन पाता। जिम्मेदार बड़ी ही आसानी से सारा दोष बारिश के मत्थे मढ़ बच या बचाए जाते हैं जो खुद बुलाई आपदा के वास्तविक दोषी हैं। हाँ, मिट्टी में मिलती है तो किसान की मेहनत जिसने बड़ी लगन से फसल उगाई, मण्डियों तक पहुँचाई।

हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान हैं। सैंतालिस प्रतिशत भू-भाग में खेती होती है और सत्तर प्रतिशत आबादी इसी पर निर्भर है। किसान अच्छी फसल की उम्मीद से मेहनत कर सफल होता है। इसे सहेजने खुले आसमान के नीचे भण्डारण होता है। खरीद फरोख्त का असली-नकली सच यहीं छुपा होता है जो बारिश में अनाज भीगते ही दफन हो जाता है और शुरू हो जाता है आँकड़ों की नई बाजीगिरी। बदल जाती है फाइलों और नोटशीट की भाषा। पहले फसलों की खुले आसमान के नीचे सुरक्षा की कोशिशों का जिक्र था जो लाखों खर्च के बावजूद नीली, पीली पॉलिथीन की मोटी तिरपाल नहीं बच पाईं। अब सरकारी तंत्र की नई और बेचारगी से भरी कवायद है जिसमें जो सड़े अनाज और बेजा खर्च का नया बही-खाता।

विचारणनीय यह है कि भारत में अवैज्ञानिक तरीकों से भण्डारण का प्रचलन खुद सरकारें कराती हैं। खुले आसमान के नीचे कभी बोरों में या कभी यूं ही ढ़ेरों में पड़ा अनाज प्रायः सभी ने देखा है। आंकड़े बताते हैं कि वार्षिक भण्डारण हानि लगभग 7000 करोड़ रुपए की है जिसमें 14 मिलियन टन खाद्यान्न बर्बाद होता है। हर वर्ष भारत में कुल गेहूं उत्पादन का क़रीब 2 करोड़ टन किसी न किसी तरह नष्ट हो जाता है। एक अध्ययन के मुताबिक देश में करीब 93 हजार करोड़ रुपयों का अनाज बर्बाद होता है।

भारतीय खाद्य निगम भी भण्डारण में अक्षम है। न तो गोदाम बनाने में तेजी आई न सहेजने की कोई पुख्ता व्यवस्था हो सकी। बड़ी विडंबना देखिए तमाम सरकारी संकल्पों के बावजूद अनाज भण्डारण में न रुचि ली गई और न काम में गति आई। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2020-21 का बजट पेश करते समय किसानों के लिए 16 सूत्रीय फॉर्मूले की घोषणा की थी जिसमें वेयर हाउस और कोल्ड स्टोरेज की चर्चा थी। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक द्वारा नए-नए वेयर हाउस बनाने और संख्या बढ़ाने के लिए पीपीपी मॉडल का जिक्र था। ब्‍लॉक स्‍तर पर भंडारण केन्द्र बनाए जाने प्रस्तावित थे। लेकिन जमीन पर कुछ दिखा नहीं। फरवरी 2021 में एक संसदीय प्रश्नोत्तर में खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग ने बताया कि भारतीय खाद्य निगम ने 25 लाख मीट्रिक टन साइलो (थोक भण्डारण का आधुनिक, सुरक्षित, याँत्रीकृत तरीका) क्षमता प्रदान की है। अदानी लॉजिस्टिक्स की क्षमता 4 लाख मीट्रिक टन (कुल का 16 फीसदी) जबकि राष्ट्रीय संपार्श्विक प्रबंधन सेवाओं यानी एनसीएमएसएल (नेशनल कोलेटरल मैनेजमेंट सर्विसेज लिमिटेड) की क्षमता 7 लाख मीट्रिक टन (कुल का 28 फीसदी) है। जाहिर है पैदावार के मुकाबले ये बेहद कम है ऊपर से दो ही प्लेयर हैं। ऐसे में खुले में गेहूँ का सड़ना नीयति नहीं तो और क्या है?

देश में 249 स्थानों पर साइलो (थोक भंडारण का अत्यधिक यंत्रीकृत और आधुनिक तरीका ) बनाने की योजना थी ताकि 12000 करोड़ रुपए के गेहूँ का संग्रहण किया जा सके। लेकिन गति बेहद सुस्त है। शायद ऐसी योजनाओं की असफलता के पीछे दस्तावेजों के पुलिन्दों के साथ बेहद कठिन खानापूर्तियाँ हैं जो साधारण लोगों के बस की बात नहीं। उधर हर साल, हर मौसम में अनाज का खुले में सड़ना नहीं रुक रहा है। एक बात और मौजूदा ज्यादातर वेयर हाउस या साइलो किनके हैं, देखते ही माजरा समझ आने लगता है। यदि खास भण्डारण गृहों में आम किसान की पूछ परख होती तो क्या ये स्थिति होती? सवाल में ही जवाब छुपा है। आखिर लुटा-पिटा भोला-भाला किसान उसके लिए आसान सरकारी संग्रहण या खरीदी केन्द्रों पर ही टूटता है। स्वाभाविक है कि भण्डारण क्षमता से ज्यादा स्टॉक होगा जिससे जगह की कमीं बताकर खुले में रखने का भ्रष्ट खेल खूब फलेगा, फूलेगा और बाद में एकाएक आई बारिश से सड़े अनाज की व्यथा-कथा और रहस्यों के बीच सरकारी धन के नाश और खुद के विकास का खेल हो सकेगा?

सरकारी भण्डारण गृहों के बनाने पर तेजी से काम किया जाता जिससे एक बार के ही निवेश से 100 साल से भी ज्यादा ये काम आ पाते और आपदा में राहत का पिटारा बनते। यदि हिसाब भी लगाया जाए तो इनकी लागत खाद्यान्न भीगने, सड़ने या कीट, पक्षियों से होनी वाली एक साल की क्षति से कम बैठेगी। ऐसे में क्या मुनासिब नहीं है कि बरबाद हो रहे उपजे अनाज को बचाने जरूरत के मुताबिक बड़े-बड़े व अत्याधुनिक संसाधनों से लैस गोदाम बनते?

अमूमन पता होता है कि न जाने कब बारिश हो जाए, कब आँधी-तूफान आ जाए, कब हवा का रुख बदल जाए और कब नम-गरम हवाएँ एकाएक बारिश में तब्दील हो जाएँ। मौसम तो बेईमान है लेकिन उससे जानबूझ कर अनजान सिस्टम का कितना ईमान है?

सवाल फिर वही कि बेहद साधारण सी इस कोशिश के लिए गंभीर प्रयास कब होंगे? बड़े-बड़े भण्डारण और शीतगृहों के मालिक भरपूर सरकारी छूट, मनमाफिक किराया और तमाम नामी-बेनामी सुविधाएं लेने वाले रसूखदारों से भला किसे डर नहीं लगता? लगता नहीं कि अनाज उगाता किसान और अनाज सड़ाती लालफीताशाही व्यवस्थाएँ ही हमारा सच है? क्या दोषियों की मंशा पर पानी फिर पाएगा या अनाज भिगाने का अंतहीन सिलसिला ही जारी रहेगा? काश किसी के पास होता इसका जवाब..!

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