सामाजिक समरसता के प्रेरक संत रविदास

संत रविदास का जीवन मानव विवेक की पराकाष्ठा का सर्वोत्तम प्रतीक है। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सनातन धर्म के उत्थान तथा भारतीय समाज में उस समय फैली हुई कुरीतियों को खत्म करने में लगा दिया था। उनके शिष्यों में राजपरिवार में जन्मी मीराबाई से लेकर सामान्य जन तक शामिल थे।

संत रविदास भारत के उन महापुरुषों में से एक हैं जिन्होंने अपने वचनों से सारे संसार को मानवता का संदेश दिया। संत शिरोमणि रविदास का जीवन संघर्षों और चुनौतियों  की महागाथा है किंतु इसी संघर्ष के बीच उन्होंने मानवीय गरिमा को समझा और अस्पृश्य कहे जाने वाले समाज को समझाते हए कहा कि, तुम हिंदू जाति के अभिन्न अंग हो। तुम्हें मानवाधिकारों के लिए सतत संघर्षरत रहना चाहिए।’ उदारता और विनम्रता की साक्षात प्रतिमूर्ति संत रविदास की आध्यात्मिक चेतना ‘सबका मंगल ही मंगल’ का उद्घोष करती है। उन्होंने सामाजिक व्यवस्था को विकृत करने वाले छुआछूत, ऊंच-नीच, भेदभाव, अन्याय, शोषण और अनाचार का प्रबल विरोध करते हुए मूल्यहीन परम्पराओं की कटु आलोचना की।

संत रविदास ने अपने दोहों में पारस्परिक सद्भाव और बंधुता का संदेश दिया। उनका एक दोहा है –

कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, बलग, एक न पेखा।

वेद, कतेब, कुरान, पुरानन, सहज एक नहीं देखा।

यह उनकी महिमा का ही परिणाम था कि भक्त मीराबाई , राजा पीपा और राजा नागरमल जैसे लोग भी उनके शिष्य बन गए थे। उनके शिष्य सतगुरु, जगतगुरु आदि सम्बोधन देकर उनका सम्मान करते थे।

संत रविदास का जन्म काशी में माघ पूर्णिमा के दिन संवत 1388 को हुआ था। उनके पिता का नाम राहू तथा माता का नाम करमा था। दोहों में उनकी पत्नी का नाम लोना बताया जा रहा है। उन्होंने साधु संतों की संगति से व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। वे जूते बनाने का काम किया करते थे और यह उनका व्यवसाय था जिसे वे पूरी लगन व मेहनत के साथ किया करते थे। वह हर काम को समय से पूरा करने पर ध्यान देते थे।

संत रविदास बहुत ही परोपकारी तथा दयालु स्वभाव के थे। दूसरों की सहायता करना उनका सहज स्वभाव था। साधु-संतों की सहायता करने में उनको आनंद मिलता था। वे उन्हें निःशुल्क जूते भेंट किया करते थे। उनके व्यवहार के चलते उनके पिता ने उन्हें घर से निकाल दिया। इसके बाद वह अपना समय साधु-संतों के साथ तथा ईश्वर भजन व सत्संग में व्यतीत करने लगे।

उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बंधी उनके गुणों का पता चलता है। उन्होंने ईश्वर भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सभी को परस्पर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भावविभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अति आवश्यक है।

संत रविदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओतप्रोत होती थी। उनकी वाणी का इतना प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गो के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। मीराबाई उनकी भक्ति भावना से बहुत प्रभावित हुई थीं और उनकी शिष्या बन गयी। आज भी उनके उपदेश समाज के कल्याण के लिये महत्वपूर्ण हैं। उनके 40 पद गुरूग्रंथ साहिब में भी मिलते हैं जिनका सम्पादन गुरु अर्जुन देव सिंह ने 16वीं सदी में किया था। संत रविदास महाराज लम्बे समय तक चित्तौड़ के दुर्ग में महाराणा सांगा के गुरु के रूप में रहे और उनके महान व्यक्तित्व के कारण बड़ी संख्या में लोग उनके शिष्य बने। आज भी इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में रविदासी पाये जाते हैं।

उस समय का मुस्लिम सुल्तान सिकंदर लोधी अन्य किसी भी मुस्लिम शासक की तरह भारत के हिंदुओं को मुसलमान बनाने की उघेड़बुन में लगा रहता था। इन सभी आक्रमणकारियों की दृष्टि गाजी उपाधि पर लगी रहती थी। सिकंदर लोधी ने संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिये अपने मुल्लाओं को लगाया। जनश्रुति है कि वो मुल्ला संत रविदास से प्रभावित होकर स्वयं उनके शिष्य बन गये थे और एक तो रामदास नाम रखकर हिंदू हो गया। सिकंदर लोधी अपने षड्यंत्र की यह दुर्गति होने से चिढ़ गया और उसने संत रविदास को बंदी बना लिया। उनके अनुयायियों को हिंदुओं में सदैव से निषिद्ध गो वंश की खाल उतारने और  चमड़ा बनाने के काम में लगाया। इसी दुष्ट ने चंवर वंश के क्षत्रियों  को अपमानित करने के लिये नाम बिगाड़कर चमार सम्बोधित किया। चमार शब्द का पहला प्रयोग यहीं से शुरू हुआ। संत रविदस की कई पंक्तियां लोधी के अत्याचारों का स्पष्ट वर्णन करती हैं।

चंवर वंश के क्षत्रिय संत रविदास के बंदी बनाने का समाचार मिलते ही दिल्ली पर चढ़ दौड़े। सिकंदर लोधी को विवश होकर उन्हें छोड़ना पड़ा। इसका उल्लेख इतिहास की पुस्तकों  में नहीं है, इसे सुनियोजित तरीके से इतिहास की पुस्तकों से गायब कर दिया गया है। मगर संत रविदास जी के ग्रंथ रविदास रामायण की पंक्तियों में यह सत्य उजागर हो जाता है। जैसे उस काल में इस्लामिक शासक हिंदुओं को मुसलमान बनाने के लिये हरसम्भव प्रयास करते रहते थे वैसे ही आज भी कर रहे हैं। उस काल में दलितों के प्रेरणास्रोत संत रविदास महान चिंतक थे जिन्होंने अपने प्राण न्यौछावर करना स्वीकार था, मगर वेदों को त्यागकर कुरान पढ़ना स्वीकार नहीं था।

संत रविदास का कहना था कि परमात्मा का नाम स्मरण कर जीवन को सार्थक करना चाहिए। उन्होंने पशु बलि, जीव हिंसा, व्यसन मुक्ति और धर्मांतरण के लिए हिंसा का विरोध किया, सामाजिक तथा आर्थिक कार्यों में नैतिकता, श्रम की प्रतिष्ठा तथा नारी की गरिमा का सम्मान करने का मंत्र दिया। संत रविदास वाणी भक्ति की सच्ची भावना समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओतप्रोत होती थी। उनके वचनों का श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। समाज के सभी वर्गों के लोग उनकी वाणी के कारण उनके भक्त बन गये। आज भी संत रविदस के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उनका जीवन प्रेरणा का एक अनमोल  स्रोत है। उनका जीवन प्यार सत्य और सदभाव की सीख देता है।

संत रविदास ने जीवन पर्यंत जाति और धर्म का भेद मिटाने का ही संदेश दिया। कबीरदास जैसे संतों ने भी उन्हें ‘संतन में रविदास’ कहकर संत समाज और संत साहित्य जगत में उच्च स्थान दिया है। संत रविदास के दोहों से स्पष्ट हो जाता है कि वे प्रभु राम व श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति में लीन रहते थे। उनके कुछ दोहे अत्यंत लोकप्रिय हैं। जिसमें से एक है –

प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग अंग बास समानी॥

प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥

प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिनराती॥

प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा॥

प्रभु जी, तुम स्वामी, हम दासा ऐसी भक्ति करे रैदासा॥

संत रविदास जी अपने दोहों में कहते हैं कि, जिस हृदय में दिन-रात राम के नाम का ही वास होता है वह हृदय राम के समान होता है। वे कहते हैं कि, राम के नाम में ही इतनी शक्ति है कि व्यक्ति को कभी क्रोध नहीं आता और कभी भी काम भावना का विकार नहीं होता। यह दोहा है –

रैदास कहे जाकै हृदये, रहे रैन दिन राम।

सो भगता भगवंत सम क्रोध न व्यापै काम॥

संत रविदास के विचारों  से प्रेरित होकर ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व विश्व हिंदू परिषद ने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के उत्थान लिए काम करने का निर्णय लिया। संत रविदास की प्रेरणा व उनके विचारों के अनुरूप ही आज विश्व हिंदू परिषद व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से देशभर की मलिन बस्तियों व समाज के हर वर्ग के बीच समरसता स्थापित करने हेतु आयोजन किए जाते हैं, व संत रविदास जी के विचारों का प्रसार भी किया जाता है।

प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी प्रखंड स्तर तक समरसता के लिए संगोष्ठियों का अयोजन किया जाएगा, प्रभात फेरियां निकाली जाएंगी। संत रविदास के प्रेरक विचारों का प्रचार, प्रसार किया जएगा।दलित व पिछड़े समाज के बीच खिचडी भोज का आयोजन किया जाएगा। विहिप ने इस बार आंबेडकर बाल्मीकि और कबीरदास जैसे महान संतों के जन्मोत्सव को सामाजिक समरसता दिवस के रूप मे मनाने का निर्णय लिया है क्योंकि समाज के सभी संतो का एकमात्र उद्देश्य था कि हिंदू समाज में आपसी सदभाव बना रहे और वह मतातंरण जैसी बुराइयों का शिकार न हो सके।

This Post Has One Comment

  1. Anonymous

    प्रेरक विचार रखे है आपने. धन्यवाद

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