टुकड़े-टुकड़े होते रिश्ते

भारतीय समाज कभी भी नृशंस नहीं रहा। युद्ध के अलावा सामान्य जीवन में किसी की हत्या करना पाप की श्रेणी में गिना जाता था। हमारे संस्कारों, मूल्यों में किसी को दुख पहुंचाना ही बहुत बड़ी बात होती थी, हत्या करने का विचार तो सामान्य लोगों को छूता भी नहीं था। परंतु अब धीरे-धीरे समाज में परिवर्तन दिखाई दे रहा है।

वर्तमान में किसी भी समाचार पत्र या चैनल पर आने वाले समाचारों में अधिकांश समाचार हत्या या हत्या के प्रयास के होते हैं। इन हत्याओं को करने का तरीका इतना नृशंस और बर्बर होता है कि समाचार पढ़ने-सुनने वालों की आत्मा कांप जाए। दिल्ली में श्रद्धा के मामले में आफताब हो, पालघर में अपनी पत्नी की हत्या के बाद कार्यालय जाने वाला पति हो, मुम्बई में अपनी मां को मारकर उसके टुकड़े करनेवाली बेटी हो या अन्य कोई मामला हो… रिश्तों को इस तरह तार-तार होता देखकर लेखनी बरबस ही लिखने के लिए तड़प उठती है।

आवेश में किसी की हत्या कर देने का विचार आना या वास्तविकता में हत्या कर भी देना, यहां तक की मानसिक स्थिति को फिर भी समझा जा सकता है। हत्या करने वाले व्यक्ति का आवेश कम होने पर उसे पछतावा भी होता है। कई मामलों में हत्या करने वाला व्यक्ति स्वयं ही आत्मसमर्पण भी कर देता है परंतु किसी को मारना, मृत शरीर के टुकड़े करना, उन्हें 2-3 दिन तक फ्रिज या सूटकेस में छिपाना और धीरे-धीरे करके उन कटे हुए अंगों का जलाकर, गाड़कर या अन्य तरीकों से निबटारा करना यह किसी क्षणिक आवेश में किया गया काम नहीं होता। ऐसे लोग मनोरोगियों की श्रेणियों में आते हैं। ऐसे लोगों को ‘कोल्ड ब्लडेड क्रिमिनल’ कहा जाता है। ये लोग हत्या करने के बाद भी किसी सामान्य व्यक्ति की तरह अपनी दिनचर्या पूर्ण करते हैं।

मनोविज्ञान की भाषा में मनोरोग की श्रेणियां अलग-अलग हैं। मनोविज्ञान हर किसी को ‘पागल’ नहीं कहता परंतु ‘विकृत’ अवश्य कहता है। यह मानसिक विकृति मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर धीरे-धीरे प्रभाव डालती है।आज के भारतीय समाज में यह मनोविकार अत्यधिक तेजी से बढ़ता दिखाई दे रहा है और इसका सीधा परिणाम व्यक्ति के अत्यंत निकटवर्ती सम्बंधों पर पड़ रहा है। माता-पिता, भाई-बहिन, पति-पत्नी जैसे पारिवारिक सम्बंध इस मनोविकार की बलि चढ़ रहे हैं। इस प्रकार की हत्याओं का विवेचन करने पर एक ‘कॉमन फैक्टर’ यह दिखाई देता है कि जिसकी हत्या हुई और जिसने हत्या की है उनमें निकट का सम्बंध है और एक बाहरी व्यक्ति वह भी है जिसने हत्या करने में या उस शव के टुकड़े करके उसका निबटारा करने में हत्यारे की मदद की है। अगर गहन विवेचन किया जाए तो वास्तविक अपराधी यही बाहरी व्यक्ति होता है जो उस हत्यारे की मानसिकता को उस ‘विकृति’ के स्तर तक पहुंचाता है। यह बाहरी व्यक्ति प्रेमी-प्रेमिका होता है, कभी मित्र होता है या कभी व्यावसायिक पार्टनर। जो भी हो परंतु उस समय वह पारिवारिक सदस्यों से भी अधिक ‘अपना’, ‘सगा’ लगता है।

ऐसी घटनाओं की दो समांतर पृष्ठभूमियां होती हैं। पहली मनोरोगी का स्वभाव और दूसरा उसके आस-पास का पारिवारिक और सामाजिक वातावरण। अत: ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए केवल भारतीय कानून व्यवस्था काफी नहीं है। भारतीय कुटुम्ब पद्धति या सामजिक ताने-बाने को आधार बनाकर इन घटनाओं को देखना होगा और मनोवैज्ञानिक कारण पता लगाकर मानसिक प्रबोधन करके इन समस्याओं का हल ढूढ़ना होगा। सबसे सामान्य बात तो यह दिखाई देती है कि लोगों में ‘ना’ सुनने की क्षमता खतम होती जा रही है। कोई वस्तु खरीदने  के लिए, किसी व्यक्ति से मिलने के लिए या अन्य किसी भी बात के लिए अगर परिवार के लोग किसी व्यक्ति को मना करते हैं तो वे तुरंत बुरे बन जाते हैं। फिर वह व्यक्ति उनके बारे में नकारात्मक सोचने लगता है और उसकी इसी सोच को बढ़ावा देता है वह बाहरी व्यक्ति। उस समय व्यक्ति यह नहीं सोचता कि अगर परिवार के लोग किसी बात के लिए मना कर रहे हैं तो वह हमारे हित में होगा। दूसरी बात यह कि सम्बंधों की विश्वसनीयता, आपसी प्रेम और दायित्व बोध कम होता जा रहा है।

इन सभी समस्याओं से उबरने के लिए आवश्यक है कि परिवार के लोगों में संवाद हो। जब संवाद होने लगता है तो सभी एक दूसरे को इतना समझने लगते हैं कि कई बार बिना बोले भी एक दूसरे के मनोभावों को भांप लेते हैं। परिवार के लोगों के बीच निरंतर संवाद होने से उनमें व्यक्तियों को पहचानने की क्षमता का भी विकास होता है। अगर घर के लोग भी एक दूसरे से मिलने वाले बाहरी लोगों को पहचानते हैं तो वे समझ सकते हैं कि कौन व्यक्ति कैसा होगा, किस उद्देश्य से सम्पर्क बढ़ा रहा होगा और समय आने पर अपने परिवार के सदस्य को सचेत भी कर सकते हैं।

कोई भी व्यक्ति जन्म से मनोरोगी नहीं होता। ईर्ष्या, क्रोध आदि भावनाएं स्वभावानुसार अलग-अलग हो सकती हैं परंतु जब ये सीमा से अधिक हो जाती हैं तो व्यक्ति को मनोरोगी बना देती हैं। किसी भी समाज में ऐसे मनोरोगियों की संख्या बढ़ना सही नहीं है। अत: आवश्यक है कि परिवार के हर व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य उत्तम हो तभी इस प्रकार की नृशंस और बर्बरतापूर्ण घटनाओं में कमी आएगी और एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा।

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