खरीदारी सबसेऽऽऽ सुखद अनुभूति

किसी भी महिला के जीवन के सबसे सुखद क्षणों में से एक होता है, जब वह अपनी खरीदारी के शौक के पलों को जी रही होती है। उस समय उस महिला के चेहरे पर जो मुस्कान होती है, उसका मोल चुकाया नहीं जा सकता क्योंकि उसके कुछ क्षणों के पश्चात् ही उस परिवार के पुरुष की जेब ढीली हो चुकी होती है।

हारों का मौसम आ चुका है, और बाजार भी सज चुकी है। तरह तरह की चीजों से, कपड़े लत्तों से लेकर गहनों तक और बर्तनों से लेकर, सजने संवरने की चीजों तक हर चीज अब बाजार में सज चुकी है। और ऐसे में यदि कोई सबसे ज्यादा खुश है, तो वो हैं महिलाएं! क्यों ना हो भाई! शॉपिंग का मौसम आ चुका है। और ये मौसम महिलाओं का सबसे ज्यादा पसंदीदा मौसम होता है। क्योंकि इसमें न सिर्फ ढेर सारी नयी नयी चीजें खरीदने का मौका मिलता है, बल्कि बारगेनिंग का, बाजार घूमने का और अपनी आंखों को ठंडक देने का भी मौका मिलता है, और ये मौका महिलाएं कभी नहीं छोड़ती !

महिलाओं को खरीदारी में इतना वक्त क्यों लगता है?

मुझे विश्वास है, कि यह प्रश्न किसी ना किसी पुरुष के ही मन में पहली बार आया होगा। क्योंकि जब भी कोई पुरुष बाजार में किसी महिला को, फिर चाहे वो उसकी पत्नी हो, बेटी हो, मां हो या बहन हो, ले जाता है, तब वह एक कोने में मोबाइल पकड़े नजर आता है, और जब भी बिल भरने की बारी होती है, बेचारी सी शक्ल लिये, बिल भर कर चैन की सांस लेता है, कि चलो आखिर शॉपिंग खत्म तो हुई, लेकिन उसका यह सुकून कुछ वक्त के लिये ही होता है, जब तक वही महिला उसे दूसरी दुकान तक नहीं ले जाती। क्योंकि शॉपिंग का मजा एक दुकान में चार चीजें देख कर एक चीज खरीदने में थोड़ी ना है। ये मजा तो, सारी दुकानें छान बीन कर देखने में, अच्छी से अच्छी चीज निकलवाने में, और फिर ढेर सारी बारगेनिंग कर सबसे अच्छी लगी वस्तु को खरीदने में है।

समय बदला और ये दृश्य भी

लेकिन आजकल महिलाओं को अपने साथ किसी पुरुष की आवश्यकता नहीं है। वे अपनी सहेलियों के साथ जाती हैं, और अपनी स्वयं की कमाई से अपनी मनचाही वस्तु खरीद के लाती हैं। उन्हें बिल भरने के लिये उनके भाई, पापा या पति की आवश्यकता नहीं। हां उनके साथ जाने का और उन्हें परेशान करने का मजा ही कुछ और है, लेकिन अब ना तो पति परेशान होते हैं, ना पत्नियां उन्हें परेशान करती हैं, वे अपनी गर्ल्स गैंग को लेकर शॉपिंग पर निकल जाती हैं, और क्योंकि आजकल की महिलाएं किसी से कम नहीं हैं, और वे भी अच्छी कम्पनी में, अच्छी जगह नौकरी करती हैं, अच्छा पैसा कमाती हैं, इसलिये स्वयं के लिये, अपने घर के लिये वे मनचाही वस्तुएं बिना किसी रोकटोक के खरीद सकती हैं। और इसीलिये महिलाएं आजकल और भी ज्यादा खुश रहती हैं।

वैसे मेरे जैसी कुछ लड़कियां, महिलाएं ऐसी भी होती हैं, जिन्हें शॉपिंग में ज्यादा वक्त नहीं लगता। लेकिन हम जैसों की तादाद कम है। हम किसी एक दुकान में जाते हैं, पहली सात आठ चीजें देखते हैं, और उसमें से हमें कुछ पसंद आ गया तो हम उसे फौरन खरीद लेते हैं। क्योंकि कहा जाता है, जितने ज्यादा विकल्प उतना ही ज्यादा कन्फ्यूजन। तो फिर इतना कन्फ्यूजन पैदा ही क्यों करें? जो पसंद आता है, उसके आगे कुछ देखें ही नहीं, और उसे फौरन खरीद लें। इससे समय और शक्ति दोनों की बचत होगी, है ना?

मेरी सहेली की एक दादी थी जो दुकान में जब भी जाती थी, आधी दुकान नीचे निकलवा लेती थी। सबकुछ उलट पलट के देखती थी, खासकर साड़ियां। लेकिन जब वस्तु लेने की बारी आती थी, तब तुम रहने दो जी, तुम्हारे यहां तो कुछ भी अच्छा नहीं है। कह कर दुकानदार को तेवर दिखाते हुए निकल जाती थीं। बेचारे दुकानदार देखते रह जाते थे। ऐसे बहुत लोग होते हैं, जिन्हें पूरी दुकान निकलवाकर देखना अच्छा लगता है, लेकिन वे लेते कुछ भी नहीं है। ऐसे में दुकानदार की हालत ऐसी हो जाती है, कि अब इतना जो निकलवाया है भाई, इसका क्या करें?

बारगेनिंग, हमारा जन्मसिद्ध अधिकार..!

आजकल की मॉल संस्कृति में वो बारगेनिंग का मजा ही नहीं रहा। अक्सर जब भी हम मॉल जाते हैं, वहां पर एसी दुकानों में सजी हुई महंगी वस्तुएं देखते हैं, तो मन में एक बार अकाउंट बॅलेंस का खयाल आ ही जाता है। लेकिन स्ट्रीट शॉपिंग में ये टेंशन कभी नहीं होता है। दिल्ली का सरोजिनी मार्केट ले लें, या फिर जनपथ बाजार, पुणे का तुलशीबाग ले लें या फिर मुंबई का कोलाबा कॉजवे। वहां जा कर यदि आपने बारगेनिंग नहीं की तो क्या किया? दुकानदार भी महिलाओं की इस आदत से वाकिफ होते हैं, इसीलिये वे भी वस्तु की जो कीमत होती है, उससे चौगुना दाम बता कर कहानी शुरू करते हैं। फिर सिलसिला शुरु होता है, ये क्या बात हुई भैय्या, इतना महंगा, चलो वाजिब दाम लगाओ, फिर दुकानदार कुछ थोड़ा कम करके बताता है, और फिर महिला उससे भी कम, ऐसे करते करते वस्तु की असली कीमत तक दोनों आते हैं, और फिर न तुम्हारी ना मेरी करते हुए एक कीमत फायनल होती है। और आखिरकार विजयी मुद्रा से महिला अपनी वस्तु खरीदती है। उसे बारगेनिंग का सुख मिलता है, और दुकानदार को वस्तु की असली कीमत। और लम्बे समय तक चलने वाला यह खेल खत्म हो महिला विजयी मुद्रा से अगली दुकान में जाती है, पुन: वह खेल प्रारम्भ करने।

घर के बर्तन, सजावट, रांगोली से लेकर हर प्रकार की शॉपिंग!

अब दशहरा होते ही, दीपावली के दिन की प्रतीक्षा रहेगी। क्योंकि दीपावली में ना केवल हम स्वयं को सजाते हैं, बल्कि साथ ही साथ घर के लिये कुछ नया खरीदते हैं, बर्तन खरीदते हैं, सजावट का सामान खरीदते हैं। और इस पूरी खरीदारी को महिलाएं खास तौर पर बहुत ही ज्यादा एंजॉय करती हैं। खासकर घर की सजावट के सामान से तो बाजार सजे हुए होते हैं। फले फूले होते हैं। हर साल की कोई एक नयी थीम होती है, और फिर इस साल घर में क्या और कैसे सजाया जाए इस पर विचार विमर्श होता है। विचार तो सभी करते हैं, लेकिन आखरी फैसला मां का होता है। या घर की प्रमुख महिला का होता है। साल भर उसके मत का विचार भले ही किसी महत्वपूर्ण काम के लिये, फैसले के लिये ना किया जाए, लेकिन मजाल है कि घर का कोई भी व्यक्ति मां के इस फैसले के खिलाफ जा सके। फिर घर पर तरह तरह की नयी चीजें आती हैं। सोफा कवर से लेकर, दीवारों के सजाने वाली फ्रेम्स तक और फ्लावर वास से लेकर और भी बहुत सारी चीजों तक। सुंदर सुंदर वस्तुएं घर पर आती हैं। और सारा का सारा घर एकदम नया लगने लगता है।

धनतेरस वाले दिन नये बर्तन लेने का सालों से रिवाज रहा है। और इन बर्तनों से घर की महिलाओं को विशेष लगाव रहता है। गलती से इन डब्बों में से कोई डब्बा आप स्कूल में या कॉलेज में भूल आएं, या आपने अपनी किसी सहेली को दिया है, तो बस मां की डांट पड़ना ही है। फिर आपको सारी कहानी सुना दी जाएगी कि कौन से धनतेरस पे क्या लिया था, कितनी मेहनत से लिया था, और कैसे हमें इसकी कदर नहीं है। तो आप भी ऐसा पाप करने से पहले एक बार धनतेरस के दिन बर्तन खरीदते वक्त मां के चेहरे की खुशी को याद कर लेना, तभी ये डब्बे या बर्तन किसी को देने की हिम्मत (या जुर्रत) करना।

शॉपिंग एक रुमाल की हो या फिर वॉशिंग मशीन की। साड़ी की हो या फिर कान के बुंदे, या गले के हार की। महिलाओं के लिये ये शॉपिंग बहुत खास होती है। क्योंकि वे अपनी पसंद से कुछ लेने वाली होती हैं। अपनी इच्छा से कुछ खरीदने की हिम्मत करती हैं। खासकर यदि महिलाएं होममेकर हों, तो उन्हें कम ही मौका मिलता है, घर से बाहर निकल कर अपने लिये कुछ खरीदने का। और ऐसे में वे जब खरीदारी के लिये घर से बाहर निकलती हैं, तो वे हर वस्तु देखना चाहती हैं, विंडो शॉपिंग कर मार्केट में क्या क्या नया आया है देखना चाहती हैं, और इसीलिये ये खरीदारी कभी खत्म न होने वाली लगती है।

आज के ऑनलाइन शॉपिंग के जमाने में जहां सेल में लोग सब घर पर ही मंगवाते हैं, बाजारों की रौशनी और रौनक देखने जाने का मजा कुछ और ही होता है। शादियों और त्यौहारों के कपड़ों से सजे बाजार, तरह तरह के गहनों से लदे बाजार, हर वस्तुओं की भरमार से भरे पूरे बाजार देखने का, वहां जाकर खरीदारी करने का मजा ही कुछ और है। जो मजा अपनी आंखों से देखकर, हाथों से छू कर सामान लेने मैं है, वह मोबाईल की एक क्लिक में कहां? तो पुरुष भले ही इस खरीदारी से बोर हो जाए, ये अनंत खरीदारी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, जो हम लेकर ही रहेंगे। क्यों है ना?

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