प्रकाश पर्व, सिक्ख पन्थ और अयोध्या 

सनातन धर्म एक ऐसा निरभ्र नीलाकाश है, जिसके अंक में मानवीय सभ्यता का मार्तण्ड उदित हुआ है। सनातन धर्म के प्रकाश में ही ज्ञान-विज्ञान के चिन्तन की सुदृढ़ परम्परा विकसित हुई है। ईश्वरोपासना का मूल स्रोत सनातन धर्म ही है। उपासना और भक्ति के मौलिक सूत्रों का प्रणयन सनातन-समुद्र के तट पर ही हुआ है। भक्ति के इन्हीं मौलिक सूत्रों के भाष्य से उपासना की अनेक पद्धतियों का जन्म हुआ है, जिन्हें कालान्तर में एक विशेष मत अथवा पन्थ कहा जाने लगा। वस्तुतः जैन, बौद्ध एवं सिक्ख इन्हीं उपासना-पद्धतियों के ही पृथक् पृथक् नाम हैं। जिस तरह जैन एवं बौद्ध मत का अयोध्या से घनिष्ठ सम्बन्ध है, उसी तरह सिक्ख पन्थ का भी अयोध्या से घनिष्ठ एवं भावनात्मक सम्बन्ध है। सिक्ख पन्थ के प्रवर्तक गुरु नानकदेव (1469-1539 ई.) का जन्म अयोध्या के उसी इक्ष्वाकुवंश में हुआ है, जिसके गौरव मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम हैं। सिक्ख इतिहास के अनुसार वेदी और सोढ़ीवंश का उद्भव रघुवंश से ही हुआ है। पुराणेतिहास के अनुसार सम्राट् कुश के केवल एक ही पुत्र थे, जिनका नाम अतिथि था, किन्तु अप्रतिम योद्धा और सिक्ख पन्थ के दसवें गुरु गोविन्द सिंह (1666-1708 ई.) ने लिखा है कि कुश के पुत्र कालकेतु ‘कसूर’ के और लव के पुत्र कालराय लाहौर के राजा हुए-
सिय सुत बहुरि भये दुइ राजा। राज-पाट उनही कउ छाजा।।
मद्र देस एस्वरज बरी जब। भाँति भाँति के जग्य कीये तब।।
तही तिनै बाँधे दुइ पुरवा। एक कसूर दुतीय लहुरवा।।
अधव पुरी ते दोऊ बिराजी। निरखि लंक अमरावति लाजी।।बहुत काल तिन राज कमायो। जाल काल ते अन्त फसायो।।
तिन ते पुत्र-पौत्र जे वये। राज करत इह जग को भये।।
कहाँ लगे ते बरन सुनाऊँ। तिन ते नाम न संखिया पाऊँ।।
होत चहूँ जुग मैं जे आये। तिन के नाम न जात गिनाये।।
जो अब तौ किरपा बल पाऊँ। नाम जथामत भाख सुनाऊँ।।
कालकेत अरु कालराइ भन। जिन ते भये पुत्र घर अनगन।।[1]
कालकेतु के वंशज काशी में वेदाध्ययन करने गये, जिससे उनका वंश वेदी नाम से प्रसिद्ध हुआ-
जिनै बे पट्ठिओ सु बेदी कहाये। तिनै धरम के करम नीके चलाये।।
पठे कागदे मद्र राजा सुधारं। अपो आप मो बैर भावं बिसारं।।[2]
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लवी राज दे बन गये, बदिअन कीनो राज।
भाँति भाँति तिनि भोगीयं, भूअ का सकल समाज।।[3]
कालराय के पुत्र सोढ़ीराय हुए, जिनसे सोढ़ी वंश विख्यात हुआ-
तिहि ते पुत्र भयो जो धामा। सोढ़ीराइ धरा तिहि नामा।।
बंस सनौढ़ ता दिन ते थीआ। परम पवित्र पुरुख जू कीआ।।[4]
वस्तुतः राजमहिषी कुमुद्वती से विवाह करने के पूूर्व सम्राट् कुश के अनेक विवाह हो चुके थे, जिसका संंकेत महाकवि कालिदास ने सरयू-जल-क्रीडा के अन्तर्गत किया है।[5] पुराणों में केवल अयोध्या के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए ज्येष्ठ पुत्रों का ही उल्लेख है। छोटे पुत्रों और अपर रानियों से उत्पन्न हुए पुत्रों का वर्णन पुराणेतिहास में अनुपलब्ध है। निश्चय ही गुरु गोविन्द सिंह ने सम्राट् कुश और श्रावस्ती-नरेश लव के जिन पुत्रों को ‘कसूर’ और ‘लाहौर’ का शासक एवं वेदी और सोढ़ी वंश का प्रवर्तक कहा है, वे कुश और लव की अपर रानियों के पुत्र हैं, जिनके वंशजों ने कालान्तर में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए त्याग-बलिदान के अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किये।
सम्राट् कुश की अपर रानी से उत्पन्न हुए कालकेतु के वंशजों को कालान्तर में वेदाध्ययन करने के कारण वेदी संज्ञाभिहित किया गया। उसी वेदीवंश में गुरु नानकदेव का जन्म हुआ। इस सन्दर्भ में गुरु गोविन्द सिंह ने लिखा है-
तिन बेदियन के कुल बिखे, प्रगटे नानक राइ।
सभ सिक्खन को सुख दये, जह तह भये सहाइ।।[6]
स्वयं गुरु नानकदेव ने भी मक्का में हुए शास्त्रार्थ में विजयी होने के पश्चात् मदीना में पीर बहावुद्दीन को अपना परिचय देते कहा है-
सूरज कुल ते रघु भइया, रघुवंस होआ राम।
रामचन्द्र के दोइ पुत, लवी कुसू तिही नाम।।
एह हमारे बड़े हैं, जुगह जुगह अवतार।
इनही के घर उपजे, नानक कल अवतार।।
आद अन्त हम ही भये, दूजा आप खुदाइ।
होरु न कोई दूसरा, नानक सचू अलाइ।।[7]
अर्थात् सूर्यकुल में सम्राट् रघु हुए। रघुवंश में राम हुए। रामचन्द्र के दो पुत्र थे। कुश और लव उनके नाम थे। वे राम हमारे कुल के पूर्वज हैं, जो युग युग में अवतार धारण करते रहे हैं। इन्हीं के घर (वंश) मैं नानक कलि-काल में अवतरित हुआ हूँ। आदि से अन्त तक एक तो हम ही हुए हैं और दूसरा स्वयं परमेश्वर। हमसे अन्य कोई दूसरा नहीं है, नानक सच कहता है।
वस्तुतः रघुवंश से निःसृत हुए वेदीवंश में गुरु नानकदेव का प्राकट्य सनातन धर्म की रक्षा के लिए ही हुआ। जब जब सनातन धर्म संकटापन्न हुआ है, तब तब श्रीहरि विष्णु धरती पर अवतरित हुए हैं। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब मैं अपने रूप को रचता हूँ, अर्थात् प्रकट होता हूँ। साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करनेवालों का विनाश करने के लिए, धर्म की स्थापना करने के लिए मैं प्रत्येक युग में प्रकट होता हूँ-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।[8]
इसी बात को और अधिक सरल शब्दों में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।[9]
सनातन धर्म की हानि होने पर भगवान् श्रीहरि विष्णु विविध रूप धारण कर अवतरित होते हैं। भगवान् के अवतारों की संख्या निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सकती। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में विष्णु के अनेक अवतारों के सन्दर्भ में कहा गया है-
प्रादुर्भावसहस्राणि समतीतान्यनेकशः।।
भूयश्चैव भविष्यन्ति नात्र कार्या विचारणा।
वैवस्वतेऽस्मिन्देवेश यथा मन्वन्तरे शुभे।।
प्रादुर्भावानि दृष्टानि मया तस्य महात्मनः।
वराहं वामनं चैव तथा शक्र त्रिविक्रमम्।।
नारसिंहं तथा मात्स्यं कूर्मं हंसं तथैव च।
नृवराहं तथा रामं रामं च सुरसत्तम।।
मान्धातारं पृथुं चैव कार्तवीर्यार्जुन तथा।
धातारं च तथा मित्रं चांशुमर्यमणं तथा।।
पूषणं च भवन्तं च वरुणं भगमेव च।
त्वष्टारं च विवस्वन्तं सवितारं तथैव च।।
विष्णुं चन्द्रमासं रुद्रं ब्रह्माणं यममेव च।
हुताशनं वैश्रवणं शेषं नागेश्वरं तथा।।
ग्रहमुख्यं बुधं चैव अपः खं पृथिवीं तथा।
वायुस्येजश्च देवेश तथैवान्यानि वासव।।
प्रादुर्भावसहस्राणि तस्य दृष्टानि यानि ते।
मन्वन्तरेष्वतीतेषु तस्यातीतान्यनेकशः।।
भविष्यन्ति भावेष्येषु शतशोऽथ सहस्रशः।
मन्वन्तर मथासाद्य चैकमेकं तथा तव।।[10]
अर्थात् हज़ारों प्रादुर्भाव अतीतकाल में हो गये हैं और आगे भी होंगे। इस वैवस्वत मन्वन्तर में देवेश के जो प्रादुर्भाव मुझे दीख रहे हैं,  वे वराह, वामन, त्रिविक्रम, नरसिंह, मत्स्य, कूर्म, हंस, नृवराह, परशुराम, राम, मान्धाता, पृथु, कार्तवीर्यार्जुन, धातार, अंशुमर्यगण पूषण, वरुण, भग, त्वष्टा, विवस्वन्त, सविता, विष्णु, चन्द्र, रुद्र, ब्रह्मा, यम, अग्नि, वैश्रवण, शेषनाग, ग्रहमुख्य, बुध, जल, आकाश, पृथ्वी, वायु, अग्नि और अन्य हज़ारों का प्रादुर्भाव होगा। विगत मन्वन्तरों में अनेक प्रादुर्भाव हो चुके हैं। भविष्य में भी सैकड़ों-हज़ारों प्रादुर्भाव होंगे। एक मन्वन्तर में जितना प्रादुर्भाव होता है, उसका दुगुना-दुगुना प्रादुर्भाव चक्री वासुदेव का होता है।
पद्मश्री नन्दकुमार अवस्थी ने तत्कालीन परिस्थितियों और गुरु नानकदेव के दिव्योदय के सम्बन्ध में लिखा है- ‘पन्द्रहवीं शताब्दी की बात है, जब भारत एक ओर तो विदेशी आक्रान्ताओं के दमन से त्रस्त था, तो दूसरी ओर उसकी सामाजिक व्यवस्था दम तोड़ रही थी। रूढ़िवाद, जातिवाद, ऊँच-नीच का भेद, धर्म में नाना प्रकार की मान्यताएँ, पाखण्ड, स्वार्थ, स्पर्धा, ईर्ष्या में डूबा हुआ भारतीय समाज विघटन के कगार पर खड़ा था। ऐसी तमाच्छन्न दशा में गुरु नानकदेव जी महाराज का दिव्य उदय हुआ। उन्होंने क्षेत्र, भाषा, नाना धर्म एवं मान्यताएँ, वर्ण, जाति, सबको एक सूत्र में बँधने और सदाचार तथा परमेश्वर में अटूट श्रद्धा प्राप्त करने का मन्त्र फूँका। देश-विदेश का पर्यटन कर समस्त भारतीय परिवार को ज्ञान की ज्योति प्रदान की।'[11] नन्दकुमार अवस्थी ने गुुुरु नानकदेव के जिस दिव्योदय की ओर संकेत किया है, उसका सम्बन्ध निश्चय ही पुराणेतिहास में वर्णित अवतार की अवधारणा से ही है। भगवान् विष्णु समय समय पर धर्मसंस्थापनार्थ अवतरित होते रहते हैं। गुरु नानकदेव का अवतार भी धर्म की स्थापना के लिए ही हुआ है। भविष्यपुराण में गुरु नानकदेव के अवतारण का स्पष्ट वर्णन है-
मार्गपालस्य तनयो नानको नाम विश्रुतः।।
रामानन्दं समागम्य शिष्यो भूत्वा स नानकः।
स वै म्लेच्छान्वशीकृत्य सूक्ष्ममार्गमदर्शयत्।।[12]
अर्थात् मार्गपाल के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुए नानकदेव ने रामानन्द के शिष्य होकर म्लेच्छों (यवनों) को अपने अधीन कर उन्हें सूक्ष्म मार्ग का दिग्दर्शन कराया। श्रीआदिग्रन्थ में सम्मिलित भट्टकवि कल के सवैयों में स्पष्ट लिखा है कि एक ही विष्णु (सर्वव्यापी ईश्वर) ने कृत, त्रेता, द्वापर और कलयुग में क्रमशः वामन, राम, कृष्ण और नानक के रूप में अवतार धारण किया था।
गुरु नानकदेव के जन्म के समय तक मुसलमानों का आतंक भारतवर्ष में व्याप्त हो चुका था। मुहम्मद और उनके अनुयायियों का काल कब और कैसा था, इस पर विचार करते हुए कवि वीरसिंह बल ने लिखा है-
दुवापुरु चड़ि बीतियो जब सारा। प्रिथम चरणु कलजुग तब धारा।।
चार सहंस बरख जब गइयो। महाँदीनु उतपत तब भइयो।।
अरब देस को भइयो सु राजा। पन्थु मलेछु तबै तिन साजा।।
भूअ मण्डल इकु अरब विलाइत। महाँदीनु तिह भइयो सहाइत।।
प्रिथम करी लोगन की रच्छा। बहुर दई ता कौ इह सिच्छा।।
नखसिख मूँछ लिंग कतरावो। तुम सब दीन हमारे आवो।।
नाँतर पाहु तुमैं दुख भारी। कछुक ताह करामात दिखारी।।
भै कर लोग दीन तिह भये। निज कुल धरम करम तज दये।।
सीस मूँछ मुड़ लिंग कटाये। निज कुल धरम सबै बिसराये।।
गाइत्री सँधिया तियागी दोऊ। जग्गु होंमु जपु करे न कोऊ।।
देंहि बाँग चढ़ ऊँच मुनारे। पसु पंखी हन करें अहारे।।
पन्थु मलेछु भइयो वहु देसा। तुरुक भये नर-नार नरेसा।।[13]
अर्थात् जब द्वापरयुग बीत गया और कलयुग का प्रथम चरण आ पहुँचा तो इस कलयुग की चौथी सहस्राब्दी में मुहम्मद उत्पन्न हुआ। कालान्तर में वह अरब देश का शासक बन बैठा। तब उसने म्लेच्छ पन्थ की स्थापना की। भूमण्डल में अरब नाम का एक दूरस्थ देश है, मुहम्मद वहाँ का आश्रयदाता बना। पहले पहल उसने अरबवासियों की रक्षा की और फिर उन्हें यह शिक्षा दी कि अपने सिर के बाल और मूँछें कतरवाकर तुम सब मेरे द्वारा आविष्कृत दीन में चले आओ, नहीं तो तुम लोगों को बड़ा भारी दुःख उठाना पड़ेगा। यह कहकर मुहम्मद ने उन्हें कुछ एक करामात भी दिखायी। इस भय से अरबवासी उसके दीनवाले हो गये। (इन्हीं मुहम्मद के चार यार भी थे)। नवीन दीन धारण करनेवाले अरबवासियों ने अपने पारम्परिक कुल-धर्म और कर्म त्याग दिये। सिर के बाल और मूँछ मूँड़वा डाले और सुन्नत करवा ली। अपने सारे कुल-धर्म को भुला दिया। दोनों सन्ध्याएँ गायत्री-पाठ सहित त्याग दीं। उनमें से कोई भी यज्ञ-होम और जप करनेवाला नहीं रहा। अब वे मीनार के ऊपर चढ़कर अज़ान देने लगे और पशु-पक्षियों का हनन करके उनका आहार करने लगे। इस प्रकार वह अरब देश म्लेच्छ पन्थवाला हो गया और वहाँ के नर-नारी और नरेश सभी तुर्क बन गये।
गुरु गोविन्द सिंह ने भी लिखा है-
महादीन तब प्रभ उपराजा। अरब देस को कीनो राजा।।
तिन भी एक पन्थ उपराजा। लिंग बिने कीने सब राजा।।
सब ते अपना नामु जपायो। सति नामु काहूँ न द्रिड़ायो।।[14]
अर्थात् तब प्रभु ने मुहम्मद को उत्पन्न किया। उसे अरब देश का शासक बना दिया। उसने भी अपना एक पन्थ उपजाया। अरब देश के सब राजाओं (प्रमुख प्रमुख लोगों) की सुन्नत कर दी। सारे अरबवासियों से अपना नाम जपवाया। सत्य नाम को किसी के द्वारा दृढ़ नही करवाया।
भविष्यपुराण में स्वयं मुहम्मद ने अपने विषय में कहा है-
लिङ्गच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी स दूषकः।
उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनो मम।।
बिना कौलं च पशवस्तेषां भक्ष्या मता मम।
मुसलेनैव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति।।
तस्मान्मुसलवन्तो हि जायतो धर्मदूषकाः।
इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः।।[15]
अर्थात् लिंग काटने, शिखा (चोटी) हीन होकर केवल दाढ़ी रखने और बड़ी बड़ी बातें करनेवाले सर्वभक्षी ही मेरे वर्ग के लोग होंगे। कौलतन्त्र के बिना ही वे पशुओं के भक्षण करेंगे। कुश के स्थान पर मूसल द्वारा उनके सभी संस्कार होंगे, इसलिए मुसलमान जाति धर्मदूषक कही जायेगी। इस प्रकार का पैशाच धर्म मैं विस्तृत करूँगा।
भविष्यपुराण में मुहम्मद ने जिस पैशाच धर्म को विस्तृत करने का संकल्प लिया था, वह पैशाच धर्म मुहम्मद-पन्थियों के धर्मान्ध कन्धे पर सवार होकर भारत पहुँचा, जिसका वर्णन करते हुए कवि वीरसिंह बल लिखते हैं-
भूतल मो इकु नाँमु महाँमदु सेखु कहाये।
पन्थु सजियो अपने मत को, मतु बेद छड़ाइ कुमारग लाये।
लिंग कटो मुँछ मुण्डत कै, सिर केस बिदार मलेछ बनाये।।
अटक पार के भूपत जेते। उसी पन्थ मिल गये सु तेते।।
बहुर हिन्द पर करी चढ़ाई। सक्क्रप्रस्थगढ़ु लइयो छड़ाई।।
राज कीओ बहि तखत उदारे। जीत लीये सब ही रजवारे।।
कीओ सरब बस हिन्दसतानाँ। लगे करन खल ज़ोर धिगानाँ।।
जन्नूँ तोर तिलक चट जाँही। गऊ ग़रीब के प्राँन हताँही।।
कई किसाँन पवर कर लाँवहि। मिले न नियाँव निरास उठ जाँवहि।।
एक कबर ते दमरा पाइयो। मढ़ी गोर तब सरब पताइयो।।
दुरगा देव देवल सिव पूजा। सब गिराइ डारियो डरु दूजा।।
बहु प्रकार प्रिथवी दुख दीने।[16]
अर्थात् भूतल पर मुहम्मद नाम का जो एक शेख कहलाया उसने अपने मत का पन्थ सृज लिया और अरबवासियों से वेदमत को छुड़वा कर कुमार्ग (वेदों के विपरीत मार्ग) पर चला दिया। पहले उनकी सुन्नत करवायी, फिर मूँछ मुँड़वाकर और सिर के बालों को कटवाकर उन सबको म्लेच्छ बना दिया। फिर कुछ काल के बीत जाने पर अटक पार के जितने भी भूपति थे, वे सभी म्लेच्छ-पन्थ में जाकर मिल गये। फिर म्लेच्छ-पन्थ के अनुयायियों ने भारतवर्ष पर चढ़ाई की और शक्रप्रस्थ (इन्द्रप्रस्थ = दिल्ली) को भारत के राजाओं से छीन लिया। सिंहासन पर बैठकर प्रजानाशक राज्य किया। सारे रजवाड़े जीत लिये। सारे भारतवर्ष को अपने वश में कर लिया और निर्दयतापूर्वक धींगा-मुश्ती करने लगे। मुहम्मद के अनुयायी शासक यज्ञोपवीत तोड़कर तिलक चाट जाते हैं और गौ तथा ग़रीब के प्राण ले लेते हैं। उनके दरबार में किसान विलाप करते, किन्तु न्याय न मिल पाने के कारण निराश होकर घर को चले जाते हैं। कारूँ इत्यादि राजाओं ने जितने ख़ज़ाने जोड़े थे, उतने ही इन्होंने भी प्रजा को लूटकर भर लिये। किसी क़बर पर अपनी ओर से कुछ पैसे चढ़ा दिये और इस बहाने से मढ़ी और क़बर की पूजा करवा सब हिन्दुओं को अपने दीन का अनुयायी बनाने के लिए बहकाया। देवी दुर्गा, शिव आदि देवों के सभी पूजास्थलों को गिरवाकर दूसरे ही डेरे डाल दिये। इस प्रकार मुहम्मद के अनुयायियों ने भारतवासियों को बहुत दुःख दिये।
मुहम्मद-पन्थियों के अत्याचार से त्रस्त सनातनधर्म की रक्षा करने के लिए इक्ष्वाकुवंश के 71वें शासक सम्राट् कुश के वंश में तत्कालीन बृहत्तर पंजाब में विक्रमाब्द 1526 (1469 ई.) की कार्तिक पूर्णिमा के शुभ मुहूर्त में गुरु नानकदेव का जन्म हुआ। चतुर्थ गुरु श्री रामदास (1534-1581 ई.) के पौत्र एवं पंचम गुरु श्री अर्जुनदेव (1563-1606 ई.) के भ्रातृज और शिष्य सोढ़ी मनोहरदास मेहरबान (1580-1640 ई.) ने 1612 ई. में रचित अपनी पुस्तक ‘सचखण्ड पोथी’ में लिखा है कि तत्कालीन पंजाब प्रान्त के सुल्तानपुर (तामसवण) नगर में अवस्थित नवाब दौलत ख़ां लोदी के मोदीख़ाना में मोदी के रूप में कार्यरत श्री नानकदेव को वेईं नदी में स्नान करते समय भाद्रपद मास की पूर्णिमा के दिन परमेश्वर के दर्शन से वैराग्य हो गया।[17] उस समय गुरु नानकदेव की अवस्था साढ़े बत्तीस वर्ष की थी। इस प्रकार विक्रमाब्द 1559 (1502 ई.) में नानकदेव विरक्त हो गये।
गुरु नानकदेव वैराग्योपरान्य मुहम्मद-पन्थियों के द्वारा भ्रष्ट किये गये सनातन-तीर्थों की पुनः प्रतिष्ठा करने के लिए तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। गुरु नानकदेव की तीर्थयात्रा का वर्णन करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार ज्ञानी ज्ञान सिंह (1822-1921 ई.) नेे अपनी पुस्तक ‘तवारीख़ गुरु ख़ालसा’ के पृष्ठ 75 पर बताया है कि श्री गुरु नानकदेव अपने भक्त मरदाना को साथ लेकर कुरुक्षेत्र से करनाल होते हुए विक्रमी संवत् 1558 (1501 ई.) को कुम्भ मेले के अवसर पर गंगा जी हरिद्वार पहुँचे। पृष्ठ 76 के अनुसार श्रीगुरु जी हरिद्वार से नजीबाबाद-अनूपशहर होते हुए मजनूँ का टीला (दिल्ली) पहुँचे। पृष्ठ 78 पर दिये वृत्तान्त के अनुसार गुरु नानकदेव दिल्ली से चलकर कोइल, मथुरा, वृन्दावन, आगरा, अटाए, कानपुर, लखनऊ, अयोध्या, प्रयाग, मिर्ज़ापुर आदि अनेक स्थलों की यात्रा करते हुए काशी जा विराजे।
अयोध्या और सिक्ख पन्थ के सन्दर्भ में ऐतिह्यविद् श्री राजेन्द्र सिंह लिखते हैं- ‘सिक्ख इतिहास के मौलिक स्रोत बताते हैं कि मुस्लिम आक्रान्ताओं और शासकों ने भारतवर्ष में मन्दिरों को तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनाने का काम बड़े व्यापक स्तर पर किया। तोड़े गये मन्दिरों में श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर भी था, जो उन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का स्मृति-स्थल था, जिनके वंश में श्रीगुरु नानकदेव, श्रीगुरु तेगबहादुर और श्रीगुरु गोविन्द सिंह ने जन्म लिया था। सिक्ख साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इन तीनों श्रद्धेय गुरुओं ने अपने काल में श्रीरामजन्मभूमि की तीर्थयात्रा की थी। अयोध्या-स्थित श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर के दर्शन के अतिरिक्त अनेक तीर्थस्थालों पर भी तीनों गुरु गये और इन तीर्थयात्राओं में उन्होंने मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा गिराये गये बहुत से मन्दिरों के भग्नावशेषों को स्वयं अपनी आँखों से देखा। इससे उन्हें मुस्लिम आक्रान्ताओं के व्यापक मज़हबी उन्माद का पता चला, जिसने भारतवर्ष की सांस्कृतिक चेतना और समृद्धि को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।'[18]
सिक्खेतिहास के आधारग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि गुरु नानकदेव ने अपने प्रथम तीर्थयात्रा-काल (चैत्र 1564 – फाल्गुन 1566 वि. सं.) में अयोध्या के श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर के दर्शन किये थे। भाई शम्भुनाथ कृत ‘आदि साखीआं : जनमपत्री बाबे नानक जी की’ (1758 वि. सं.) एवं ‘पुरातन जनमसाखी श्रीगुरु नानकदेव जी की’ (1791 वि. सं.) में लिखा है कि ‘गुरु नानकदेव जी गंगा-गोदावरी गये। प्रयाग, वाराणसी, गोमती, अयोध्या, द्वारका, जगन्नाथ, उड़ीसा इत्यादि अड़सठ तीर्थों के दर्शन किये और सबका फल प्राप्त किया, वहाँ स्नान किया और सब धरती देखी।'[19]
सुल्तानपुर में दो वर्ष तक उग्र तप करने, गुरु-रूप में प्रतिष्ठित होने के पश्चात् तीर्थाटन के शुभ संकल्प के साथ गुरु नानकदेव समाणा, कौरा, पिहोवा, कुरुक्षेत्र, पानीपत और दिल्ली होते हुए विक्रमाब्द 1564 (1507 ई.) के वैशाखी पर्व के शुभावसर पर हरिद्वार पहुँचे। हरिद्वार में कुछ दिवस व्यतीत करने के उपरान्त वहाँ से पौड़ी, केदारनाथ, बदरीनाथ, जोशीमठ, लिपूलेख दर्रा, दुर्गापीपल (रीठा साहिब), गोरखमता (नानकमता), टाण्डा और पीलीभीत से होकर नानकदेव जी अपने सहयात्री भाई मरदाना के साथ गोला पहुँचे। गुरु नानकदेव के कनिष्ठ पुत्र बाबा लक्ष्मीचन्द्र (1497-1555 ई.) की आठवीं पीढ़ी के वंशज बाबा सुखवासीराम वेदी कृत ‘गुरु नानक वंशप्रकाश’ (1886 विक्रमी) में गुरु नानकदेव का नैमिषारण्य से होते हुए अयोध्या जाना लिखा हुआ है। अतः इसमें सन्देह नहीं कि गुरु नानकदेव गोला से नैमिषारण्य के मार्ग से अयोध्या पहुँचे थे।
गुरु गोविन्द सिंह के दीवान भाई मनी सिंह (1644-1734 ई.) ने लिखा है- ‘तब बाबा जी अयोध्या को जा पहुँचे और कहा- ‘मरदाना! यह नगरी श्रीरामचन्द्र जी की है। सो चल इनका दर्शन करें। तब बाबा जी नदी पर जा उतरे।'[20] यही बात भाई बाला ने भी अपनी लोकप्रिय जनमसाखी में लिखा है- ‘गुरु जी अयोध्या को गये। श्रीगुरु जी ने कहा- भाई बाला! यह ही नगरी श्रीरामचन्द्र जी की है। यहाँ श्रीरामचन्द्र जी ने अवतार धारण करके लीला-चरित्र किये हैं। सो देख के ही चलें। तब श्रीगुरु जी सरयू नदी के किनारे जा बैठे।'[21] स्वयं गुरु नानकदेव जी के वंशज बाबा सुखवासीराम वेदी लिखते हैं-
आये अवधपुरी विखे सरजू नदि जिह संगि।।
सरजू जल मंजन कीआ, दरसन राम निहार।
आतम रूप अनन्त प्रभ, चले मगन हितु धार।।[22]
अर्थात् वहाँ (नैमिषारण्य) से चले सद्गुरु नानकदेव मरदाना के संग अयोध्यापुरी आ पहुँचे, जहाँ सरयू नदी बहती है। श्रीगुरु जी ने सरयू नदी में स्नान किया और निहारकर भगवान् श्रीराम के दर्शन किये।
बाबा सुखवासीराम वेदी कृत उक्त छन्द के सन्दर्भ में ऐतिह्यविद् श्री राजेन्द्र सिंह लिखते हैं- ‘उपर्युक्त छन्द से भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है कि अयोध्या में ‘श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर’ नामक लीलास्थल में सुप्रतिष्ठित ‘रामललामूर्ति’ के गुरु नानकदेव ने निहारकर अर्थात् एकाग्रचित्त होकर दर्शन किये थे। अर्थात् गुरु नानकदेव की यात्रा के समय अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर निश्चित रूप से विद्यमान था। अतः ‘अयोध्या-विवाद’ में एक पक्षकार ‘सुन्नी सेण्ट्रल बोर्ड ऑफ़ वक्फ़्स, यूपी’ के इस कथन में कोई सार नहीं है कि बाबर ने तो खाली ज़मीन पर मस्जिद बनवायी थी क्योंकि उसके समय में वहाँ ऐसा कोई ‘जन्मभूमि-मन्दिर’ था ही नहीं, जिसे तोड़कर वह उसे मस्जिद का रूप दे देता!!'[23]
जनमसाखियों एवं गुरुवाणियों के अनुशीलन से पता चलता है कि गुरु नानकदेव ने अयोध्या में विक्रमाब्द 1564 के माघ मास से विक्रमाब्द 1565 के ज्येष्ठ मास तक रहकर श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर के समीप ही तपस्या की थी। इस सन्दर्भ में सोढ़ी मनोहरदास मेहरबान ने लिखा है- ‘तब गुरु बाबा नानक पूरब की धरती नगरी अयोध्या में जा बसे।… तब अयोध्या में गुरु बाबा नानक बैठे भक्ति करते थे।… तब बाबा नानक जुहदी (तपस्वी) अयोध्या में बैठे, परली दक्षिण की तरफ एक पंचतीर्थी थी, उसके ऊपर एक मठ था, उस ही में बैठे, नामस्मरण करते थे।'[24]
सोढ़ी मनोहरदास मेहरबान ने यह भी लिखा है कि गुरु नानकदेव ने अपने पाँच महीने के अयोध्या-प्रवास के समय तपश्चर्या के साथ साथ गुरुवाणी की रचना भी की थी। गुरु नानकदेव ने अयोध्या में रचित गुरुवाणी के चतुर्थ सबद (पद) में श्रीरामजन्मभूमि का वर्णन किया है-
ऊचउ थानु सुहावणा ऊपरि महलु मुरारि।
सचु करणी दे पाईऐ दरु घरु महलु पिआरि।
गुरमुखि मनु समझाईऐ आतमुरामु बिचारि।।[25]
गुरु नानकदेव की उपर्युक्त वाणी का परमार्थ समझाते हुए सोढ़ी मनोहरदास मेहरबान लिखते हैं- ‘तब गुरु बाबा नानक जी ने कहा कि भाई राम के लोगों! जहाँ परमेश्वर बसता है, वह ऊँचा (और सुहाना) स्थान है। उस स्थान के ऊपर श्रीराम जी का महल है। उसमें ही श्रीराम जी बसते हैं।'[26] इस सबद की व्याख्या करते हुए स्वयं गुरु नानकदेव ने श्रीराम के परमधाम के साथ ही लौकिक अवतरणधाम (जन्मभूमि) का भी वर्णन कर दिया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि श्रीरामजन्मभूमि-स्थल से उत्तर में सहस्रसार तीर्थ की ओर तथा पूर्व में हनुमानगढ़ी की ओर पड़नेवाले स्थलों का स्तर (level) अपेक्षाकृत बहुत नीचे है। अतः गुरु नानकदेव का यह कथन बिलकुल ठीक है कि जहाँ परमेश्वर (पुरुषोत्तम) बसते हैं वह सुहाना स्थान ऊँचा है। उस ऊँचे और सुहाने (रमणीक) स्थान पर श्रीराम जी का महल (महालय = देवालय) बना हुआ है। उसमें ही (उसके गर्भगृह में ही) श्रीराम जी अपनी दिव्य ‘श्रीरामलला-मूर्ति’ के रूप में विराजमान हैं।
कालान्तर में कश्मीर के महन्त बाबा गुलाब सिंह जी होशियारपुर से होते हुए विक्रमाब्द 1842 (1785 ई.) में अयोध्या पहुँचे। बाबा गुलाब सिंह ने अयोध्या स्थित गुरु नानकदेव की तपस्थली पर ‘श्री निशान साहिब’ की स्थापना की थी। इस पावन तपस्थली के ठीक सामने सड़क के दक्षिण भाग में ‘गुरुद्वारा ब्रह्मकुण्ड साहिब’ बना हुआ है। गुरु नानकदेव की यह ऐतिहासिक तपस्थली श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर के पश्चिम में मात्र 350 गज की दूरी पर अवस्थित है।
अयोध्या से केवल गुरु नानकदेव का ही नहीं, अपितु गुरु तेगबहादुर (1621-1675 ई.) एवं गुरु गोविन्द सिंह का भी घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। गुरु गोविन्द सिंह का जन्म भगवान् श्रीराम के कनिष्ठ पुत्र लव के वंश से निर्गत सोढ़ीवंश में हुआ है। इस तथ्य का उद्घाटन स्वयं गुरु गोविन्द सिंह ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ बचित्र नाटक में किया है। इतिहासकार श्री राजेन्द्र सिंह लिखते हैं- ‘धर्मरक्षक और प्रजापालक राजा श्रीराम के वंशज होने के कारण श्रीरामजन्मभूमि से श्रद्धेय गुरुओं का सीधा सम्बन्ध था। गुरु नानकदेव ने श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर के दर्शन किये, उसके कुछ काल के उपरान्त मुस्लिम आक्रान्ता बाबर ने इस मन्दिर को भूमिसात् कर दिया। फिर वहाँ एक ऐसा ढाँचा बनवा दिया गया, जिसे कालान्तर में मुसलमानों द्वारा ‘बाबरी मस्जिद’ के नाम से पुकारा जाने लगा। अकबर के काल में जन्मभूमि-स्थल पुनः हिन्दुओं के अधिकार में आ गया था। जिस समय गुरु तेगबहादुर और उनके बालक पुत्र गुरु गोविन्द सिंह ने इस जन्मभूमि-स्थल को देखा था, उस समय वह हिन्दू समाज के अधिकार में था। इसके कुछ काल पश्चात् औरंगज़ेब का मज़हबी उन्माद फिर श्रीरामजन्मभूमि को लील गया। जब गुरु गोविन्द सिंह ने इस अप्रिय घटना का समाचार सुना तो उन्होंने एक सशक्त सैनिक संगठन खड़ा करके अपने कुल के गणमान्य पूर्वज श्रीराम के जन्मस्थान को मुक्त कराने के लिए औरंगज़ेब के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया। इस संघर्ष ने क्षात्रधर्म को पुनः सबल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका ही नहीं निभायी, वरन् भारतवासियों में स्वधर्मनिष्ठ सांस्कृतिक चेतना का उन्नयन भी किया।'[27]
गुरु गोविन्द सिंह ने सर्वप्रथम बाल्यावस्था में श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर का दर्शन किया था। भाई कोइर सिंह कलाल कृत ‘गुरु बिलास पातसाही दस’ (1762 ई.) और कवि वीरसिंह बल कृत ‘सिंघसागर’ (1827 ई.) में बालक श्री गोविन्ददास के अयोध्या पधारने का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। भगवान् श्रीराम के प्रति अप्रतिम श्रद्धा के कारण बालक गुरु गोविन्द सिंह अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि के दर्शन करना न भूले। विख्यात कवि-इतिहासकार ज्ञानी ज्ञान सिंह के विद्यागुरु पण्डित तारासिंह नरोत्तम (1822-1891 ई.) ने अपनी पुस्तक ‘श्रीगुरु-तीरथ-संग्रहि’ (1841 ई.) में लिखा है- ‘श्री गोविन्द यहाँ अपने कुल के वृद्धपुरुष (पूर्वज) राम के जन्मस्थान पर आये।'[28] इसी तरह ज्ञानी ज्ञान सिंह अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘तवारीख़ गुरु ख़ालसा’ (1891 ई.) में ‘गुरु गोविन्द सिंह साहिब’ शीर्षक के अन्तर्गत लिखते हैं- ‘गुरु तेगबहादुर ने इनको पंजाब देश…. में बुलाया तो कस्बा सासाराम, छपरा, आरा, जौनपुर, आदि की सैर करते हुए काशी जी (जहाँ अब गुरु का बाग़ मशहूर है) आ ठहरे। पन्द्रह दिन ठहरकर…. यहाँ से मिर्ज़ापुर आदि नगरों को देखते हुए अयोध्या जी वसिष्ठकुण्ड, जो वसिष्ठ जी का घर और होम करने की जगह है, जा ठहरे। फिर सूर्यकुण्ड, हनुमानगढ़ी, रामचन्द्र के मन्दिर, सीता की रसोई आदि स्थान देखे और स्वर्गद्वार, गुप्तारघाट, सरयू के स्नान-दान किये। फिर लखनऊ, चन्दौसी, खुरजे से होते हुए मथुरा, वृन्दावन, गोकुल के सैर किये क्योंकि माता नानकी, गुजरी, मामा पालचन्द, मुंशी साहिबचन्द, दीवान मतिराम आदि इन शहरों को देखना चाहते थे।'[29] सिक्ख पन्थ के आधारग्रन्थों में साथियों सहित श्री गोविन्ददास द्वारा अयोध्या में ‘रामचन्द्र के मन्दिर’ और ‘सीता की रसोई’ के दर्शन करने का स्पष्ट वर्णन है। इससे यह सिद्ध होता है कि ज़हिर उद-दिन मुहम्मद बाबर (1483-1530 ई.) द्वारा श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर के भूमिसात् करवाने के पश्चात् जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (1542-1605 ई.) ने जब विक्रमाब्द 1620 (1563 ई.) में तीर्थयात्रा-कर समाप्त किया, तब यह पावन स्थल पुनः हिन्दू समाज के अधिकार में आ गया था। जब श्रीगुरु गोविन्द सिंह ने सहयात्रियों के साथ विक्रमाब्द 1726 (1669 ई.) में इस पावनभूमि के दर्शन किये, तब तक श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर पुनः बन चुका था। अबुल मुज़फ़्फ़र मुहिउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब आलमगीर (1618-1707 ई.) के द्वारा पुनः श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर तोड़ा गया। जब इस अप्रिय घटना की जानकारी गुरु गोविन्द सिंह को हुई, तब उन्होंने जन्मभूमि को मुक्त कराने हेतु औरंगज़ेब के विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ करके अपने रघुवंशी होने परिचय दिया।
वस्तुतः सिक्ख पन्थ के दश गुरुओं का अयोध्या के सूर्यवंश से रक्त-सम्बन्ध है। सूर्यवंश अथवा रघुवंश से निर्गत हुए वेदी और सोढ़ी कुल में ही दश गुरुओं का प्राकट्य हुआ है। गुरु गोविन्द सिंह ने बचित्र नाटक में लिखा है-
तिन बेदियन के कुल बिखे, प्रगटे नानक राइ।
सभ सिक्खन को सुख दये, जह तह भये सहाइ।।
तिन इह कल मो धरमु चलायो। सभ साधन को राहु बतायो।।
जे ता के मारग महि आये। ते कबहूँ नहिं पाप सँताये।।
जे जे पन्थ तवन के परे। पाप-ताप तिन के प्रभ हरे।।
दूख-भूख कबहूँ न सँताये। जाल-काल के बीच न आये।।
नानक अंगद को तनु धरा। धरम प्रचुरि इह जग मो करा।।
अमरदास पुनि नामु कहायो। जन-दीपक ते दीप जगायो।।
जब बरदानि समै बहु आवा। रामदास तब गुरू कहावा।।तिहि बरदानि पुरातनि दीआ। अमरदासि सुरपुर मगु लीआ।।
श्री नानक अंगदि करि माना। अमरदास अंगद पहिचाना।।
अमरदास रामदास कहायो। साधनि लखा मूड़ि नहिं पायो।।
भिन्न भिन्न सभहूँ करि जाना। एक रूप किनहूँ पहिचाना।।
जिन जाना तिन ही सिध पायी। बिन समझे सिध हाथ न आयी।।
रामदास हरि सो मिल गये। गुरता देत अरजनहि भये।।
जब अरजन प्रभ लोक सिधाये। हरिगोबिन्द तिह ठां बैठाये।।
हरिगोबिन्द प्रभ लोक सिधारे। हरीराइ तिहि ठां बैठारे।।
हरीक्रिसन तिन के सुत बये। तिन ते तेगबहादुर भये।।
तिलक जँञू राखा प्रभ ताका। कीनो बडो कलू महि साका।।
साधनि हेति इती जिनि करी। सीसु दीआ परु सी न उचरी।।
धरम हेत साका जिनि कीआ। सीसु दीआ परु सिररु न दीआ।।
नाटक चेटक कीये कुकाजा। प्रभ लोगन कह आवत लाजा।।
ठीकरि फोरि दिलीसि सिरि, प्रभ पुर किया पयान।
तेगबहादुर सी क्रिआ, करी न किनहूँ आन।।
तेगबहादुर के चलत, भयो जगत को सोक।
है है है सब जग भयो, जै जै जै सुरलोक।।[29]
अयोध्या के सूर्यवंश से रक्त-सम्बन्ध होने के कारण दश गुरुओं ने अयोध्या के श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर को भारत की धार्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना का अक्षय केन्द्र स्वीकार किया। गुुुुरु तेेेगबहादुर एवं गोविन्द सिंह ने श्रीरामजन्मभूमि-मन्दिर की स्वतन्त्रता के लिए न केवल सर्वस्व समर्पण का सन्देश दिया, अपितु प्राणप्रण के साथ मुग़ल बादशाहों से युद्ध भी किया। निश्चय ही अयोध्या और सिक्ख पन्थ भावनात्मक रूप से अनन्य हैं।
सन्दर्भ
1. गुरु गोविन्द सिंह : बचित्र नाटक सटिक : टीकाकार – ज्ञानी नरैण सिंघ : प्रकाशक – भाई चतर सिंघ जीवन सिंघ, बाजार माई सेवां, अमृतसर, चतुर्थ संस्करण 2007 ई., 2/23-27, पृ. 59-60
2. गुरु गोविन्द सिंह : बचित्र नाटक सटिक 4/1, पृ. 83-84
3. गुरु गोविन्द सिंह : बचित्र नाटक सटिक 4/8, पृ. 86
4. गुरु गोविन्द सिंह : बचित्र नाटक सटिक 2/29, पृ. 61
5. महाकवि कालिदास : रघुवंश 16/55-71
6. गुरु गोविन्द सिंह : बचित्र नाटक सटीक 5/4, पृ. 89
7. मक्के मदीने दी गोसटि (1785 वि. सं.) : सम्पादक – डाॅ. कुलवन्त सिंह : पंजाबी युनिवर्सिटी, पटियाला, संस्करण 1988 ई., पृ. 253
8. श्रीमद्भगवद्गीता 4/7-8
9. गोस्वामी तुलसीदास : श्रीरामचरितमानस 1/120/3-4
10. विष्णुधर्मोत्तरपुराण 1/190/16-25
11. पद्मश्री नन्दकुमार अवस्थी : श्री दसम ग्रन्थ साहिब (पहली सैची) : भुवनवाणी ट्रस्ट, लखनऊ, द्वितीय संस्करण 1990 ई., पृ. 14
11. भविष्यपुराण 2/2/4/17/86-87
12. कवि वीरसिंह बल : गुरकीरत प्रकाश 1/22-23, 55-59 : सम्पादक डाॅ. गुरबचन सिंह : पंजाबी युनिवर्सिटी, पटियाला, संस्करण 1986 ई., पृ. 49, 52
13. गुरु गोविन्द सिंह : बचित्र नाटक सटीक 7/26-27, पृ. 106-107
14. भविष्यपुराण 2/2/3/3/25-28
15. कवि वीरसिंह बल : गुरकीरत प्रकाश 1/47, 60-64
16. मनोहरदास मेहरबान : सचखण्ड पोथी : जनमसाखी श्री गुरु नानकदेव (1612 ई.) : सम्पादक – कृपाल सिंह शमशेर सिंह अशोक : खालसा काॅलेज अमृतसर, संस्करण 1962 ई., पृ. 89
17. राजेन्द्र सिंह : सिक्ख इतिहास में श्रीरामजन्मभूमि, पृ. 1
18. (क) भाई शम्भुनाथ : आदि साखीआं (1758 वि. सं.) : सम्पादक – डॉ. प्यार सिंह : लाहौर बुक शाॅप, लुधियाना, तृतीय संस्करण 1983 ई., पृ. 165, 168
(ख) शमशेर सिंह अशोक : पुरातन जनमसाखी श्रीगुरु नानकदेव जी की : शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धन कमेटी, अमृतसर, संस्करण 1969 ई., पृ. 64
19. भाई मनी सिंह : पोथी जनमसाखी (1787 वि. सं.) : चिरागुद्दीन सिराजुद्दीन मुस्तफाई छापाखाना, लाहौर, संस्करण 1890 ई., पृ. 213
20. भाई बाला : जनमसाखी : सम्पादक – ज्ञानी महिन्दर सिंह, संस्करण 1883 ई., पृ. 261
21. बाबा सुखवासीराम वेदी : गुरु नानक वंशप्रकाश (1829 ई.) : सम्पादक – डॉ. गुरमुख सिंह : पंजाबी युनिवर्सिटी, पटियाला, संस्करण 1986 ई., छन्द संख्या 1000-1001
22. राजेन्द्र सिंह : श्री गुरु नानक ने भी देखी थी श्रीरामजन्मभूमि : दी कोर (अयोध्या-विशेषांक), वर्ष 1, अंक 1, अगस्त 2016 ई., पृ. 20
23. सोढ़ी मनोहरदास मेहरबान : सचखण्ड पोथी : जनमसाखी श्री गुरु नानकदेव जी : सम्पादक – पाल सिंह एवं शमशेर सिंह अशोक : ख़ालसा काॅलेज, अमृतसर, संस्करण 1962 ई., पृ. 186-187, 190
24. श्री आदिग्रन्थ, सिरीरागु महला 1, पृ. 18
25. सोढ़ी मनोहरदास मेहरबान : उपर्युक्त, पृ. 196
26. राजेन्द्र सिंह : सिक्ख इतिहास में श्रीरामजन्मभूमि, पृ. 1-2
27. पण्डित तारासिंह नरोत्तम : श्रीगुरु-तीरथ-संग्रहि : श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा, कनखल, द्वितीय संस्करण 1975 ई., पृ. 130
28. ज्ञानी ज्ञान सिंह : तवारीख़ गुरु ख़ालसा, भाग 1, गुरु गोविन्द सिंह प्रेस, सियालकोट, संस्करण 1891 ई., पृ. 283-284
29. गुरु गोविन्द सिंह : बचित्र नाटक सटीक 5/4-16, पृ. 89-95
यह शोध-आलेख मेरी पुस्तक श्रीराम की अयोध्या के चतुर्थ खण्ड ‘धर्मचक्रा अयोध्या’ का तृतीय अध्याय (पृ. 399-414) है।
– डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’

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