वृथा है पश्चिमवालों की नकल करना

हम लोगों को अपनी प्रकृति के अनुसार ही अपनी उन्नति करनी होगी। विदेशी संस्थाओं ने बलपूर्वक जो कृत्रिम प्रणाली हम पर थोपने की चेष्टा की है, तदनुसार काम करना वृथा है। वह असम्भव है। जय हो प्रभु! हम लोगों को तोड़-मरोड़कर नये सिरे से दूसरे राष्ट्रों के ढाँचे में गढ़ना असम्भव है। मैं दूसरी जातियों की सामाजिक प्रथाओं की निन्दा नहीं करता। वे उनके लिए अच्छी हैं, पर हमारे लिए नहीं। अन्य प्रकार के विज्ञान, अन्य प्रकार के परम्परागत संस्कार और अन्य प्रकार के आचारों से उनकी वर्तमान सामजिक प्रथाएँ गठित हुई हैं, पर हम लोगों के पीछे हैं, हमारे अपने परम्परागत संस्कार और हजारों वर्षों के कर्म।अतएव हमें स्वभावतः अपने संस्कारों के अनुसार चलना पड़ेगा; और हमें ऐसा ही करना होगा।

हम पश्चिमी नहीं हो सकते, इसलिए पश्चिमवालों की नकल करना वृथा है। मान लो तुम पश्चिमवालों का पूरी तौर से अनुकरण करने में सफल भी हो गये, तो उसी समय तुम्हारा विनाश अनिवार्य है, फिर तुममें जीवन का लेश भी नहीं रह जाएगा। काल की प्रारम्भिक अवस्था से निकलकर मनुष्य जाति के इतिहास में लाखों वर्षों से लगातार एक नदी बहती आ रही है। तुम क्या उसे रोककर और धकेलकर उसके उद्गम-स्थान हिमालय के हिमनद में वापस ले जाना चाहते हो? यदि यह सम्भव भी हो, तथापि तुम यूरोपियन नहीं हो सकते। यदि यूरोपियनों के लिए कुछ शताब्दियों की शिक्षा का संस्कार छोड़ना तुम असम्भव समझते हो, तो सैकड़ों गौरवशाली सदियों के संस्कार छोड़ना तुम्हारे लिए कैसे सम्भव है? नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। इसलिए भारत का यूरोपीयकरण एक असम्भव और मूर्खतापूर्ण कार्य है।

भारत में हमारे मार्ग में दो बड़ी रुकावटें हैं – एक ओर हमारा प्राचीन हिन्दू समाज और दूसरी ओर अर्वाचीन यूरोपीय सभ्यता। इन दोनों में यदि कोई मुझसे एक चुनने को कहे, तो मैं प्राचीन हिन्दू समाज को पसन्द करूंगा, क्योंकि अज्ञ होने पर भी, अपक्व होने पर भी कट्टर हिन्दुओं के हृदय में एक विश्वास है, एक बल है, जिससे वह अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है। पर विलायती रंग में रँगा व्यक्ति सर्वथा मेरुदण्डविहीन होता है, वह इधर उधर के विभिन्न स्रोतों से वैसे ही एकत्र किये हुए अपरिपक्व, विशृंखल, से बेमेल भावों की असन्तुलित राशि मात्र है। वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता, उसका सिर हमेशा चकराया करता है।

वह जो कुछ करता है, क्या आप उसका कारण जानना चाहते हैं? अंग्रेजों से थोड़ी शाबाशी पा जाना ही उसके सब कार्यों का मूल प्रेरक है। वह जो समाज-सुधार करने में अग्रसर होता है, हमारी कितनी ही सामाजिक प्रथाओं के विरुद्ध तीव्र आक्रमण करता है, इसका मुख्य कारण यह है कि इसके लिए वह साहबों से वाहवाही पाता है। उसकी दृष्टि में हमारी कितनी ही सामाजिक प्रथाएँ इसीलिए दोषपूर्ण हैं कि साहब लोग ऐसा कहते हैं! मुझे ऐसे विचार पसन्द नहीं। चाहे जीवित रहो या मरो, अपने बल पर खड़े रहो। यदि दुनिया में कोई पाप है, तो वह है दुर्बलता। दुर्बलता ही मृत्यु है, दुर्बलता ही पाप है, अत: सब प्रकार की दुर्बलता का त्याग करो।

– स्वामी विवेकानन्द

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