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बड़े परदे से फिसलती कॉमेडी

बड़े परदे से फिसलती कॉमेडी

by सुधीर दुबे
in फिल्म, विशेष, हास्य विशेषांक-मई २०१८
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हास्य हमेशा से ही फिल्म इंडस्ट्री का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है। फिल्मोंं में हास्य के माध्यम से दर्शक के दुख-दर्द पर मरहम लगाने का काम किया जाता रहा है। उस दर्द पर, जिसे वह असल जिंदगी की फिल्म में छोड़कर कुछ वक्त के लिए काल्पनिक दुनिया में हास्य को जीने आता है। यह भी एक बहुत बड़ा भ्रम है कि यहां दर्द कम होता है। सच्चाई यह है कि बड़े परदे के सामने दर्द को कुछ वक्त के लिए भुलाया जा सकता है, कम नहीं किया जा सकता। उसे एक गठरी में बांधकर एक ऐसे कोने में रखा जा सकता है जहां तक मन की पहुंच न हो। लेकिन यदि सवाल किया जाए कि क्या वर्तमान में हास्य के नाम से प्रचारित दो से ढाई घंटे की अवधिवाली काल्पनिक दुनिया में मन, व्यक्ति के दर्द, गम, पीड़ाओं तक पहुंच पा रहा है, तो जवाब हां में आएगा। यह परिवर्तन क्यों आया, इस पर मंथन करने की उन लोगों को ज़रूरत है जो आज के दौर में हास्य के नाम पर वह सब गढ़ रहे हैं जो हास्य की श्रेणी में नहीं आता है।

बॉलीवुड कॉमेडी फिल्मों के मामले में अपनी साख खोता जा रहा है। इस जॉनर की फिल्मों पर जब भी चर्चा होती है तो शुरूआत में चंद फिल्मों के नाम ही सामने आते हैं और इनमें से भी अधिकांश बीते दौर की फिल्में हैं। अब फिल्मों में कॉमेडी से ज्यादा द्विअर्थी संवाद सुनने को मिलते हैं। कॉमेडी द़ृश्यों के नाम पर फुहड़ता परोसी जा रही है। यहां तक कि बड़े बैनर की फिल्मों में भी ऐसे द़ृश्य रचे जा रहे हैं जो पूरे परिवार के साथ बैठकर नहीं देखे जा सकते। कॉमेडी फिल्में सिर्फ टिकट खिड़की पर रूपयों की बरसात की मंशा से बनाई जा रही हैं। जब इस जॉनर की फिल्म बनाने का उद्देश्य ही बदल जाए तो दर्शक को स्तरहीन कॉमेडी ही देखने को मिलेगी। यह चिंता का विषय है और फिल्म इंडस्ट्री के जिम्मेदारों को इस पर जरूर मंथन करना चाहिए ताकि शुद्ध हास्य बड़े परदे पर दर्शकों के सामने आ सके।

इन फिल्मों ने बिगाड़ा कॉमेडी का स्तर

एक लम्बे समय तक भारतीय फिल्मों में कॉमेडी स्तरीय नज़र आई। हास्य से भरपूर ऐसे-ऐसे द़ृश्य रचे गए जिन्हें देख दर्शक पेट पकड़कर ठहाके लगाने को मजबूर हो गए थे, लेकिन वक्त बदला और कॉमेडी का स्तर गिरने लगा। वर्ष 2004 में आई इंद्र कुमार के निर्देशन में बनी फिल्म मस्ती में अशुद्ध हास्य ने इस फिल्म को तो हिट करा दिया लेकिन साथ ही यह संकेत भी दे दिए कि आनेवाली फिल्मों में कॉमेडी किस कदर स्तरहीन होनेवाली है। एडल्ट कॉमेडी के नाम पर इसके बाद कई फिल्में आईं जिन्होंने अपनी स्तरहीनता का परिचय दिया। 2011 में आई इमरान खान अभिनीत डेल्ही बेली में न सिर्फ द्विअर्थी संवादों की भरमार थी बल्कि अपशब्दों का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया था। फिल्म के प्रोमो में भी स्वयं आमिर खान ने दर्शकों के समक्ष यह स्पष्ट किया था कि यह फिल्म एडल्ट कॉमेडी है और इसे वयस्क ही थियेटर में देखने जाएं। नो एंट्री, दे दनादन, ग्रैंड मस्ती, गे्रट ग्रैंड मस्ती, क्या कूल हैं हम, क्या सुपर कूल हैं हम, मस्तीजादे, कुछ कुछ लोचा है जैसी फिल्मों में हास्य के नाम पर फुहड़ता परोसी गई। वर्तमान में स्थिति यह है कि कॉमेडी फिल्मों में द़ृश्य और संवादों में वल्गेरिटी का समावेश किया जा रहा है। कॉमेडी की जगह एडल्ट कॉमेडी, हॉरर कॉमेडी ने ले ली है।

कॉमेडी फिल्मों का स्वर्णिम दौर

बेहतर हास्य फिल्मों पर विचार किया जाए तो बीते जमाने की याद ताजा हो जाती है। वह भी क्या दौर था जब एक से बढ़कर एक हास्य फिल्में बनाई जाती थीं और उनमें शुद्ध व स्वाभाविक हास्य परोसा जाता था। याद आती है 1968 में ज्योति स्वरूप के निर्देशन में बनी फिल्म पड़ोसन की जिसमें गुरू (किशोर कुमार) और चेले (सुनील दत्त) के बीच गजब केमेस्ट्री रची गई थी। वह पड़ोसन (सायरा बानो) जिसका नाम बिंदु था और वह मास्टर जी (मेहमूद) जो अपनी संगीत प्रतिभा के बल पर बिंदु को पाने के लिए हर संभव प्रयास करते नज़र आते थे। फिर याद आते हैं 1975 में आई ॠषिकेश मुखर्जी की फिल्म चुपके-चुपके के प्रो. परिमल (धर्मेन्द्र) जो अपनी पत्नी सुलेखा (शर्मिला टैगोर) के जीजाजी (ओम प्रकाश) का घमंड तोड़ने के लिए रचते हैं एक हास्यास्पद कहानी। इस फिल्म के कई द़ृश्य हास्य से भरपूर थे। बीते दौर की और भी कुछ फिल्में हैं जिनका विचार आते ही होठों पर हंसी खिलने लगती है। इनमें हॉफ टिकट 1962, 1958 में आई चलती का नाम गाड़ी, 1972 में प्रदर्शित बॉम्बे टू गोवा, छोटी सी बात 1975, गोलमाल 1979, चश्मे बद्दूर 1981, सत्ते पे सत्ता और अंगूर 1982, जाने भी दो यारों 1983, चमेली की शादी 1986, पुष्पक 1987 आदि शामिल हैं। जाने भी दो यारों का वह अंतिम द़ृश्य कौन भूल सकता है जब महाभारत के मंचन के दौरान किरदारों में टकराहट पैदा होती है और हास्य फूटता है। अंगूर में संजीव कुमार और देवेन वर्मा की दो जोड़ी ने भी खूब हंसाया था। गोलमाल में रामप्रसाद और लक्ष्मण प्रसाद नामक जुड़वां भाइयों का भ्रम पैदा कर उत्पल दत्त को मूर्ख बनाने के द़ृश्यों ने भी दर्शकों को अपनी सीट से उठने नहीं दिया था। 1994 में आई राजकुमार संतोषी की आमिर खान-सलमान खान अभिनीत फिल्म अंदाज़ अपना अपना भी यादगार फिल्मों में गिनी जाती है। हालांकि वक्त के साथ कॉमेडी तो जारी रही मगर परिवर्तन साफ महसूस किया जाने लगा। दुल्हे राजा 1998, हसीना मान जाएगी 1999, जोड़ी नम्बर वन 2001, हंगामा 2003, हलचल 2004, गरम मसाला, भागमभाग 2005, पार्टनर, धमाल, वेलकम, भूल-भूलैया 2007, हाउसफुल 2010, बोल बच्चन 2012, फुक रे 2013 तक आते आते कॉमेडी में कई बदलाव आ गए हैं।

गोंविदा-धवन की जोड़ी ने भी खूब हंसाया

कॉमेडी फिल्मों की बात हो और अभिनेता गोविंदा व निर्देशक डेविड धवन का जिक़्र न आए ऐसा संभव नहीं है। इनकी जोड़ी ने भी फिल्मों में दर्शकों को खूब हंसाया है। शोला और शबनम, राजा बाबू, आंखें, कुली नम्बर वन, हीरो नम्बर वन, दीवाना-मस्ताना सरीखी फिल्मों में बेहतरीन हास्य द़ृश्य रचे गए और दर्शकों ने भी इन फिल्मों को जमकर हिट कराया था।

अजब कहानी, गजब का हास्य

बीते कुछ वर्षों में ऐसी फिल्में भी आई हैं जिनकी कहानियों ने दर्शकों को न सिर्फ चौंकाया है बल्कि उनके हास्य को भी एक अलग अंदाज़ में परोसा गया है। इनमें सुभाष कपूर की फिल्म फंस गए रे ओबामा, दिबाकर बैनर्जी की खोसला का घोसला, सागर बेल्लारि की भेजा फ्राय, नितीन कक्कड़ की फिल्मीस्तान, सुभाष कपूर की जॉली एलएलबी, राजकुमार हीरानी की मुन्नाभाई सीरिज, थ्री इडियट्स, उमेश, शुक्ला की ओ माई गॉड, प्रियदर्शन की हेराफेरी आदि शामिल हैं। इनमें कहानी के आधार पर हास्य रचा गया था जिसे दर्शकों ने खूब सराहा था। रोहित शेट्टी की गोलमाल सीरिज भी खासी प्रसिद्ध रही है।

चला गया कॉमेडियन का दौर

हिन्दी फिल्मों में एक वक्त ऐसा था जब विशेष रूप से कॉमेडी के लिए अभिनेताओं को शामिल किया जाता था। उन्होंने अपने हास्यपूर्ण अभिनय से ऐसा जादू चलाया था कि फिल्में उनके नाम तक से बिकनी शुरू हो गईं थीं। कॉमेडियन मेहमूद, जॉनी वॉकर, टुनटुन, जगदीप, असरानी, मोहन चोटी, राजेन्द्र नाथ, कादर खान, शक्ति कपूर, गुलशन ग्रोवर, जॉनी लीवर आदि ने लम्बे समय तक दर्शकों को अपने अभिनय से हंसाया। इसके बाद परेश रावल, राजपाल यादव, विजय राज, ब्रजेश हीरजी ने भी फिल्मों में बेहतरीन कॉमेडी की। लेकिन अब दौर ऐसा आ गया है कि विशेष तौर पर कॉमेडियन फिल्मों में कम ही लिए जाते हैं। उनकी जगह अभिनेता और सह अभिनेताओं ने ले ली है।

 

 

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Tags: comedyhindi vivekhindi vivek magazineselectivespecialsubjectiveकॉमेडी

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