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‘कंतारा’ की जड़ों को भूलता आधुनिक भारत!

‘कंतारा’ की जड़ों को भूलता आधुनिक भारत!

by हिंदी विवेक
in फिल्म, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
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आखिर #netflix पर ‘कंतारा’ फिल्म मैंने देख ली। ‘कंतारा’ का अर्थ है प्रकृति व मनुष्य के बीच का विज्ञान! इसका शाब्दिक अर्थ है जंगल का रहस्य, जंगल के देवता अदि परंतु इसका भावार्थ है जीवन का विज्ञान।

फिल्म तो क्या यह एक जड़ों की ओर लौटाती धारा है, जो आज की पीढ़ी के लिए लुप्त हो चुकी है। इस फिल्म के लेखक, निर्देशक और अभिनेता के रूप में ऋषभ शेट्टी ने इतिहास रच दिया है। ऋषभ का वह आखिरी 15 मिनट का अभिनय रोंगटे खड़े कर देता है। ऐसा जीवंत अभिनय हाल के समय में तो मैंने किसी अभिनेता या अभिनेत्री का नहीं देखा!

आज की पीढ़ी संभवतः इसे केवल एक फिल्म माने, परंतु पुरानी पीढ़ी जानती है कि कुल देवता(गृह देवता) और ग्राम देवता का जीवन पर कितना प्रभाव पड़ता है। देवता का आशीर्वाद भी मिलता है और प्रकोप भी।

मेरे मम्मी-पिताजी हमारे पास दिल्ली बहुत दिन नहीं रह पाते कि गांव के घर में गोसाईं (गृह देवता) बाबा की पूजा अधिक समय तक बाधित न हो।

मेरे गांव के देवता ब्रहम बाबा कहे जाते हैं। माना जाता है कि वही हमारे गांव की रक्षा करते हैं। आप ने कंतारा में मनुष्य के शरीर पर देवता को जो उतरते देखा, वह मैं बचपन में साक्षात देख चुका हूं। मेरे ननिहाल में भी कंतारा की तरह ही उत्सव होता था। मेरी नानी मुझे वहां दिखलाने ले गई थी। मैं जबरदस्त रूप से डर गया था।

मनरिया (एक नाचने-गाने वाला समुदाय) आज भी गांव में आते हैं। कहते हैं उनके शरीर पर ‘भुइंया बाबा'(देवता) खेलाते हैं। पूरी पूरी रात यह उत्सव चलता है। लोगों की मान्यता होती है कि ग्राम देवता हमारे गांव की रक्षा करते हैं।

मानवशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने इसे ‘टैबू’ नाम दिया है। यह भारत के हर गांव की कहानी है।

लेकिन आधुनिकता के चक्कर में लोग अपनी जड़ों से कटते चले गये, ‘अधगल गगरी, छलकत जाए’ कहावत को चरितार्थ करते हुए इसे अंधविश्वास कहना और मानना आरंभ कर दिया। लोगों के घर-गांव छूट गये और लोग एकल परिवार की विसंगतियों के ऐसे शिकार हुए कि ‘मदर डे’, ‘फादर डे’ के रूप में पश्चिमी कुसंस्कारों को अपना लिया।

पश्चिम के एक विद्वान हुए थे रुडोल्फ। उन्होंने अमेजन के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों के साथ लंबा समय व्यतीत किया था। उनका अध्ययन ग्राम देवता, जादू-टोना आदि के प्रभाव व चमत्कार को लेकर ही है। आंखों से इनके प्रभाव को देखकर वह मानने के लिए बाध्य हो गये थे कि इनमें कितनी शक्तियां होती हैं।

अभी हाल में मिशिगन यूनिवर्सिटी के समाजशास्त्र के प्रोफेसर डॉ एरिक गेडेस भारत आए थे। उन्होंने जो कहा, वह बेहद महत्वपूर्ण है। उन्होंने ने कहा, ” मैं कई बार भारत आया हूं और हर बार यहां के लोगों को पश्चिमी देशों की नकल करता देख हैरान रह जाता हूं। मुझे समझ नहीं आता कि अपनी इतनी सुंदर, इतनी महान संस्कृति में क्या कमी नजर आती है उन्हें कि वेस्ट की नकल करने में लगे हैं।”

उन्होंने कहा, “भारतीय पहनावा, यहां का खानपान, जीवनशैली, तीज-त्यौहार सबके पीछे साइंस और मेडिकल लॉजिक है। मैं समझ नहीं पाता हूं कि अपनी प्राचीनतम और महान संस्कृति को छोड़, हमारी नकल से भारतीयों को क्या हासिल हो रहा है?”

उन्होंने आगे कहा, “बल्कि मैं तो कहूंगा कि हिंदुस्तान ने अपना संयुक्त परिवार खोकर बहुत कुछ खोया है। बच्चों के संस्कार, बुजुर्गो की खुशी और नैतिकता भी खोई है। और मेरे देश की नकल कर नशा, लालच और अकेलेपन को अपनाया है।”

कितनी बड़ी बात कही उन्होंने लेकिन पश्चिम के नकल की अंधी दौड़ में शामिल भारतीयों पर शायद ही इसका प्रभाव पड़े! मुझे प्रसन्नता है कि मेरा परिवार आज भी संयुक्त है और मेरी व मेरी अगली पीढ़ी की जड़ें आज भी गांव में गड़ी हैं।

‘कंतारा’ फिल्म में उसी लालच (राजा के वंशज का जमीन कब्जाने का लोभ) और ग्राम की सामूहिक शक्ति के बीच का द्वंद है, जिसमें गांव के देवता उस लालच के विरुद्ध अपने संस्कारों को पकड़े ग्रामीणों के साथ हैं।

यह फिल्म हर अभिभावक अपने बच्चों को दिखाएं और बताए कि भारत की महान संस्कृति में सामूहिकता बोध का जो स्थान रहा है, वह एकल बोध का कभी नहीं रहा।

सामूहिक बोध लड़ना, जीना और जीतना सिखाती है, जबकि एकल बोध अकेलापन, हताशा और टूट कर बिखरना!

– संदीप देव 

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Tags: film industryindian cultureindian festivalsindian traditionskannada filmkantaralogical lifestylemodernizationrishabh shettysandalwoodsouth film industry

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