कर्नाटक विधानसभा के चुनाव 10 मई 2023 को प्रस्तावित हैं। 13 मई 2023 को चुनाव परिणाम आएंगे। 20 अप्रैल तक फाइनल गोटी बिछ जाएँगी। कौन किस पाले में खड़ा है सुनिश्चित हो जायेगा। फिर शुरू होगा घमासान। भाई से भाई लड़ेगा। जीत कौरव पक्ष की होगी अथवा पाण्डव पक्ष की? श्रीकृष्ण की भूमिका में आज कौन है? किसके साथ खड़े हैं श्रीकृष्ण? भीष्म पितामह, आचार्य द्रौण, महात्मा विदुर आज भी मौन हैं अथवा लाचार कहना मुश्किल है? प्रश्न अनेक हैं पर उत्तर एक नहीं है।
बात है 2007 की। उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित हो चुके थे। भारतीय जनता पार्टी ने क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल के सहयोग से राज्य सरकार का गठन किया था। संघ कार्यालय में अनौपचारिक बात-चीत में मैंने कहा कि भाजपा को अब आर्थिक शुचिता एवं पार्टी में पनप रहे परिवारवाद के लक्षणों से निबटने पर ध्यान देना होगा। लेकिन बात आई-गई हो गई।
फिर आया 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व को मिला भारत की जनता का प्रचंड समर्थन।और देश की आज़ादी के बाद पहली बार भाजपा ने सहयोगी दलों को साथ लेकर अपने दम पर केंद्र में बनाई एक मजबूत और स्थिर सरकार। 2024 का लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भाजपा चुनाव रूपी अमृत-मंथन के लिए तैयार है। और जो दृश्य उभर रहा है लगता है इस बार अमृत-मंथन का मेरु पर्वत होगा परिवारवाद/वंशवाद एवं भ्रष्टाचार पर प्रहार यानी सत्ता के कॉरिडोर में आर्थिक शुचिता का व्यवहार।प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी लगातार अपने संबोधन में कहते आ रहे हैं कि राजनीति में परिवारवाद अर्थात वंशवाद अंततोगत्वा लोकतंत्र को कमजोर करता है और परिवारवाद भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है।
ऐसे समय जब समाज जीवन के हर क्षेत्र में नैतिक क्षरण होता दिखाई दे रहा हो तब राजनीति जैसे रपटीले विकट क्षेत्र में परिवारवाद पर चोट करते हुए आर्थिक शुचिता की मंजिल की ओर बढ़ना असम्भव को सम्भव बनाने जितना दुरूह संकल्प लेकर काम करना प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी जैसे दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता के बूते की ही बात हो सकती है। विगत 9 वर्षों की भाजपा की राजनितिक यात्रा इसकी साक्षी है। हालाँकि भाजपा को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है। हिमाचल प्रदेश के गत चुनाव में भाजपा सरकार की वापसी न होना इसका सबसे ताजा उदाहरण है। इसके बावजूद कर्नाटक में जब नेताओं के टिकट फाइनल हो रहे हैं तब उन जीवन मूल्यों का पालन करते हुए निर्णय लेना इस बात का संकेत है कि भाजपा की प्रतिबद्धता अडिग है।
टिकट वितरण के बाद कर्नाटक में जिस प्रकार पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष जगदीश शेट्टार और पूर्व उप मुख्यमंत्री व भाजपा के वरिष्ठ नेता लक्ष्मण सावदी धुर विरोधी विचारधारा पर खड़ी कांग्रेस पार्टी के टिकट पर भाजपा के खिलाफ चुनावी युद्ध में उतरे हैं यह भाजपा के लिए जरूर एक नई चुनौती है। फ़िलहाल तो भाजपा अपने सर्वाधिक लोकप्रिय जननेता प्रधानमंत्री मोदी जी के अप्रतिम नेतृत्व, पार्टी की राष्ट्रवादी विचारधारा तथा समर्पित कर्यकर्ताओं की फौज के बलबूते इस चुनौती से दो-दो हाथ करने के लिए सन्नद्ध है। लेकिन चुनाव परिणाम का इंतजार रहेगा।
चुनाव परिणाम जो कुछ आये। इस घटनाक्रम को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से तब जबकि वर्तमान कांग्रेस के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी सार्वजनिक रूप से आरएसएस की विचारधारा के खिलाफ लड़ाई को अपने जीवन का मकसद घोषित करते रहते हों। साथ ही जबकि हिंदुत्व विरोधी वैश्विक शक्तियां भी भारत के खिलाफ ताल ठोक रही हों। ऐसे में समझ से परे है कि ‘केशव’ कुल का कोई कार्यकर्ता वैयक्तिक हितों को देश हित से ऊपर कैसे रख सकता है? जगदीश शेट्टार एवं लक्ष्मण सावदी लम्बे समय से कर्नाटक भाजपा के लिए कार्य कर रहे हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री व उप मुख्यमंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों की शोभा बढ़ा चुके हैं। राजनीति में पार्टी नेताओं से मतभेद होना या मनभेद होना कोई बड़ी बात नहीं परन्तु वैयक्तिक हित के लिए पार्टी हित की बलि दे देना बड़ी बात है। विशेषकर भाजपा में जिसका मूल सिद्धांत है सर्वप्रथ राष्ट्र हित, उसके बाद पार्टी हित और सबसे बाद में वैयक्तिक हित।उम्मीद है कि भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व जिसने भाजपा को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनाया, केंद्र में जिसने दो-दो बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई वो इस चुनौती से भी सफलतापूर्वक अवश्य निबट लेगा।
परन्तु ध्यान में आता है कि आजकल पार्टी के विमर्श में सेवा, समर्पण एवं अनुशासन पर पूरा जोर रहता है, मतभेद और मनभेद की चर्चा भी खूब होती है। फिर ऐसा क्या हो गया और क्यों हो गया कि सावदी एवं शेट्टार जैसे वरिष्ठ नेता धुर विरोधी पार्टी से जा मिले और अपनी ही पार्टी के प्रति शत्रु भाव के साथ काम करने लगे? इसका अर्थ यह क्यों न लगाया जाये कि सेवा, समर्पण और अनुशासन से भी अधिक महत्वपूर्ण है कार्यकर्ता की प्रमाणिकता। क्योंकि सेवा, समर्पण और अनुशासन निज स्वार्थ से भी प्रेरित हो सकते हैं जबकि प्रमाणिकता स्वतः स्फूर्त और स्वतः प्रमाणित होती है उसे किसी अन्य आधार की जरूरत नहीं। क्या राष्ट्रीय नेतृत्व इस पर ध्यान देगा?
प्रमाणिकता चूँकि न पैदा की जा सकती है, न थोपी जा सकती है लेकिन प्रमाणिकता का परीक्षण अवश्य हो सकता है। इसके लिए पार्टी संगठन में कुछ स्वस्थ परम्पराएं विकसित करनी होंगी, स्थापित करनी होंगी। आरएसएस कार्यकर्ता बात-चीत में प्रायः सगर्व चर्चा करते है कि हम तो बिना एड्रेस लिखा लिफाफा हैं जो एड्रेस लिख दिया जायेगा वहीं पहुंच जायेंगे। यह सिर्फ चर्चा ही नहीं करते बल्कि इस भाव को जीते भी हैं। भाजपा भी न केवल आरएसएस विचार परिवार का एक अंग है वरन वर्तमान में भाजपा का नियंत्रण भी आरएसएस के स्वयंसेवकों के हाथ में है फिर वहां यह उत्तम परम्परा क्यों नहीं विकसित की जा सकती?
भाजपा अध्यक्ष पद पर कोई भी कार्यकर्ता लगातार अधिकतम दो कार्यकाल तक ही रह सकता है यह परम्परा भाजपा नेताओं ने ही स्थापित की है। परिणाम स्वरूप भाजपा वंशवाद के चंगुल से बची हुई है। ऐसी ही कुछ स्वस्थ परम्परा जनप्रतिनिधियों के बारे में विकसित क्यों नहीं की जा सकती? विचारधारा आधारित तथा कार्यकर्ताओं के परिश्रम से सिंचित भाजपा जनप्रतिनिधियों की बंधक बनने पर क्यों मजबूर हो? कभी न कभी तो पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को इस पर विचार करना ही होगा। राजनीतिक क्षेत्र जहां निज स्वार्थ कब सुरसा का अवतार धारण न करले वहां तो यह और भी जरूरी है। आखिर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री आदित्यनाथ यूँ ही तो जनता की आँखों के तारे नहीं बनें हुए हैं।