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संकीर्तन द्वारा धर्म बचाने वाले चैतन्य महाप्रभु

संकीर्तन द्वारा धर्म बचाने वाले चैतन्य महाप्रभु

by हिंदी विवेक
in अध्यात्म, विशेष, व्यक्तित्व, संस्कृति, सामाजिक
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अपने संकीर्तन द्वारा पूर्वोत्तर में धर्म बचाने वाले निमाई (चैतन्य महाप्रभु) का जन्म विक्रमी सम्वत् 1542 की फागुन पूर्णिमा (27 फरवरी, 1486) को बंगाल के प्रसिद्ध शिक्षा-केन्द्र नदिया (नवद्वीप) में हुआ था। इनके पिता पण्डित जगन्नाथ मिश्र तथा माता शची देवी थीं।

बालपन से ही आँगन में नीम के नीचे वे कृष्णलीला करते रहते थे। इसी से इनका नाम निमाई हुआ। देहान्त के बाद इसी पेड़ की लकड़ी से इनकी मूर्ति बनाकर वहाँ स्थापित की गयी।

एक बार बाग में खेलते समय इनके सम्मुख एक नाग आ गया। निमाई ने श्रीकृष्ण की तरह उसके मस्तक पर अपना पैर रख दिया। बच्चे शोर करते हुए घर की ओर भागे। माँ ने यह देखा, तो वे घबरा गयीं; पर थोड़ी देर में नाग चला गया। तब से सब लोग इन्हें चमत्कारी बालक मानने लगे।

16 वर्ष की अवस्था में उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान् वासुदेव सार्वभौम के पास जाकर न्यायशास्त्र का अध्ययन कर नदिया में अपनी पाठशाला स्थापित कर ली। कुछ समय में ही उनके शिक्षण की सर्वत्र चर्चा होने लगी।

इनका विवाह सूरदास के गुरु श्री वल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मी से हुआ; पर कुछ समय बाद ही सर्पदंश से वह चल बसी। सबके आग्रह पर उन्होंने विष्णुप्रिया से पुनर्विवाह किया। पिता के देहान्त के बाद उनका श्राद्ध करने वे गया गये। वहाँ उनकी भेंट स्वामी ईश्वरपुरी से हुई। इससे उनका जीवन बदल गया। अब वे दिन रात श्रीकृष्ण-भक्ति में डूबे रहने लगे।

उन्होंने पाठशाला बन्द कर दी और 24 वर्ष की अवस्था में मकर संक्रान्ति पर स्वामी केशवानन्द भारती से संन्यास की दीक्षा ले ली। उन्हें श्रीकृष्ण चैतन्य नाम दिया गया। कुछ समय बाद लोग उन्हें चैतन्य महाप्रभु कहने लगे।

अब वे कुछ भक्तों के साथ वृन्दावन की ओर निकल पड़े। वहाँ उनकी भेंट बंगाल के ही एक युवा संन्यासी निताई से हुई। आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आन्दोलन में निताई का विशेष योगदान रहा। निताई के बाद नित्यानन्द, अद्वैत, हरिदास, श्रीधर, मुरारी, मुकुन्द, श्रीवास आदि विविध जाति एवं वंश के भक्त इनके साथ जुड़ गये। इनके संकीर्तन से भक्ति की धूम मच गयी। जहाँ भी वे जाते, लोग कीर्तन करते हुए इनके पीछे चल देते।

उन दिनों बंगाल में मुस्लिम नवाबों का बहुत आतंक था; पर इनके प्रभाव से अनेक का स्वभाव बदल गया। धीरे-धीरे निमाई को लगा कि प्रभुनाम के प्रचार के लिए घर छोड़ना होगा। अतः वे जगन्नाथपुरी जाकर रहने लगे। वहाँ वे कीर्तन एवं भक्ति के आवेश में बेसुध हो जाते थे।

कुछ समय बाद वे यात्रा पर निकले। सब स्थानों पर इनके कीर्तन से सुप्त और भयभीत हिन्दुओं में चेतना आयी। धर्म छोड़ने जा रहे लोग रुक गये। दो वर्ष तक दक्षिण और पश्चिम के तीर्थों की यात्रा कर वे फिर पुरी आ गये।

विक्रम सम्वत् 1590 की आषाढ़ सप्तमी वाले दिन ये जगन्नाथ मन्दिर में भक्ति के आवेश में मूर्ति से लिपट गये। कहते हैं कि इनके अन्दर जाते ही मन्दिर के द्वार स्वयमेव बन्द हो गये। बाद में द्वार खोलने पर वहाँ कोई नहीं मिला। इनके भक्तों की मान्यता है कि ये मूर्ति में ही समाहित हो गये। कुछ लोग इनके देहान्त का कारण आवेशवस्था में समुद्र में डूबना बताते हैं।

संकीर्तन के माध्यम से भी धर्म की रक्षा हो सकती है, यह चैतन्य महाप्रभु ने सिद्ध कर दिखाया। आज भी जब वैष्णव भक्त संकीर्तन करते हैं, तो एक अद्भुत दृश्य उत्पन्न हो जाता है।

संकलन – विजय कुमार 

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Tags: chaitanya mahaprabhudevotionnimaishri krishnasocial awarenessspiritual master

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